Monday, January 29, 2024

राम कुमार मल्लिक से बातचीत

 


हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद संगीत के लिए बिहार के दरभंगा घराने की चर्चा होती रही है. यह घराना दरभंगा राज की छत्रछाया में 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा. पर राज के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना दरभंगा से निकल कर इलाहाबादवृंदावनदिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया. बिहार में इसे कद्रदान नहीं रहे.

ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागरखंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में ख्याल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. साथ ही जिस तरह कबीर के पदों के लिए कुमार गंधर्व और मीरा के पदों के लिए किशोरी अमोनकर विख्यात हैंउसी तरह से दरभंगा घराने के गायक विद्यापति के पदों को गाते रहे हैं.

ध्रुपद के सिरमौर राम चतुर मल्लिक (पद्मश्री) के बारे में बड़े-बड़े संगीत साधक आज भी आदर से बात करते हैं. उनके गायन की कई रिकॉर्डिंग यू-टयूब पर उपलब्ध है. संगीत समीक्षक गजेंद्र नारायण सिंह ने उनके बारे में लिखा है- रामचतुर दरअसल गानचतुर थे. गायकी की हर विधा पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी.’ रामचतुर मल्लिक के भतीजे विधुर मल्लिक 80 के दशक में वृदांवन चले गए और वहाँ पर उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी. वर्ष 2019 के लिए इस घराने के चर्चित गायक और राम चतुर मल्लिक के शिष्य अभय नारायण मल्लिक (1937-2023) को राष्ट्रीय कालिदास सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार) दिया गया. वे इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालयछत्तीसगढ़ से लंबे समय तक शिक्षक के रूप में जुड़े रहे और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया. इसी घराने के इलाहाबाद में प्रोफेसर प्रेम कुमार मल्लिक को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से पिछले साल नवाजा गया.

पिछले दिनों दरभंगा घराने के वरिष्ठ गायक और ध्रुपद के शिक्षक राम कुमार मल्लिक को शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई. वे दरभंगा में रहते हैं. हाल ही में अरविंद दास ने उनसे विस्तार से बातचीत कीसंपादित अंश प्रस्तुत है:

अरविंद दासदरभंगा घराने के रामचतुर मल्लिक और सियाराम तिवारी को शास्त्रीय संगीत में योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. आपके पिता एवँ गुरु विदुर मल्लिक और अभय नारायण मल्लिक भी ध्रुपद के प्रसिद्ध गायक हुएपर उन्हें यह सम्मान नहीं मिला. लगभग पचास सालों के बाद पद्मश्री इस घराने के हिस्से आया हैक्या देरी हुई?

राम कुमार मल्लिक:  हांयह सवाल गृह मंत्रालय से पूछा जाना चाहिए. पंडित राम चतुर मल्लिक और सियाराम तिवारी के बाद यह मुझे मिला है. विदुर मल्लिक और अभय नारायण मल्लिक को मिलना चाहिए था.

हो सकता है भारत सरकार की तरफ से या कोई तकनीकी गड़बड़ी रही हो. देर तो हुई है. यह भारत सरकार की गलती है. बाद में ही सही पर मुझे मिला है... मैं उसी घराने का हूँ.

अरविंद दास:  आप दरभंगा-अमता घराने की बारहवीं पीढ़ी के गायक हैं. तेरहवीं पीढ़ी के गायक (मल्लिक ब्रदर्स) अपने गायन को लेकर हमारे बीच मौजूद हैं. कितनी पुरानी दरभंगा घराने की गायन परंपरा है?

राम कुमार मल्लिक:  हमारी संगीत की परंपरा पाँच सौ साल पुरानी है. तानसेन के घराने से ही हमारे पूर्वजों ने गायन सीखा था. राधाकृष्ण और कर्ताराम (दो भाई और थे) ने ग्वालियर में रह कर भूपत खान जीजो तानसेन के नाती थे, से 22 वर्ष तक संगीत की शिक्षा ग्रहण की जिसके बाद वे नेपाल बादशाह के पास आए. वहाँ वे दरबारी गायक थे.

एक समय की बात हैदरभंगा में भीषण अकाल पड़ गया और दरभंगा के शुरुआती महाराज बेनी माधव पता लगाने गए कि कोई ऐसा साधक हो जो अपनी साधना से जलवृष्टि करवा सके. उन्होंने कहा कि जो कुछ मांगेगा उसे वह देंगे. नेपाल बादशाह से मालूम हुआ कि दो भाई संगीत सीख कर आया है जो मेघ-मल्हार गा कर पानी बरसा सकता है. वहां से दोनों भाइयों को बुलाया गया. वे दोनों भाई आए और दरभंगा राज में दरबार लगा. तानपुरा लेकर जब दोनों भाई ने मेघ-मल्हार गाना शुरु किया भंडार कोन से बादल उठा जो फैलता गया. पानी बरसने लगा जो इतना बरसा कि महाराज ने हाथ जोड़ लिया कि अब प्रलय हो जाएगा. दोनों भाई फिर शांत हुए. महाराज ने उनसे कुछ मांगने कहा. दोनों भाइयों ने कहा कि लोभ से मैंने ये साधना ग्रहण नहीं कियाआपकी जो इच्छा हो दें. साढ़े सात सौ बीघा जमीन (जिस पर हम रह रहे हैं) अमता गाँव में उन्हें मिला और बहुत सारी चीजें भी. उन्हीं की पीढ़ी से हम है जो दरभंगा महाराज से जुड़े रहे.

अरविंद दासआपने किनसे ध्रुपद गायन सीखा?

राम कुमार मल्लिकपहले तो अपने दादा जी (पंडित सुखदेव मल्लिक) से सीखा फिर अपने पिता एवँ अपने गुरु विदुर मल्लिक से. मैंने छह वर्ष से ही संगीत-साधना शुरु कर दिया था. बाबा रामचतुर मल्लिक का भी मुझे आशीर्वाद मिला. रामधीन पाठक (खंजड़ी वादक)सियाराम तिवारी ने भी मुझे आशीर्वाद दिया. अपने पिता के साथ अमेरिकायूरोप सहित पूरी दुनिया में मैंने गायन किया. हमारे घराने में शिवदीन पाठक हुए (मेरे दादाजी के मामा) उनका जो सितार बजता था वह तो विश्व में कोई नहीं बजा पाया. उनकी ऊँगली का रखाव इतना सुंदर (सही) थासब स्वरों के अंदर बद-बदबद-बद होता था. रामेश्वर पाठक ने उन्हीं की छत्रछाया में कुछ-कुछ सीखा थाजो रामाशीष पाठक के दादा हुए.

अरविंद दासदरभंगा घराने की प्रसिद्धि ध्रुपद गायन को लेकर है. यह किस प्रकार डागर घराने के ध्रुपद से अलग है. इस घराने की क्या विशिष्टता है?

राम कुमार मल्लिकहमारी गायन शैली अन्य घरानों से बहुत अलग है. हम गौहर-खंडार शैली को अपनाए हैं. वे री त न न तोम नोम...करते हैं. हम ओमहरि ओम अनंत हरि ओम (गाकर सुनाते हैं) से आलाप शुरु होता है. इसके बाद नोम-तोम त न री..यही सब. मीड़ गौहर बानी का काम है और गमक खंडार बानी (गा कर सुनाते हैं). इन दोनों को हमारे पूर्वज गाते थे. मेरे दादा जीपिता जी और हम खुद उसी परंपरा को अपनाए हुए हैं.

अरविंद दासआपके पिता विदुर मल्लिक एक बंदिश गाते थे- राजा रामचंद्र चढयो हैं त्रिकुट पर...

राम कुमार मल्लिक: ये हमारी परंपरा की बंदिश है. यह राधाकृष्ण-कर्ताराम बाबा की बंदिश हैजो चार चरण में पूरी होती है. राग देसी में है:

 राजा रामचंद्र ज्यू चढयो हैं त्रिकुट पर

लंका गढ़ डगमगायो जबहि डंफ बाजे (स्थायी)

श्रवण कनक टंक पर रावण घन मेघनाद

कुंभकर्ण रण बिदारी देव गगन बाजे

बड़े-बड़े योद्धा सब युद्ध करवे को साथ चले

समुद्र तीर डारि के लश्कर ठहरायो है

हनुमान ऐसो वीर लंका को फूक गई

रावण को मार राम पचरंग फहरायो है.

रावण का वध जब राम ने किया उसी का वर्णन हैइस बंदिश में. हमारे यहाँ फर्स्टसेकंडथर्ड और फोर्थ चार आलाप है (इक गुणद्विगुणत्रिगुण और चौगुण). डागर लोग तीन दर्जे का आलाप करते हैंइतना ही फर्क है. डागर की पुरानी परंपरा हैमैं उन्हें अलग नहीं समझ रहा.

अरविंद दासमैथिल भाषी होने के कारण मैं दरभंगा घराने की एक विशिष्टता की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा. शास्त्रीय संगीत में पारंगत होने के बावजूद भी यह घराना मैथिली के लोक कवि विद्यापति को गाता रहा है. मैंने विधुर मल्लिकअभय नारायण मल्लिक और आपको भी गाते सुना. यहाँ पर मैं आपके गाए- सुंदरी तुअ मुख मंगल दाताका जिक्र करना चाहूँगा जो इंटरनेट पर खूब सुना जाता है...

राम कुमार मल्लिक विद्यापति गाने की सीख मुझे पिताजी से मिली. उनके संग्रह से मैंने राग-रागनियों को चुना. दरभंगा आकाशवाणी के लिए भी हमने गाया है. साथ ही मेरे पिताजी का कैसेट है- नाइटिंगल ऑफ मिथिला उसमें विद्यापति के पद आपको मिलेंगे. के पतिया ल जायत रे मोरा प्रियतम पास और कुंज भवन स निकसल रे रोकल गिरधारी आपको वहाँ मिलेगा. मैंने कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ और विद्यापति की नचारी आजु नाथ एक व्रत महासुख लागत हेतू शिव धरु नटभेस हम डमरू बजायब हे’ भी गाया है. ये हमारा अपना संग्रह है. ये सब रागों के अंदर है. ध्रुपद के साथ मैं ख्यालदादराठुमरीगजल-भजनलोकगीत भी गाता हूँ. चारों पट की गायकी दरभंगा घराने में आपको मिलेगी.

अरविंद दासआपकी संगीत यात्रा का केंद्र दरभंगा ही रहा है. साठ-सत्तर के दशक में दरभंगा और पटना में देश भर के संगीतकारों का जमावड़ा रहता हैध्रुपद संगीत समारोह भी होते थे .  बिहार की एक सांगीतिक-सांस्कृतिक पहचान  थीजो बाद के दशक में सिमट गई...

राम कुमार मल्लिक राजनीति हावी होती गई और हम परंपरा को भूल गए.

अरविंद दास:  20वीं सदी में ख्याल का बोलबाला रहाऐसे में ध्रुपद गायकी पिछड़ गई.  21वीं सदी में इसका क्या भविष्य आप देखते हैं.

राम कुमार मल्लिकध्रुपद को कोई हटा नहीं सकता है. यह अचल पद है. सारी दुनिया की संगीत का तत्व समझिए इसे. ख्याल विचलित हो सकता हैध्रुपद नहीं. कनकमुरकी मूर्छना नहीं लगता, यह मीड़ और गमक की चीज है. दरभंगा परंपरा में इसे स्थिर गायकी और चलन के रूप में आप पाएँगे. इस घराने की नयी पीढ़ी के लोग उसी रास्ते पर चल रहे हैं. पिताजी के शिष्य हैं वृजभूषण गोस्वामीसुखदेव चतुर्वेदीराधा गोविंद आदि वे भी इसे अपनाए हुए हैं.  

अरविंद दासलेकिन बिहार के अन्य संगीत घरानों की बात करें तो वह कहीं सुनाई नहीं देता..

राम कुमार मल्लिकगया घराना ठुमरी घराना था. वहाँ बहुत अच्छे गायक जयराम जी थेजो नशा के चलते बर्बाद हो गए. बेतिया घराने में दो-चार कलाकार थे. एक इंद्र किशोर जी हैं जो वृद्ध और असमर्थ हैं. मैं पाँच साल से पंडित विदुर मल्लिक गुरुकुल (दरभंगा) में छात्र-छात्राओं को ट्रेनिंग दे रहा हूँ. लोगों में रुचि जागृत हो रही है. दस-बीस छात्रों को मैंने सिखाया है. अभिषेक मिश्र हैं पटना में. अभिषेक पाठक हैंजिन्हें मैंने सिखाया है. मैं चाहता हूँ छात्रों की संख्या बढ़े.

अरविंद दास: ध्रुपद दरभंगा राज में फला-फूलाक्या बिहार राज्य सरकार से आपकी कोई अपेक्षा है?

राम कुमार मल्लिकमैं क्या कहूँयहाँ तो कुएँ में भांग पड़ी है.



(समालोचन के लिए, आजकल, मार्च में प्रकाशित, पेज 57-60)

 

Saturday, January 27, 2024

मिथिला पेंटिंग ही मेरी खेती-बाड़ी है: शांति देवी

 


मिथिला चित्र शैली अपने अनोखेपन और बारीकी के लिए देश-दुनिया में प्रतिष्ठित है, और कलाजगत में खास महत्व रखती है। इस पारंपरिक कला में 70 के दशक से मैथिल समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों का दखल बढ़ा, जिसने इसे एक अलग तेवर दिया। ब्राह्मणों और कायस्थों से इतर इन समुदायों के निजी-जीवन, आस-पड़ोस की जिंदगी की झलक इन चित्रों में देखी जा सकती है। खास तौर पर दुसाध कलाकारों ने गोदना शैली को अपनाया, जिसमें समांतर रेखाओं, वृत्तों और आयातों में गोदना को ज्यामितीय ढंग से सजाया जाता है। इनमें उनके लोक देवता वीर योद्धा राजा सहलेस का जीवन वृत्त मिलता है। साथ ही काम-काज और पेशे का चित्रण भी है। शांति देवी के चित्र भरनी शैली से मिलते-जुलते हैं। शांति देवी और उनके पति शिवन पासवान को मिथिला कला में योगदान के लिए पद्मश्री देने की घोषणा हुई है। पिछले दिनों अरविंद दास ने शांति देवी से उनकी कला यात्रा और गोदना शैली को लेकर विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंशः


अरविंद दास: अपनी लंबी मिथिला कला यात्रा के उतार-चढ़ावों के बारे में बताइए...

शांति देवी: चालीस साल से ज्यादा समय से मैं इस कला से जुड़ी हूं। यह तो हमारी परंपरा है, धरोहर है, जो हमने अपनी दादी-नानी से सीखी है। मेरी मां (कौशल्या देवी) और सास (कुसमा देवी) दोनों को ही मिथिला कला में राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वर्ष 1976 में मेरी शादी शिवन से हुई। बहुत संघर्ष और गरीबी से गुजरी हूं। मैं अब लोगों से यही कहती हूं कि मिथिला पेंटिंग ही मेरी खेती-बाड़ी है। शादी के बाद हम दोनों ने मिलकर पेंटिंग बनाई है।


अरविंद दास: आप दोनों पति-पत्नी की प्रसिद्धि गोदना शैली को लेकर है। इससे पहले जितवारपुर (मधुबनी) की चानो देवी, रौदी पासवान भी गोदना पेंटिंग जुड़े रहे हैं...

शांति देवी: सत्तर के दशक के आखिर में रौदी पासवान भाई और चानो देवी के साथ ही हमने पेंटिंग बनानी शुरू की। राजा सहलेस की कहानी को हमने पेंटिंग में उतारना शुरू किया। चानो देवी शांत स्वभाव की विशुद्ध कलाकार थीं।

अरविंद दास: मिथिला के कायस्थों और ब्राह्मणों की पेंटिंग चर्चित रही है। कछनी (कायस्थ), भरनी (ब्राह्मण) शैली से आपकी पेंटिंग किस रूप में अलग है?

शांति देवी: असल में मेरी पेंटिंग मिथिला पेंटिंग है। राजा सलहेस की कहानी भी पेंटिंग में मैंने बनाई है। मेरे पति गोदना शैली में पेंटिंग करते रहे हैं। जब मैंने दुर्गा, सीता की पेंटिंग (रामायण-महाभारत) बनाई तो काफी विरोध हुआ। मुझसे कहा गया कि मैं अपने देवता को चित्रित करूं। मैंने कहा कि कलाकार की कोई जाति नहीं होती। कलाकारों की ओर से मुझे किसी तरह के विभेद का सामना नहीं करना पड़ा। बौआ देवी के साथ मेरे बहुत अच्छे संबंध हैं, उनकी बेटी जैसी हूं। गंगा देवी (मिथिला पेंटिंग की प्रसिद्ध कलाकार) के साथ भी मेरी मुलाकात रही है, उनके साथ दो महीने अहमदाबाद में रही। मैंने किसी की शैली कॉपी नहीं की है।

अरविंद दास: अभी आपने चंद्रयान-तीन को लेकर एक पेंटिंग बनाई, जिसकी खूब चर्चा भी हुई...

शांति देवी: हां, बिलकुल। मुझसे जब G20 के लिए पेंटिंग बनाने को कहा गया तब मैंने कहा कि राजा सलहेस, गीता-रामायण जिंदगी भर बनाई है। कुछ नया बनाने की इच्छा है। मैंने कहा कि पोता-पोती के संग टीवी पर मैंने चंद्रयान को देखा है, उसे ही बनाना चाहती हूं। मैंने रॉकेट को उड़ते देखा था, कल्पना चावला के बारे में सुना था। उसी सब को अपनी पेंटिंग में उतारा। प्रधानमंत्री मोदी से भी मेरी मुलाकात हुई और मैंने उन्हें अपनी पेंटिंग के बारे में विस्तार से बताया था।

अरविंद दास: हमने सुना है प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ भी आप एक बार अपनी पेंटिंग लेकर डेनमार्क प्रतिनिधिमंडल के संग गई थीं, उस अनुभव के बारे में कुछ बताएं...

शांति देवी: हां, दस बाय दस की एक पेंटिंग (फूल-पत्ती के संग) राजा सहलेस को लेकर बनाई थी। उसी को लेकर 1983 में मैं डेनमार्क गई। वह मेरी पहली विदेश यात्रा थी। बाद में जापान, जर्मनी, नॉर्वे, मलेशिया, दुबई आदि जगहों पर भी गई। पुपुल जयकर, मनु पारेख की प्रेरणा से मैं डेनमार्क गई थी। मेरी अमेरिका जाने की इच्छा है अब। वैसे मैं ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूँ. मेरी पढ़ाई बस नौवीं कक्षा तक हुई है।



अरविंद दास: आप बच्चों के संग भी वर्कशॉप करती रही हैं, नई पीढ़ी की इस पेंटिंग में कैसी रुचि है?

शांति देवी: जी, बहुत वर्कशॉप मैंने किए हैं। अभी हाल ही में मैंने कानपुर में पांच सौ बच्चों के संग वर्कशॉप किया। मिथिला के घर-परिवार के बच्चों में इस पेंटिंग के प्रति रुचि तो है ही, आजकल राज्य से बाहर भी लोगों में इस पेंटिंग को लेकर आकर्षण बढ़ा है और काफी लोग उत्साह से सीख रहे हैं। आपको बताऊँ कि पांच-छह साल के बच्चों को भी मैंने पेंटिंग बनाते देखा है

अरविंद दास: गोदना शैली में नए कलाकारों के बारे में आपका क्या कहना है?

शांति देवी: बहुत प्रतिभावान कलाकार आज हैं। शिवन खुद गोदना शैली में बनाते रहे हैं। उर्मिला देवी, महामना देवी, दिलीप कुमार पासवान गोदना के अच्छे कलाकार हैं, जिनसे काफी उम्मीदें हैं।


अरविंद दास: अपनी कला यात्रा का कोई ऐसा अनुभव जो आप शेयर करना चाहें...

शांति देवी: मैं देश-विदेश में अपनी पेंटिंग लेकर लोगों के बीच कई बार गई हूं। चार बार जापान (हासेगावा मिथिला आर्ट इंस्टिट्यूट) गई। एक बार नब्बे साल के एक बुजुर्ग वहां मुझे मिले, जो मुझसे और बौआ देवी से मिथिला पेंटिंग सीखना चाहते थे। मैंने उनसे पूछ दिया कि बाबूजी अब आपको यह सीखने की क्या जरूरत है। उन्होंने मुझसे कहा कि जब मैं ऊपर जाऊंगा तो यही न लेकर जाऊंगा! मेरा दिमाग खुल गया और अपनी परंपरा पर गर्व भी हुआ।

(नवभारत टाइम्स, 27.01.24) 


Monday, January 15, 2024

Sensitive New Audiences Give Filmmakers Much to Rejoice: Jeo Baby

 


The well-known filmmaker says progressive Malayalam films get pan-India attention because audiences love exploring varied themes.

Jeo Baby is a well-known Malayalam language filmmaker whose The Great Indian Kitchen (2021) gained critical acclaim across India. The film’s main concerns are patriarchy and the role of women in Indian families. Baby recently released his movie Kaathal: The Core on Amazon Prime. It has sparked discussions on the theme and performance of its renowned cast, which includes Mammootty and Jyothika. Interwoven around a family in Kerala, Kaathal is bound to be noticed for its compassionate articulation. Arvind Das talked to Jeo Baby about the film. Edited excerpts:

Arvind Das: Kaathal has two meanings: love and the core. Please tell us a bit more about the title of the movie.

Jeo Baby: Yes, it has two meanings because of our proximity to Tamil Nadu. It means “love” in Tamil and “the core” in Malayalam. In the movie, we discuss the core element of the human heart: What does love between two human beings mean? We discuss the core that exists in relationships. The film is also about Mathew, Thankan, Omana and their father. So, we discuss what is the core of these characters.

AD: This movie is about love--and forbidden love--yet we don’t find any villain in it, as we would in a mainstream film.  

JB: Mathew and Omana are both victims of social circumstances. But there are a lot of issues with our family system, so that’s the villain. Mathew doesn’t want to marry a woman, but his father forces him into marriage. In the same way, Omana has a relationship with another man but is forced to marry Mathew. The social set-up in India is the main issue. 

AD: Before the Supreme Court struck down Section 377 of the Indian Penal Code in 2018, you tried to make a movie with homosexuality as the theme, but it was not allowed. How did you come to make this movie?

JB: This movie was not planned. Adarsh [Sukumaran] and Paulson [Skaria], who wrote the story, came to me. I told them I wanted to make the movie my way and that we would have to work together. In 2007, I made a short movie about homosexuality. It was a movie supportive of the LGBTQ community. I and three other students were dismissed from college because of this movie.

AD: Let us talk about Mammootty! To my knowledge, this is the first time he has portrayed a homosexual character, Mathew’s role in your film. Why did you approach him for this role?

JB:  I needed a good actor for the role [of Mathew], and at the same time, I needed a principled human being to accept this story and the character. So, my first choice was Mammootty, and he liked our story. He was waiting for such a different character. He was involved in the screenplay, too. He was very excited to do this.

AD: And this movie is produced by him, too?

JB: Yes, it is produced by his company. He asked me whether I had any producers, and when I said no, he said we would do it. Jyothika was Mammookka’s (Mammootty) suggestion, too. We approached her, and also she liked our story. When Mammookka came on board, everything became very easy.

AD: Indeed, Mammootty is a great actor. I wish to know more about his creative process and how he prepares for his role.

JB: He is very cool. I had heard many stories about him, and I was tense at first. He is like a little child who always behaves like one--fun-loving and cracking jokes. He always makes people laugh on set. Before the shooting began, he asked me if I could change the cinematographer. I told him to trust me. Later, he complimented me on my decision. 

AD: Kaathal: The Core’s release on Amazon Prime has made you a household name around the country, but what are the reactions to the film in Kerala? 

JB: The movie has been very well received at the box office. I am thankful for each movie-goer and every audience. I am very happy that we have such a great audience and that the film watchers are a little more sensitive.

AD: Before this movie, you attained pan-Indian fame with The Great Indian Kitchen. Both your films are political in terms of the themes. What comes next for you?

JB: I want to do something different, not political. I love fun. I don’t know what comes next, but as a professional filmmaker, I am trying to do something different.

AD: What would you say as a director about a movie like The Kerala Story, which is also a political film?

JB: I don’t have any comments [about the film specifically]. Actually, there are a lot of bad moments happening in India right now. But many people from Tamil Nadu, Kerala, are fighting against these propaganda political movies. I am also part of that.

AD: Kerala has produced many well-known film directors like Adoor Gopalakrishnan, G Aravindan, KG George, etc. What do you think about the new community of younger film directors?

JB: Recently, I attended the International Film Festival of Kerala (IFFK), where I met many good directors. I wondered about Thadavu by Fazil Razak and Anand Ekarshi’s Aattam. Also, Family by Don Palathara and Neelamudi [by theatre practitioners] are good movies. I was thrilled to see all these movies.

AD: When I was talking to you about The Great Indian Kitchen, you mentioned KG George’s Adaminte Vaariyellu. He passed away last year. Is there anything you wish to share with us about his films?

JB: KG George did many different things and was a highly progressive filmmaker. He discussed the kitchen and family in Adaminte Vaariyellu. I changed my screenplay of The Great Indian Kitchen after watching this film. Of course, his movies are timeless.

AD: What role, according to you, can art play in the current political milieu?

JB: Yes, art will affect society at large. It will change people. We are doing that through our movies. We don’t have a huge budget here [in Kerala], but we are getting pan-India attention because of our content and quality.

(For Newsclick)

Sunday, January 14, 2024

कठपुतली कला में पुरुषोत्तम राम


अहमदाबाद में सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए चर्चित प्रदर्शनकारी कला संस्थान ‘दर्पण’ ने पचहत्तर वर्ष पूरे किए हैं. साबरमती नदी के तट पर, गाँधी आश्रम के करीब स्थापित इस संस्थान ने कला यात्रा में ऐसा मुकाम हासिल किया है जो आजाद भारत में दुर्लभ है. प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई और वैज्ञानिक विक्रम साराभाई इसके केंद्र में रहे. पिछले हफ्ते विक्रम साराभाई की याद में हुए सालाना कला समारोह में ‘अबाउट राम (राम के बारे में)’ एक कठपुतली नाटक का मंचन खुले सभागार ‘नटरानी’ में हुआ. मेरी जानकारी में आधुनिक साज-सज्जा से लैस इस तरह का खुला रंगमंच देश में बेहद कम है.


कठपुतली कला में प्रशिक्षित अनुरुपा रॉय के निर्देशन में हुए इस नाटक के केंद्र में भगवान राम नहीं बल्कि पुरुषोत्तम राम हैं. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के उद्धाटन को लेकर राजनीतिक सरगर्मियाँ तेज है. इन सरगर्मियों को वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से भी जोड़ कर देखा रहा है. धर्म निजी आस्था का मामला नहीं रहा, इसे राजसत्ता का समर्थन हासिल है. राजनीतिक राम आध्यात्मिक राम पर हावी हैं!

वर्तमान समय में सांस्कृतिक रूपों के बहुर्थी होने की संभावना बेहद क्षीण हो गई है. मिथकों की विवेचना और पुनर्व्याख्या आसान नहीं है. रामायण की कहानियाँ तीन सौ से ज्यादा ढंग से कही गई है. राम कथा के कई रूप मौखिक रूप में भी प्रचलित हैं, जिन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया है. उत्तर भारत में हालांकि तुलसीदास कृत रामचरित मानस ही लोकप्रिय है.

बहरहाल, इस नाटक में दशरथ के पुत्र राम सिंहासन पर बैठे हुए अंत में नितांत अकेले हैं. सीता उनके साथ नहीं है. राम-सीता की यह कहानी दुखांत है. कथा वही है जो भारतीय लोक मानस में सदियों से गहरे बैठी है, लेकिन कहानी कहने का शिल्प अलग है. यह आधुनिक अर्थबोध लिए हुए है. सिया के बिना राम का क्या अस्तित्व रह जाता है? क्या सत्ता की प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य है?

इस नाटक की खास बात कला के विभिन्न रूपों यथा कठपुतली, एनिमेशन और अभिनय के बीच आवाजाही रही. मंच पर मौजूद कलाकार कठपुतली के माध्यम से रामायण के प्रमुख पात्रों राम, सीता, हनुमान और रावण को दर्शकों के सामने लाने में सफल थे. ध्वनि और प्रकाश का संयोजन कुशलता से किया गया था. खुद अनुरुपा भी कठपुतली के साथ मंच पर मौजूद थी. भरे सभागार में विभिन्न आयु वर्गो के दर्शकों के साथ बच्चों की मौजूदगी सुखद थी. देश में इस कला रूप की चर्चा आज नहीं होती. पेशेवर प्रदर्शन के लिए जगह भी बेहद कम है. कठपुतली कला के चर्चित नाम दादी पदुमजी का जुड़ाव भी दर्पण अकादमी के साथ रहा है.

वर्ष 1948 में स्थापित इस संस्थान के शुरुआती दशकों में शास्त्रीय नृत्यों पर जोर रहा, लेकिन 60 के दशक के आखिर में यहाँ आधुनिक थिएटर और कठपुतली के शिक्षण-प्रशिक्षण की विधिवत शुरुआत हुई जिसका श्रेय कैलाश पंड्या, दामिनी मेहता और मेहर कांट्रेक्टर को जाता है. वर्ष 1977 में नृत्यांगना और राजनीतिक एक्टिविस्ट मल्लिका साराभाई इस संस्था की जब ऑनरेरी डायरेक्टर नियुक्ति हुई, संस्थान में कला के माध्यम से सामाजिक बदलाव का विमर्श आया. यहां कला, मीडिया और तकनीक के विभिन्न रूपों के बीच सहज मेल-जोल दिखता है.