पिछले दिनों हिंदी सिनेमा के चर्चित गीतकार शैलेंद्र (1923-1966) की जन्मशती के अवसर पर उनके लिखे गानों की खूब चर्चा हुई. उनके गाने जीवन और जन से गहरे जुड़े हैं. बोलचाल की भाषा में लिखे और गहरे मानी से सजे न जाने कितने ही गाने आज मुहावरे की शक्ल ले चुके हैं.
आजादी के बाद देश-दुनिया में हिंदी फिल्मी गीतों के प्रसार में रेडियो की प्रमुख भूमिका रही. आज भले दृश्य माध्यम जनसंचार के केंद्र में हो, लेकिन पिछली सदी के 80 के दशक तक रेडियो ही देश-दुनिया से जुड़ने और मनोरंजन का प्रमुख साधन था. सच तो यह है कि पचास-साठ के दशक में हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत ने एक अलग विधा का रूप ग्रहण किया. फिल्म संगीत के इस ‘स्वर्णकाल’ में आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) के एक अध्याय पर नज़र डालना जरूरी है, जो आम लोगों की नजर से ओझल ही रहता आया है.
आजाद भारत में सरकार की एक नीति ने रेडियो पर फिल्मी गानों के प्रसार पर ग्रहण लगा दिया था. यह ग्रहण 1952 से 1957 तक लगा रहा. अक्टूबर 1952 में जब बी वी केसकर देश के नए सूचना और प्रसारण मंत्री बने तब उन्होंने ऐलान किया कि ‘ये गाने दिनों दिनों अश्लील होते जा रहे हैं और पाश्चात्य देशों की धुनों का कॉकटेल हैं.’ उस समय हर दिन कुछ घंटे विभिन्न रेडियो स्टेशन से फिल्मी गानों का प्रसार होता था. केसकर ने निर्देश जारी किया कि रेडियो स्टेशन से हिंदी गानों का प्रसार नहीं होगा. हिंदी फिल्मी गानों की लोकप्रियता को देखते हुए सिनेमा उद्योग के लिए यह आघात से कम नहीं था. असल में, रेडियो के माध्यम से केसकर शास्त्रीय और सुगम संगीत का प्रसार करना चाहते थे. वे कहते थे कि फिल्म संगीत भारतीय संगीत परंपरा से दूर चला गया है. वे खुद शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित थे.
वे एक तरफ मानते थे कि संगीत लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है, वहीं दूसरी तरफ लोकप्रिय गीत-संगीत से लोगों को दूर कर रहे थे. संचार के साधनों के समुचित विकास के बाद भी आज देश में शास्त्रीय संगीत का प्रसार एक खास तबके तक ही सीमित रहा है, जबकि फिल्मी गीत-संगीत की पहुँच एक विशाल वर्ग तक हो चुकी है.
इस रोक के बाद फिल्मी गीत-संगीत की तलाश में श्रोताओं ने अन्य रेडियो स्टेशन की खोज शुरू की. यही दौर था जब व्यावसायिक रेडियो सिलोन (श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) क्षितिज पर उभरा, जहाँ से मुख्यतया फिल्मों गानों का ही प्रसार होता था. सरहद के पार, सिलोन भारत में फिल्मी गानों के लिए परिचित नाम हो गया. उद्घोषक अमीन सयानी और 'बिनाका गीतमाला' को लोग आज भी याद करते हैं. आकाशवाणी के श्रोताओं की संख्या घटती चली गई, मजबूरन सरकार ने अपने फरमान वापस लिए. साथ ही उसी साल संगीत को समर्पित ‘विविध भारती (बंबई)’ की स्थापना भी की गई. एक तरह से फिल्म गीत-संगीत पर रोक केसरकर और भारत सरकार का शुद्धतावादी रवैया था, जो 'राष्ट्र’ और ‘नागरिक’ निर्माण को लेकर अति तत्पर दिखाई देता था.
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