पिछले साल इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के अस्सी साल पूरे होने पर मैंने चर्चित फिल्मकार, नाट्यकर्मी और इप्टा के संरक्षक एम एस सथ्यू से बातचीत की थी. बातचीत के दौरान जब इप्टा की उपलब्धि के बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने कहा था, ‘इप्टा देश में एमेच्योर थिएटर का एकमात्र ऐसा समूह है जिसने अस्सी साल पूरे किए हैं. एक आंदोलन और थिएटर समूह के रूप में किसी संगठन के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है.’ निस्संदेह 20वीं सदी में देश में हुए नाट्य आंदोलनों में इप्टा की ऐतिहासिक भूमिका रही है. कई नाट्य संगठन इससे प्रेरित और प्रभावित रहे हैं. जुहू थिएटर आर्ट (बलराज साहनी, बंबई), नटमंडल (दीना पाठक, अहमदाबाद), शीला भट्ट (दिल्ली आर्ट थिएटर) जैसे नाट्य संगठन इसके उदाहरण हैं. साथ ही इप्टा के सदस्य रहे सफदर हाश्मी की संस्था जन नाट्य मंच (1973) भी इप्टा से ही निकली और आज भी सक्रिय है.
जहाँ नाट्य आंदोलनों में इप्टा की भूमिका को रेखांकित किया जाता रहा है, वही हिंदी सिनेमा में इप्टा या अन्य नाट्य संगठनों से जुड़े रहे रंगकर्मियों के योगदान की चर्चा कम होती है. जबकि सच ये है कि भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में रंगकर्म से जुड़े कलाकारों, निर्देशकों की फिल्मों में आवाजाही शुरु से ही रही है. 21वीं सदी में भी यह बदस्तूर जारी है. रंगमंच और सिनेमा दोनों ही इससे लाभान्वित हुआ है. असल में, सिनेमा के ‘स्टार’ तत्व की केंद्रीयता इतनी हावी रही है कि रंगकर्म से जुड़े रहे कुशल अभिनेता अपनी सारी प्रतिभा के बावजूद हाशिए पर रहे. कुछ अपवाद हो सकते हैं. हाल के दशक में ओटीटी प्लेटफॉर्म के उभार, दर्शकों की मसाला फिल्मों से इतर रुचि और सामग्री की विविधता से एक उम्मीद जरूर बंधी है.
बहरहाल, नाटकों के अतिरिक्त वर्ष 1946 में ‘धरती के लाल’ (के ए अब्बास) और ‘नीचा नगर’ (चेतन आनंद) फिल्म के निर्माण में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दोनों ही फिल्मों से इप्टा के कई सदस्य जुड़े थे. इन फिल्मों की पटकथा भी मूल रूप से लिखे नाटकों (बिजोन भट्टाचार्य और मैक्सिम गोर्की) पर ही आधारित थी. भारतीय सिनेमा में इन फिल्मों ने एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक बाद के दशक में देश-दुनिया में सुनी गई. पिछली सदी के 70-80 के दशक में समांतर सिनेमा की फिल्में इस बात की पुष्टि करते हैं. प्रसंगवश, महान फिल्मकार ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की पृष्ठभूमि भी थिएटर (इप्टा) की ही थी.
सथ्यू ने वर्ष 1973 में देश विभाजन की त्रासदी को लेकर ‘गर्म हवा’ फिल्म बनाई जो पचास साल बाद भी अपनी संवेदनशीलता और अदाकारी को लेकर याद की जाती है. उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में इप्टा से जुड़े रहे बलराज साहनी, कैफी आज़मी, इस्मत चुगताई, शौकत आजमी आदि की भूमिका विभिन्न रूपों में थी. बलराज साहनी ने विस्तार से इप्टा के दौर में फिल्मों के निर्माण की चर्चा की है. उन दिनों को याद करते हुए उन्होंने ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा (1974)’ में लिखा है: “और इस तरह अचानक ही जिंदगी का एक ऐसा दौर शुरू हुआ, जिसकी छाप मेरे जीवन पर अमिट है. आज भी मैं अपने आपको इप्टा का कलाकार कहने में गौरव महसूस करता हूँ.” पर आज साहनी के रंगकर्मी रूप को कौन याद करता है? आधुनिक समय में सिनेमा सभी कला रूपों पर हावी है. मनोरंजन के लिए लोग सिनेमाघरों की ओर ही रुख करते हैं. पर इसका मतलब ये नहीं कि आधुनिक समय में देश में विभिन्न नाट्य परम्परा फल-फूल नहीं रही है.
संस्कृत नाटकों की परंपरा (भास, कालिदास, भवभूति) के बाद देश में करीब हजार सालों तक नाटक की परंपरा गायब रही. संस्कृत नाटक जन से नहीं बल्कि अभिजन से जुड़े थे. उन्नीसवीं सदी में जब देश में पारसी थिएटर का उद्भव और विकास होता है तब सही मायनों में इसे एक व्यापक जनाधार मिला. देश में तीन तरह के थिएटर- व्यावसायिक, शौकिया और पेशेवर सक्रिय रहे हैं, लेकिन जैसा कि ‘पारसी थिएटर’ किताब में रणवीर सिंह ने लिखा है कि ‘व्यावसायिक थिएटर न हिंदुस्तान में था, न है और आइंदा आने की उम्मीद भी कम है.’ ऐसे में कुछ पेशेवर कलाकारों को छोड़ दिया जाए तो हिंदी थिएटर से जुड़े लोगों की उम्मीदें सिनेमा (बॉलीवुड) से ज्यादा रही है, थिएटर से कम. आश्चर्य नहीं कि पिछले पचास-साठ सालों में विभिन्न नाट्य विद्यालयों से प्रशिक्षित अभिनेता, निर्देशक मुंबई की ओर रुख करते रहे हैं.
सिनेमा एक ऐसा जनमाध्यम है जिसकी पहुँच एक विशाल दर्शक वर्ग तक है. आधुनिक समय में यह मनोरंजन का सबसे प्रभावशाली माध्यम भी है, जो नाटक की तरह ही कला के अमूमन सभी शिल्पों को खुद में समेटे हुए है. भरत मुनि ने नाटक को ‘सर्वशिल्प-प्रवर्तकम’ कहा था, पर यह बात शिल्प-तकनीक और दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता के कारण सिनेमा के बारे में भी कही जा सकती है. इस बात का उल्लेख कई बार किया जाता रहा है कि शुरुआती दौर में हिंदी सिनेमा पर पारसी रंगमंच का काफी प्रभाव रहा है. सूजन सोंटेग ने अपने चर्चित निबंध ‘फिल्म एंड थिएटर’ में लिखा है, ‘सिनेमा एक वस्तु है (यहाँ तक कि एक उत्पाद) वहीं थिएटर एक प्रस्तुति है.’ हालांकि दोनों ही हमारी चेतना और अनुभव से संबद्ध हैं. जाहिर है भिन्नता के बावजूद दोनों कला माध्यमों की अपनी विशिष्टता है. बेशक सिनेमा तकनीक आधारित कला है, जिसमें कैमरा और संपादन की बड़ी भूमिका रहती है, लेकिन अभिनेता-निर्देशक एक ऐसी कड़ी हैं जो दोनों विधाओं को आपस में जोड़ के रखता आया है. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो एक बार रंगकर्म से फिल्मी दुनिया की ओर बढ़े लोगों के मन में ‘दिल्ली या उज्जैन’ की दुविधा नहीं रहती. वे मुंबई के ही होकर रह जाते हैं.
पिछली सदी के सत्तर और अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा के दौर में मणि कौल, कुमार शहानी जैसे प्रयोगशील फिल्मकारों ने सिनेमा के लिए हिंदी साहित्य (नयी कहानी) की ओर रुख किया था. इसी क्रम में आषाढ़ का एक दिन (मणि कौल), चरण दास चोर (श्याम बेनेगल), पार्टी (गोविंद निहलानी) जैसी फिल्में नाटकों को आधार बना कर रची गई. यहाँ पर मणि कौल निर्देशित आषाढ़ का एक दिन की चर्चा प्रासंगिक है.
जहाँ हिंदी में आधुनिक नाटक के प्रणेता मोहन राकेश के चर्चित नाट्य कृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ की चर्चा होती रहती है, मणि कौल निर्देशित इस फिल्म की चर्चा छूट जाती है. उन्होंने वर्ष 1971 में इस फिल्म को निर्देशित किया था. ‘उसकी रोटी’, ‘दुविधा’, ‘सिद्धेश्वरी’ की तरह ही सिनेमाई दृष्टि और भाषा के लिहाज से ‘आषाढ़ का एक दिन’ हिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इस फिल्म में मल्लिका (रेखा सबनीस) कालिदास (अरुण खोपकर) और विलोम (ओम शिवपुरी) की प्रमुख भूमिका है. मल्लिका कालिदास की प्रेयसी है. हिमालय की वादियों में बसे एक ग्राम प्रांतर में दोनों के बीच साहचर्य से विकसित प्रेम है. कालिदास को उज्जयिनी के राजकवि बनाए जाने की खबर मिलती है. मल्लिका और राजसत्ता को लेकर उनके मन में दुचित्तापन है. वहीं मल्लिका कालिदास को सफल होते देखना चाहती है और उन्हें स्नेह डोर से मुक्त करती है. उज्जयिनी और कश्मीर जाकर कालिदास सत्ता और प्रभुता के बीच रम जाते हैं. वे मल्लिका के पास लौट कर नहीं आते और राजकन्या से शादी कर लेते हैं. और जब वापस लौटते हैं तब तक समय अपना एक चक्र पूरा कर चुका होता है. सत्ता का मोह और रचनाकार का आत्म संघर्ष ऐतिहासिकता के आवरण में इस फिल्म के कथानक को समकालीन बनाता है. मणि कौल ने ‘स्क्रीनप्ले’ और संवाद के लिए नाटक को ही पूरी तरह आधार बनाया है. लेकिन परदे पर बिंब (इमेज) और ध्वनि के संयोजन के माध्यम से यह सब साकार हुआ है. इस फिल्म में परिवेश (मेघ, बारिश, बिजली) जिस तरह रचा गया है उसे स्टेज पर बंद स्पेस में रचना मुश्किल है. यहाँ पर यह जोड़ना उचित होगा कि हाल के वर्षों में नाटक में भी तकनीक, मल्टी-मीडिया के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है.
बहरहाल, कोलाहल के बीच एक रागात्मक शांति पूरी फिल्म पर छाई हुई है. मोहन राकेश के नाटक से इतर एक अलग अनुभव लेकर यह फिल्म हमारे सामने आती है. फिल्म में भावों की घनीभूत व्यंजना के लिए ‘क्लोज अप’ का इस्तेमाल किया गया है, जो नाटक में संभव नहीं है. रेखा सबनीस और ओम शिवपुरी थिएटर के मंजे हुए अभिनेता थे, जिनके अभिनय की छाप इस फिल्म में भी है. मणि कौल ने दोनों ही अभिनेता का बेहतर इस्तेमाल इस फिल्म में किया है. साथ ही इस फिल्म में जिस तरह से आउटडोर सेट बनाया गया है उसमें प्रकृति (बाहरी) और अंदरुनी हिस्सा दोनों आ गया है. यह सवाल उठाना उचित होगा कि मुंबई पहुँच कर क्या नाटक के कालिदास की तरह एक कुशल रंगकर्मी के मन में रचनात्मकता और प्रभुता (यश) के बीच संघर्ष चलता रहता है?
इसी प्रसंग में फिल्मकार श्याम बेनेगल की चर्चा जरूरी है, जिन्होंने 70-80 के दशक में अपनी फिल्मों में नाटक की पृष्ठभूमि से आए कलाकारों का भरपूर इस्तेमाल किया. उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिला. उदाहऱण के लिए हाल ही में संरक्षित और फिर से रिलीज हुई ‘मंथन’ (1976) फिल्म का जिक्र किया जा सकता है. इस फिल्म में गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे, कुलभूषण खरबंदा, अनंत नाग जैसे कलाकारों को एक साथ परदे पर देखना सुखद है. इन कलाकारों की अदाकारी का ही कमाल है कि करीब पचास साल बाद भी यह फिल्म दर्शकों को बांधे रखती है. फिल्म समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता ने श्याम बेनेगल की फिल्मों पर लिखे अपने लेख में ‘मंथन’ में एक अशिक्षित, गरीब, पारंपरिक ग्रामीण स्त्री की भूमिका में स्मिता पाटिल के भाव, भंगिमा और अभिनय को अलग से रेखांकित किया है.
अस्सी के दशक में जब समांतर सिनेमा का आंदोलन थम गया और नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण, उदारीकरण की बयार बही हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है. विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली जैसे सिनेमा निर्देशकों की फिल्मों में इसकी झलक मिलती है. साथ ही प्रशिक्षित अभिनेताओं की नई खेप भी मुंबई पहुँची. इन सबकी पृष्ठभूमि थिएटर जगत की रही है. 21वीं सदी में बॉलीवुड में दिल्ली से गए इन कलाकारों के योगदान पर अलग से अध्ययन की जरूरत है. बहरहाल, यहाँ पर विशाल भारद्वाज की उन फिल्मों का जिक्र जरूरी है जो शेक्सपियर के नाटकों को आधार बना कर तैयार किया है. उनका ‘मैकबेथ’ कभी बंबई के माफिया संसार में ‘मकबूल’ बन कर, तो कभी ‘ओथेलो’ मेरठ के जाति से बंटे समाज में ‘ओंकारा’ के रूप में, तो कभी ‘हैमलेट’ ‘हैदर’ के रूप में रक्त रंजित कश्मीर की वादियों में भटकता है. मणि कौल की फिल्म से अलग ये नाटक भारद्वाज की सिनेमा में आकर पुनर्रचित होते हैं. मनोरंजन के साथ ही हमारे भाव-बोध में नया आयाम जोड़ते हैं. इन निर्देशकों और अभिनेताओं की वजह से रंगकर्म और सिनेमा के बीच संबंध पुख्ता हुए हैं. पर मुक्तिबोध की एक काव्य पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो हिंदी सिनेमा ने थिएटर से ‘लिया बहुत ही ज्यादा, दिया बहुत ही कम’ है.
अंत में, दो साल पहले रिलीज हुई युवा निर्देशक अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘धुइन’ का मुख्य पात्र, पंकज, एक रंगकर्मी है जो दरभंगा में रह कर नुक्कड़ नाटक आदि करता है, पर उसके सपने मुंबई में बसते हैं. इस फिल्म की शुरुआत भी एक नुक्कड़ नाटक से ही होती है. फिल्म में चर्चित अभिनेता पंकज त्रिपाठी पंकज के आदर्श हैं, जिन्होंने छोटे कस्बे से निकल कर मुंबई की दुनिया में खूब यश कमाया है. पर वास्तविक जीवन में मुंबई में मिले पैसे और शोहरत के बाद त्रिपाठी, जिनका प्रशिक्षण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी), दिल्ली में हुआ, रंगमंच से दूर ही रहे हैं. याद आता है कि आठ साल पहले जब चर्चित अभिनेता मनोज बाजपेयी अपनी एक फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए जेएनयू, दिल्ली आए थे तब मैंने उनसे पूछा था कि नेटुआ (90 के दशक में मनोज बाजपेयी का प्रसिद्ध नाटक) की मंच पर वापसी कब होगी? उन्होंने जवाब दिया था, जल्दी. पर इन वर्षों में उनके मंच पर आने का हम इंतज़ार ही कर रहे हैं. रंगकर्म से जुड़े एक मित्र कहते हैं कि मुंबई पहुँच कर रंगमंच पर वापस कौन लौटता है!
(समालोचन वेबसाइट के लिए)
No comments:
Post a Comment