Sunday, August 11, 2024

शास्त्रीय नृत्य का उत्कर्ष थीं यामिनी कृष्णमूर्ति


 बीसवीं सदी में भारत में नर्तकों और संस्कृतिकर्मियों का एक ऐसा वर्ग उभरा जिसने भारतीय शास्त्रीय नृत्य को पूरी दुनिया में एक नई पहचान दी. परंपरा के साथ आधुनिक भावबोध इसके मूल में रहा. सदियों पुराने पारंपरिक नृत्य मंदिरों, धार्मिक स्थलों से निकल कर मंच और सभागारों तक पहुँचे. लोक से इनका जुड़ाव बढ़ा.

शास्त्रीय नृत्य को आम जन तक ले जाने, लोकप्रिय बनाने में यामिनी कृष्णमूर्ति (1940-2024) का काफी योगदान रहा है. न सिर्फ विदेशों, महानगरों बल्कि छोटे शहरों में भी उन्होंने असंख्य प्रस्तुतियाँ दी थी. दक्षिण के पारंपरिक नृत्य को उत्तर भारत में उन्होंने अपनी कला कौशल से मशहूर किया. यही वजह है कि समकालीन नृत्य परिदृश्य में वे जीते जी एक किंवदंती बन गई थी.
उनके निधन से आधुनिक भारतीय संस्कृति का एक अध्याय समाप्त हो गया. मशहूर नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए लिखा कि ‘भारतीय नृत्य कला जगत में वह एक उल्का की तरह चमकती रही.’ कृष्णमूर्ति की प्रसिद्ध भरतनाट्यम की वजह से थी, लेकिन वे कुचिपुड़ी और ओडिसी नृत्य कला में भी पारंगत थी. नृत्य के जरिए रसिकों और दर्शकों को आनंद की अनुभूति उनके जीवन दर्शन में शामिल था.
एक प्रसिद्ध नृत्यांगना के साथ ही वे एक कुशल शिक्षिका भी थीं. उन्होंने अनेक शिष्यों को पारंपरिक नृत्य में प्रशिक्षित किया. पिछले दशकों में महानगरों में मध्यम वर्ग के बच्चों की रुचि भरतनाट्यम में बढ़ी है. एक नए तरह का ग्लैमर देखने को मिला है. निस्संदेह इसकी एक बड़ी वजह कृष्णमूर्ति जैसी नृत्यांगना रही.
वर्ष 1980 में उन्होंने दिल्ली के हौज खास में ‘यामिनी स्कूल ऑफ डांस’ की स्थापना की. अंतिम दर्शन के लिए वहाँ पहुँची उनकी एक युवा शिष्या और नृत्यांगना आशना प्रियंवदा ने यादों को साझा करते हुए भर्राए स्वर में मुझसे कहा कि ‘मैं उनके लिए पोती की तरह थी. उन्होंने मुझे बहुत प्रेम किया और सिखाया कि आप अपना स्टाइल विकसित कीजिए और मौलिकता को बनाए रखिए.’
सदियों तक देवदासियों ने तमिलनाडु के मंदिरों और दरबारों में नृत्य प्रस्तुत किया. सादिर अट्टम से भरतनाट्यम तक के सफर में काफी कुछ बदला है, लेकिन तकनीक की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण रही है. इसे यामिनी जैसी सिद्ध नृत्यांगना ने वर्षों के अनुभव से साधा. इस नृत्य में पाँवों को तेजी से चलाने और अभिनय पर जोर रहता है. श्रृंगार रस में पगे भाव-अभिनय की प्रधानता इसमें रहती आई है.
आंध्र प्रदेश के मदनपल्ले में जन्मी कृष्णमूर्ति ने बचपन में रुक्मिणी देवी अरुंडेल से भरतनाट्यम का प्रशिक्षण लेना शुरु किया पर आगे चल कर इल्लपा पिल्लै और किट्टपा पिल्लै उनके गुरु बने. सोलह साल की उम्र में पहली बार मंच पर प्रस्तुति दी फिर पीछे मुड़ कर उन्होंने नहीं देखा. पिछली सदी का साठ-सत्तर का दशक उनकी कला यात्रा में खास तौर पर उल्लेखनीय है. नृत्य में अमूल्य योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित किया.
भरतनाट्यम के साथ ही कुचिपुड़ी को भी कृष्णमूर्ति अपनी प्रतिभा से ऊंचाई पर ले गई. जैसा कि हम जानते हैं कुचिपुड़ी में नृत्य-नाटक पर जोर रहता है. उनकी कई नृत्य प्रस्तुतियाँ आज इंटरनेट पर मौजूद हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी.

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