लोकसभा चुनाव के महज कुछ हफ्ते शेष बचे हैं. वर्तमान शासन के दस साल बाद भी विपक्षी पार्टियों के लिए चुनावी रणनीति का कोई ऐसा सिरा दिखाई नहीं दे रहा जिससे कहा जा सके कि मुकाबला दिलचस्प होगा. क्या यह चुनाव बिना किसी चुनौती के संपन्न होगा? विपक्षी पार्टी पर भारतीय जनता पार्टी ने मनोवैज्ञानिक बढ़त बना ली है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री कहते फिर रहे हैं कि ‘आएगा तो मोदी ही!’
प्रधानमंत्री की छवि एक ब्रांड (मोदी है तो मुमकिन है, मोदी की गारंटी आदि) के रूप में इन वर्षों में पुख्ता हुई है. प्रधानमंत्री के इस ‘कल्ट’ को कारोबारी मीडिया भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. जो प्रधानमंत्री की राजनीति और विचारधारा के आलोचक हैं, वे भी उनकी लोकप्रियता से इंकार नहीं करते. उनकी लोकप्रियता का बड़ा हिस्सा उदारीकरण के साथ हिंदुत्व की जो बयार बही उससे जुड़ता है. भाषाई मीडिया, जिसका अप्रत्याशित विकास इन्हीं दशकों में हुआ है, समाज में आए बदलाव को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ा है. इसी सिलसिले में एक नेटवर्क का विस्तार भी हुआ है, दूर दराज के गाँव-कस्बों तक मीडिया (मुख्यधारा और सोशल) की पहुँच बढ़ी है. विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी मीडिया के माध्यम से मोदी की लोकलुभावन अपील को अपने तयी देखते-परखते हैं, चुनाव में वोट करते हैं.
चूँकि मीडिया एक पूंजीवादी उपक्रम है (प्रिंट पूंजीवाद), इसलिए मुनाफे की संस्कृति से ही इसका संचालन होता है, लोकहित हाशिए पर ही रहते आए हैं. वैसे प्रकाशन व्यवसाय भी कोई अपवाद नहीं है, यहाँ भी लेखकों की ब्रांडिंग पर जोर रहता है. उनकी छवि भुनाने की कोशिश होती है. हाल के वर्षों में हिंदी लोकवृत्त में यह प्रवृत्ति बढ़ी है.
बहरहाल, राम मंदिर निर्माण के बाद ‘हिंदुत्व’ और ‘विकास’ की जुगलबंदी का शोर और बढ़ा है. इस शोर के बीच रोजगार, बढ़ती असमानता, अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना और संस्थानों के लगातार कमजोर होने की चर्चा सुनाई नहीं देती. स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्रचेता मीडियाकर्मियों पर जो दबिश बढ़ी है, उसके बारे में खुल कर बोलने में आम नागरिकों में हिचक है. सोशल मीडिया में भी एक तरह का ‘सेल्फ-सेंसरशिप’ है. ऐसे में, मुख्यधारा का मीडिया सरकार के एजेंडे को ही अपना एजेंडा मान कर आगे बढ़ रहा है. हाल के दिनों में अडानी समूह के मीडिया क्षेत्र में बढ़त को हम उनके कारोबारी हित के नजरिए से देख-परख सकते हैं.
वैसे दिल्ली में आने से पहले ही मोदी की ब्रांडिंग शुरू हो गई थी, जिसे मीडिया का भरपूर सहयोग मिला था. वर्ष 2012 में चर्चित अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पृष्ठ पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर छपी थी. साथ ही इंडिया टुडे, कारवां और आउटलुक पत्रिकाओं के कवर पर भी नरेंद्र मोदी छाए हुए रहे. इंडिया टुडे में जहाँ एक ओपिनियन पोल के हवाले से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी को लोगों की पहली पसंद बताया, वहीं कारवां और आउटलुक पत्रिका ने मोदी की छवि को लेकर कुछ तल्ख सवाल किए थे. मोदी को लेकर मीडिया के अंदर दो ध्रुव थे. बाद के वर्षों में यह दूरी और बढ़ती गई. हिंदी टेलीविजन मीडिया के हवाले से बात करें तो रवीश कुमार और सुधीर चौधरी इस ध्रुव के ओर छोर कहे जा सकते हैं.
उदारीकरण के बाद भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र बदला. कॉरपोरेट, मीडिया और राजनीतिक दलों में हर तरफ जोर प्रबंधन पर बढ़ा. मीडिया में जहाँ ब्रांड मैनेजर की अहमियत संपादकों से ज्यादा बढ़ी वहीं, राजसत्ता में मीडिया मैनेजरों की घुसपैठ किसी भी सक्षम नौकरशाहों से कम नहीं है. समयांतर पत्रिका (मई, 2012) के लिए ‘मोदी और मीडिया’ लेख में मैंने लिखा था:
“कोई भी पाठक यदि सरसरी तौर पर भी टाइम के लेख को पढ़े तो उसे समझने में यह देर नहीं लगेगी कि यह एक महज पीआर (जनसंपर्क) का काम है जिसे नरेंद्र मोदी के मीडिया मैनेजरों ने बखूबी अंजाम दिया है.”
इन वर्षों मीडिया के चरित्र में जो बदलाव हुए हैं, नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग में जो इसकी भूमिका रही है, सोशल मीडिया का जो उभार हुआ है उसका एक लेखा-जोखा पिछले दिनों लेखक विनीत कुमार की प्रकाशित किताब- ‘मीडिया का लोकतंत्र’ में दिखाई देता है.
जैसा कि शीर्षक और अध्यायों से स्पष्ट है इस किताब में ‘मीडिया’ और ‘लोकतंत्र’ बीज शब्द हैं. किसी भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी को केंद्रीयता प्राप्त है. इसकी रक्षा का भार नागरिक समाज, मीडिया, न्यायालय और राजनीतिक दलों पर है. मीडिया चूँकि लोकतंत्र में आम जनता की आँख और कान की तरह होते हैं, जाहिर है उससे अपेक्षा रहती है कि वह ‘सबकी खबर ले. सबको खबर दे’. सवाल है कि क्या मोदी के शासन काल में मीडिया जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता के सामने सच कहने में सफल रही? इसका जवाब नकारात्मक ही है. मीडिया की आवाज दबी रही. स्वर हकलाने का ही रहा. आज जोर सेल्फी पत्रकारिता पर है. प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी, संपर्क साध कर पत्रकार-संपादक खुद को धन्य महसूस करते फिरते हैं. कारोबारी मीडिया का जोर सत्ता के साथ सांठगांठ करने पर बढ़ा है. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अखबार और टेलीविजन चैनलों के ‘स्पेशल इवेंट’ हैं, जहाँ मंच पर मालिक और संपादक ‘सत्ता’ पर काबिज लोगों के साथ नज़र आते हैं.
यह किताब ‘मीडिया का लोकतंत्र: बरास्ते पीआर एजेंसी’, ‘मीडिया नैरेटिव: फ़ेक बनाम फैक्ट’, ‘मीडिया राष्ट्रवाद: अलविदा लोकतंत्र!’ और ‘न्यू मीडिया: डेटा पैक का लोकतंत्र’ जैसे अध्यायों में विभक्त है. इस किताब की भूमिका में विनीत लिखते हैं:
“साल 2014 के बाद मीडिया का चरित्र पूरी तरह बदल गया है और अब तक सत्ता से विवेकपूर्ण असहमति को पत्रकारिता माना जाता रहा है, यह क्रम उलटकर सत्ता के साथ होना ही पत्रकारिता है, ऐसा कहने से यह किताब रोकती है.” हालांकि इस किताब में जो विवरण, उदाहरण, संदर्भ और ब्यौरे हैं, वह लोकवृत्त में पहले से मौजूद हैं. मीडिया के रवैये को लेकर मीडिया के अंदर ही टीका-टिप्पणी और किताबें लिखी जाती रही है. लेखक इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं:
“आप जब इसके पन्ने-दर-पन्ने पलटते हुए संदर्भों से गुजरेंगे तो संभव है कि लगेगा इसमें नया क्या, यह तो हमें पहले से पता है...”. लेखक की पक्षधरता स्पष्ट है. हिंदुत्ववादी राजनीति और सत्ता के विरोध में वह खड़ा है. लेकिन देश की विशाल आबादी (खास कर उत्तर और पश्चिम भारत) तक मोदी की पहुँच के कारणों पर इसमें विचार नहीं किया गया है, न हीं मीडिया के उपभोक्ताओं, नागरिकों की सोच को ही शामिल किया गया है. इस लिहाज से यह एक किताब भी एक ‘इको चैंबर’ की तरह है, जहाँ हम (लिबरल) सिर्फ अपनी आवाज ही सुनते हैं.
मीडिया के पाठकों, दर्शकों की पसंद को लेकर अकादमिक दुनिया में शोध की पहल नहीं दिखती. विनीत मीडिया शोध और अध्ययन से जुड़े रहे हैं, उनसे अपेक्षा थी कि वे दर्शकों की पसंद, इच्छा को लेकर इस किताब में चर्चा करते ताकि मोदी की लोकप्रियता के कारणों की एक झलक हमें मिलती. महज उदाहरणों, किताब के संदर्भों के आधार पर मीडिया के बदलते चरित्र-- जहां जनसंपर्क (पीआर) की भूमिका बढ़ती चली गई है-- की मुकम्मल तस्वीर सामने नहीं आती. हां, किताब में वर्ष 2013 में उत्तरकाशी-केदारनाथ में आई तबाही और मोदी को लेकर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में जो झूठी खबर छपी- ‘मोदी इन रैम्बो एक्ट, सेव्स 15000’ , को एक केस स्टडी के रूप में विस्तार से विश्लेषण किया गया है. विनीत बताते हैं कि किस तरह एक ही मीडिया संस्थान के दो उपक्रम (प्लेटफॉर्म) अलग-अलग तरीके से खबरों को प्रस्तुत करते हैं और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे को काटते भी चलते हैं! हालांकि यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि टाइम्स ग्रुप के लिए इस तरह की खबर सिर्फ पीआर का मसला नहीं रहा है.
बीस साल पहले जब मैं टाइम्स ग्रुप के अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ पर शोध कर रहा था, इस तरह की खबर ‘पेड न्यूज’ की शक्ल में आने लगी थी. वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में यह खुल कर सामने आ गया था. चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों से मोटी रकम लेकर ‘पैकेज’ के तहत टाइम्स ग्रुप ने मीडिया नेट कंपनी (2003) और प्राइवेट ट्रीटीज (2005) की शुरुआत कर दी थी. इसका विस्तार से उल्लेख मैंने अपनी किताब ‘हिंदी में समाचार (2013)’ और शोध आलेख ‘राइटिंग खुश खबर: हिंदी न्यूज़ पेपर्स इन नियो लिबरल ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया’ (2021) में किया है. आश्चर्य है कि विनीत अपने लेख में कहीं भी इस पहलू का जिक्र नहीं करते! जबकी इस अध्याय में विनीत विज्ञापन गुरु (‘अबकी बार, मोदी सरकार’ वाले) पीयूष पांडे की आत्मकथात्मक किताब ‘पांडेमोनियम: पीयूष पांडे ऑन एडवरटाइजिंग (2015)’ को लेकर अनावश्यक रूप से करीब दस पेज खर्च करते हैं. इसी तरह कई ऐसी किताबों से उदाहरण हैं जिसे संक्षेप में दिया जा सकता था. वैसे यह पूरी किताब ‘ही सेड/शी सेड’ (किसने क्या कहा) की शैली में ही लिखी गई है, जहाँ पर अद्यतन किताबों के संदर्भ और विवरण तो मिलते हैं पर लेखकीय विश्लेषण का अभाव दिखता है. मीडिया की रिपोर्टिंग में ऐसी छूट की गुंजाइश तो है, पर जब आप शोध/आलोचना कर रहे हैं तो लेखक से अपेक्षा रहती है कि उसकी दृष्टि और तैयारी से पाठक रू-ब-रू होगा. ऐसे में पूरी किताब में लेखक कहीं पीछे छूट जाता है और ‘अन्य' हावी हो जाते हैं. पाठकों के लिए यह उलझन पैदा करता है. पठनीयता भी प्रभावित होती है. किताब में जिन लेखकों को उद्धृत किया गया, अधिकांश के साथ कोई खंडन-मंडन नहीं है, न ही लेखक की तरफ से सवाल हीं उछाला गया है. एक किताब सारे सवालों का जवाब भले न दे, पाठकों के मन में बीजारोपण तो कर ही सकती है!
इस शताब्दी के दूसरे दशक में जहाँ इंटरनेट के मार्फत आभासी दुनिया में एक अंतरराष्ट्रीय लोकवृत्त के निर्माण की संभावना बनी, वहीं सूचनाओं के आल-जाल में तथ्य और सत्य के बीच की रेखा धुंधली हो गई. यथार्थ और आभासी के बीच फेक न्यूज का ऐसा तंत्र खड़ा हुआ जिसे सत्ता का सहयोग हासिल है. यह अमेरिका से लेकर भारत जैसे लोकतंत्र के लिए चुनौती का विषय बना है. पिछले दिनों अभिनेत्री पूनम पांडेय की मौत की खबर फेक न्यूज बन कर आई जिसे बीबीसी जैसी संस्थाओं ने भी बिना किसी जांच-परख के स्वीकार कर लिया था.
विनीत अपने लेख ‘मीडिया नैरेटिव: फेक बनाम फैक्ट’ में इस मुद्दे से विमर्श रचते हैं. कोरोना के दौरान जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ फेक न्यूज टीवी चैनलों पर फैलाया गया विनीत उसे विश्लेषण की जद में लेते हैं. वे ‘आजतक’ के कार्यक्रम में दिखाए ‘कोई झुठला नहीं पाएगा राम मंदिर का इतिहास, जाने कितना अहम है ‘टाइम कैप्सूल’ (राम मंदिर के नीचे रखा जाएगा टाइम कैप्सूल! देखें क्या है तैयारी) कार्यक्रम की पड़ताल करते हैं. विनीत लिखते हैं:
“आजतक की दर्जनों फुटेज देखने के बाद भी एक भी ऐसी तस्वीर नहीं मिली जिससे कि राम जन्मभूमि परिसर में टाइम कैप्सूल डाले जाने संबंधी तैयारी की पुष्टि हो सके. यह स्थिति जी न्यूज, रिपब्लिक भारत, टाइम्स नाउ, सभी चैनलों के साथ रही.”
हालांकि इस अध्याय में ‘भाषाई वर्चस्व के बीच हिंग्लिश की शरणस्थली’ की चर्चा करना विषय-वस्तु के साथ मेल नहीं खाता है. उसके लिए एक अलग स्वतंत्र अध्याय की गुंजाइश थी. खुद लेखक ने लिखा है कि वे इस विषय पर अन्यत्र लिख चुके हैं.
उल्लेखनीय है कि राममंदिर के उद्घाटन समारोह में जैसा कि उम्मीद थी, टेलीविजन चैनलों में ‘राम राज्य’ का बोलबाला रहा. उससे पहले ही इंडिया टुडे टीवी चैनल पर ‘राम आएँगे’, टीवी 9 पर ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ और एनडीटीवी पर ‘राम रिटर्न्स’ जैसे कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे. ऐसा नहीं है कि पहली बार टीवी ने भावनात्मक मुद्दे को लेकर बिना किसी आलोचनात्मक विवेक के कार्यक्रम, बहस आदि किए हो. मोदी के शासनकाल में टीवी में राष्ट्रवाद के ऊपर बहस-मुबाहिसा का जोर बढ़ा है, जहाँ पर समावेशी, सामासिक संस्कृति की बात नहीं होती. असल में, हिंदी समाचार चैनल अपने शुरुआत से ही विचार-विमर्श की जगह सनसनी को अपने केंद्र में रखा. आज उग्र राष्ट्रवाद हिंदुत्व का आवरण ओढ़ कर हमारे सामने है. जैसा कि कुंवर नारायण ने अपनी कविता (अयोध्या, 1992) में लिखा है:
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं.
यह लाखों सर और लाखों हाथ समकालीन भारतीय मीडिया के हैं. राष्ट्रीय मीडिया सत्ता के साथ है, जिससे नागरिक समाज और विपक्ष को लड़ना है. पर कैसे? क्या लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया विपक्ष के लिए एक कारगर हथियार साबित होगा? इस किताब का आखिरी अध्याय ‘न्यू मीडिया: डेटा पैक का लोकतंत्र’ खबरों और विभिन्न लेखकों की किताबों (राहुल रौशन, अंकित लाल, स्वाति चतुर्वेदी, रोहित चोपड़ा, सिरिल और परंजय गुहा ठाकुरता आदि) के हवाले से इन्हीं मुद्दों को अपने घेरे में लेता है.
आखिर में, लेखक ने किताब में नोट किया है कि "कारोबारी मीडिया के लिए लोकतंत्र नागरिकों की हिस्सेदारी से चलनेवाली एक सतत प्रक्रिया न होकर, एक प्रबंधन है जिसे कि वो अपने ऑक्सीजन प्रदाता के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं." पर क्या हमारा मीडिया हमारे लोकतंत्र से अलग है? ‘मीडिया का लोकतंत्र’ में मीडिया की आलोचना तो है पर इस बुनियादी सवाल पर चुप्पी है. जब संकट लोकतंत्र पर हो तब समकालीन मीडिया की कोई भी आलोचना उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के बाद समाज, राजनीति और पूंजीवाद (खुफिया पूंजीवाद) में आए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है, जिसका इस किताब में नितांत अभाव है.
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