इस बार प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में पायल कपाड़िया की फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ को ‘ग्रां प्री’ पुरस्कार हासिल हुआ. फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई), पुणे की छात्र रही कपाड़िया को मिला यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी उपलब्धि है. इससे पहले उनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग' (2021) को भी कान में पुरस्कृत किया जा चुका है. हालांकि अभी तक भारत में इसे रिलीज नहीं किया गया है. पुरस्कार मिलने के बाद कपाड़िया ने स्वतंत्र फिल्मकारों को फंडिंग और वितरण को लेकर होने वाली परेशानी का जिक्र किया.
इस समारोह में श्याम बेनेगल की चर्चित फिल्म ‘मंथन’ (1976) को भी क्लासिक खंड में दिखाया गया. इस फिल्म को ‘फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशन’ ने निर्देशक के साथ मिल कर संरक्षित किया है. देश के चुनिंदा सिनेमा घरों में बड़े परदे पर एक बार फिर से दर्शकों के लिए भी इसे रिलीज किया गया, जहाँ दर्शकों का उत्साह देखते बना.
दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित, 89 वर्षीय बेनेगल हिंदुस्तान के सबसे वृद्ध फिल्म निर्देशक हैं, जो आज भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. पिछले साल उनकी फिल्म ‘मुजीब- -द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ रिलीज हुई थी. इस फिल्म को लेकर हुई बातचीत के दौरान बेनेगल ने मुझसे कहा था- ‘मेरे लिए प्रत्येक फिल्म का निर्माण सीखने की एक सतत प्रक्रिया है. फिल्म निर्माण के माध्यम से आप अपने आस-पड़ोस, लोगों और देश में बारे में जानते-समझते हैं. फिल्म बनाते हुए आप खुद को शिक्षित करते हैं.’
मंथन (1976) फिल्म का निर्माण गुजरात के पांच लाख डेयरी किसानों ने किया था. एक तरह से ‘क्राउड सोर्सिंग’ के तहत बनी हिंदुस्तान की यह पहली फिल्म है, जो बॉक्स ऑफिस पर भी काफी सफल रही थी. यह फिल्म डेयरी सहकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द रची गई है, जिसमें भारतीय ग्रामीण समाज में जातिगत विभेद भी उभर कर सामने आता है. भारत में दुग्ध क्रांति के जनक रहे डॉक्टर वर्गीज कुरियन इस फिल्म निर्माण के पीछे थे.
श्याम बेनेगल की फिल्मों का दायरा काफी व्यापक और विविध रहा है. सत्तर के दशक में अंकुर, निशांत, मंथन जैसी फिल्में उन्होंने बनाई, फिर बाद के दशक में मुस्लिम स्त्रियों को केंद्र में रख कर मम्मो, सरदारी बेगम और जुबैदा फिल्में आई. महात्मा गाँधी, सुभाष चंद्र बोस, शेख मुजीबुर्रहमान को लेकर जीवनीपरक फिल्में भी उन्होंने निर्देशित की है.
समांतर सिनेमा के दौर के फिल्मकारों से उनकी फिल्में काफी अलग हैं. मुख्यधारा से अलग, समीक्षकों ने उनकी फिल्मों को मध्यमार्गी कहा है. उनकी फिल्में आर्थिक रूप से भी सफल रही. साथ ही उन्होंने बॉलीवुड को कई बेहतरीन अदाकार दिए हैं. एनएसडी, एफटीआईआई से प्रशिक्षित नए अभिनेताओं के लिए उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ उन्हें प्रतिभा दिखाना का भरपूर मौका मिला. इस फिल्म में गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन अगाशे, कुलभूषण खरबंदा, अनंत नाग जैसे कलाकारों को एक साथ परदे पर देखना सुखद है. इन कलाकारों की अदाकारी और गोविंद निहलानी के कुशल फिल्मांकन की वजह से करीब पचास साल बाद भी यह फिल्म पुरानी नहीं लगती. असल में बेनेगल की फिल्में पीढ़ियों से संवाद करती है.
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