करीब तीस साल पहले मैंने दरभंगा के एक सिनेमाघर में ‘गाइड’ (1965) फिल्म देखी थी, जिसकी धुंधली सी स्मृति थी. जब जाना कि सदाबहार अभिनेता देवानंद की जन्मशती (1923-2011) के अवसर पर सिनेप्रेमियों के लिए उनकी क्लासिक फिल्मों ‘गाइड’, ‘ज्वेल थीप’, ‘सीआईडी’ और ‘जॉनी मेरा नाम’ देखने का फिर से मौका है, तो मैं ‘गाइड’ मिस नहीं करना चाहता था.
देश के तीस शहरों के चुनिंदा सिनेमाघरों में इन फिल्मों का प्रदर्शन फिर से हुआ. जवान’ और ‘गदर-2’ के बीच इन फिल्मों के प्रति दर्शकों की दीवानगी कम नहीं थी. कुछ ही घंटों में लगभग सारे टिकट बुक हो गए. सिनेमाघर में एक साथ कई पीढ़ियों को देखना एक सुखद अनुभव था.
देवानंद की फिल्मोग्राफी में ‘गाइड’ (1965) का स्थान सबसे ऊपर है, जो मशहूर लेखक आर के नारायण के इसी नाम से लिखे अंग्रेजी उपन्यास पर आधारित है. विजय आनंद(गोल्डी) इस फिल्म के निर्देशक बने.
राजू (गाइड) और रोजी (नर्तकी) के बीच प्रेम संबंध को यह फिल्म जिस अंदाज और फलसफे से परदे पर प्रस्तुत करती है वह इसे क्लासिक बनाता है. देवदासी नर्तकी परिवार से आने वाली रोजी (वहीदा रहमान) एक शादी-शुदा स्त्री है, जिसका ऑर्कोलॉजिस्ट (किशोर साहू) पति अपने काम में इस कदर मुब्तिला है कि उसे अपनी पत्नी की सुध नहीं है. रोजी के घुंघरू उसे पुकारते हैं, पर संबंधों की बेड़ी उसे रोके हुए है. राजू के संग पनपते प्रेम से उसे एक नई पहचान मिलती है. क्या वह एक सफल नर्तकी की पहचान, स्वतंत्रता, शोहरत, धन-दौलत से खुश है? राजू के व्यक्तित्व के भी कई आयाम हैं. उसे एक खांचे में रख कर नहीं देखा जा सकता है. 'तीसरी कसम' (1966) के हीरामन की तरह उसका प्रेम निश्छल नहीं है. न हीं वह रोजी से 'हीराबाई' की तरह बिना किसी अपेक्षा के प्रेम करता है. प्रेम के स्वरूप का यह द्वैत क्या महज शहरी और ग्रामीण परिवेश से संचालित है? या यह हिंदी के रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' और अंग्रेजी के आर के नारायण के यथार्थबोध का फर्क है?
राजू एक तरफ रोजी (नलिनी) को बुलंदियों की ऊंचाई छूते हुए देखना चाहता है, दूसरी तरफ उसे मुक्त भी नहीं करता. भौतिक सुख-सुविधा दोनों के बीच संबंधों में एक दूरी पैदा करते हैं. क्या राजू हीरो है या एंटी हीरो? किसी भी क्लासिक फिल्म की तरह इस फिल्म की भी समकालीन संदर्भों में कई तरह से व्याख्या की जा सकती है.
फिल्म के आखिर में ‘आत्म’ की तलाश में भटकता, ‘आस्था’ और खुद से संघर्ष करता हुआ वह जिस रूप में सामने आता है वह एक आधुनिक मनुष्य का द्वंद है. यदि प्रेम लोकमंगल के भाव को समेटे हुए नहीं है, तो फिर उसका क्या अर्थ? राजू का फलसफा कि ‘न दुख है, न सुख है/न दीन न दुनिया/ न इंसान न भगवान/ सिर्फ मैं, मैं, मैं’, आज भी सोचने को उकसाता है. ‘नवकेतन’ की अन्य फिल्मों की तरह ही यह ‘म्यूजिकल’ है.
भरतनाट्यम में प्रशिक्षित वहीदा रहमान का नृत्य जिस तरह गाइड में फिल्माया गया है, वैसा उनकी किसी अन्य फिल्म में नहीं दिखाई देता है. वे खुद इस बात को स्वीकारती भी रही हैं. साथ ही एस डी बर्मन और शैलेंद्र का गीत-संगीत किरदारों के मनोभावों को जिस खूबसूरती से बयां करता है, वह हिंदी सिनेमा की कहानी कहने की शैलीगत विशिष्टता को एक ऊंचाई प्रदान करता है. ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है’ महज एक गाना नहीं है बल्कि इस फिल्म का सूत्र वाक्य है. यह एक स्त्री मन के अनेक भावों को एक साथ अभिव्यक्त करता है. शैलेंद्र के जन्मशती वर्ष में 'गाइड' फिल्म में लिखे उनके गीतों की चर्चा अलग से होनी चाहिए. 'पिया तोसे नैना लागे रे' की रागात्मकता, संगीतात्मकता और शास्त्रीयता का शब्दों में बखान करना मुश्किल है.
उल्लेखनीय है कि जब देवानंद ने ‘नवकेतन’ की स्थापना वर्ष 1949 में की तब से ही ‘क्राइम म्यूजिकल’ पर जोर रहा. आजादी के बाद पचास-साठ के दशक की फिल्मों में आधुनिकता के साथ-साथ आदर्शवादी सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. फिल्मों पर जवाहरलाल नेहरू के विचारों की छाप भी स्पष्ट है. ‘ट्रैजडी किंग’ दिलीप कुमार और ‘शो मैन’ राज कपूर इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. लेकिन बात जब रोमांटिक छवि वाले अभिनेता की होती है, जेहन में देवानंद का ही नाम आता है. होठों में सिगरेट दबाये, चेहरे पर फ्लर्ट करने वाली मोहक मुस्कान और संवाद अदायगी का अलहदा अंदाज! ‘रोमांसिंग विद लाइफ’ वही लिख सकते थे. यह जिजीविषा से भरपूर, राजनीतिक रूप से सचेत और आत्ममुग्धता की हद तक आत्मविश्वास से भरे यह एक ऐसे अभिनेता की आत्मकथा है जो जीवन पर्यंत एक अभिनेता और फिल्म निर्देशक के रूप में प्रयोग करने से कभी झिझका नहीं. परदे पर उनके किरदार जीवन के विविध रंग लिए हुए हैं.
आज भले बॉलीवुड के परदे पर स्त्री के विविध रूप दिखाई देने लगे हैं, साठ के दशक में एक विवाहित स्त्री के अन्य पुरुष के साथ संबंध को परदे पर दिखाना एक तरह से क्रांतिकारी कदम था. यह फिल्म जब बन रही थी तब ही इस फिल्म के बारे में तरह-तरह की बातें की जाने लगी थी. फिल्म को वितरक मिलना मुश्किल हो रहा था. साथ ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय से भी प्रमाण पत्र लेना जरूरी था, क्योंकि यह फिल्म पहले अंग्रेजी में (निर्देशक टैड डेनियलवस्की) बनी थी, जिसे अमेरिका में रिलीज होना था. देवानंद ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इंदिरा गाँधी, जो नई सूचना और प्रसारण मंत्री बनी थी, को उन्होंने खुद इस फिल्म को देख कर निर्णय लेने को कहा. इस प्रसंग में वे लिखते हैं कि फिल्म देखने के बाद इंदिरा गाँधी ने सिर्फ यह कहा कि ‘आप बहुत तेज बोलते हैं’.
बहरहाल, भले यह फिल्म अंग्रेजी में बुरी तरह असफल रही, लेकिन जब हिंदी में रिलीज हुई तब खूब चर्चा हुई थी. साथ ही इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले थे. देवानंद लिखते हैं: ‘व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यह था कि मैंने इस बोल्ड विषय को लेकर दांव लगाया और मुझे सराहना मिली.’
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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