आजाद भारत में हिंदी सिनेमा का यह सौभाग्य रहा कि उसे दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, गुरु दत्त, विमल राय, वहीदा रहमान, वैजयंतीमाला जैसे फिल्मकारों-कलाकारों ने सजाया-संवारा. पिछली सदी का पचास-साठ का दशक इन्हीं कलाकारों के नाम रहा. इन दशकों में हिंदी सिनेमा में फार्मूला और मनोरंजन तत्व की प्रधानता रही, पर बदलते सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. बात पचास के दशक में रिलीज हुई आवारा (1951), दो बीघा जमीन (1953), नया दौर या प्यासा (1957) की हो या साठ के दशक में रिलीज हुई गाइड (1965) या तीसरी कसम (1966) की.
यही कारण है कि वर्षों बाद आज भी इन फिल्मों की चर्चा होती है. फिल्मों में इस्तेमाल होने वाला गीत-संगीत और परदे पर इसका चित्रांकन हिंदी सिनेमा का विशिष्ट पहलू रहा है. यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पचास-साठ के दशक में रिलीज हुई फिल्मों का गीत-संगीत हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में अलग से रेखांकित करने योग्य है. यही वजह है कि आज के हिंदी सिनेमा में इन गीतों का इस्तेमाल नए ढंग से होता दिखाई दे जाता है.
पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में नेहरूयुगीन आधुनिकता, राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. स्टार तत्व पर जोर देने का हालांकि दुष्परिणाम यह हुआ कि गुरुदत्त जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी फिल्मकार की वर्षों उपेक्षा हुई, जबकि प्यासा, साहब बीवी और गुलाम, कागज के फूल आज विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक मानी जाती है. प्रसंगवश, गुरुद्त का जन्मशती वर्ष मनाया जा रहा है, जरूरत इस बात की है कि उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन हो, समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उसकी विवेचना हो.
साठ के दशक के बाद देश की बदलती परिस्थितियों, युवाओं में मोहभंग, आक्रोश और विश्व सिनेमा आंदोलन के असर से हिंद सिनेमा के युवा स्वरों ने ‘पापुलर’ से एक अलग रास्ता अख्तियार किया जिसे आज हम ‘पैरलल (समांतर)’ सिनेमा के नाम से जानते हैं. इनमें से ज्यादातर फिल्मकार फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित थे, जिन्हें सरकारी संस्था फिल्म वित्त निगम का सहयोग मिला. यहीं से फ्रेंच फिल्मकारों की तरह ही ‘ओतर’ यानी लेखक-निर्देशक की अवधारणा हिंदी और अन्य क्षेत्रीय सिनेमा में दिखाई दी. इनकी फिल्में कुछ नया रचने से प्रेरित रही.
सत्तर-अस्सी के दशक में मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अडूर गोपालकृष्णन, जानू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली जैसे निर्देशक उभरे जिनकी सामाजिक यथार्थ से जुड़ी फिल्मों ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में काफी सुर्खियां बटोरी. इससे पहले अपनी मानवीय दृष्टि और संगीतात्मक संवेदना की वजह से सत्यजीत रे की पहचान दुनिया भर में बन चुकी थी. फिल्म संस्थान से निकले युवा फिल्मकार हालांकि ऋत्विक घटक और मृणाल सेन से ज्यादा प्रभावित थे.
नब्बे के दशक में उदारीकरण, निजीकरण के साथ भूमंडलीकरण की जो हवा चली उससे भारतीय समाज और संस्कृति का हर कोना प्रभावित हुआ. सूचना क्रांति का असर हिंदी सिनेमा पर भी पड़ा. हिंदी सिनेमा का एक धड़ा विदेशों की ओर रुख किया, जिसके केंद्र में भारतीय ‘डायस्पोरा’ रहा. पर 21वीं सदी में एक बार बार फिर से फिल्मकारों ने कैमरे को भारतीय समाज और छोटे शहरों की ओर मोड़ा है. इन्हीं दशक देश में ‘मल्टीप्लेक्स’ सिनेमाघरों का भी उभार हुआ जिसने सिनेमा निर्माण और प्रदर्शन को काफी प्रभावित किया है. जहाँ प्रयोगशील फिल्मकारों के लिए एक अवसर उभरा वहीं बड़ी लागत से बनने वाली फिल्मों के लिए बॉक्स ऑफिस की चुनौती भी लेकर आया. कुछ निर्देशकों की फिल्मों पर समांतर सिनेमा आंदोलन का असर दिखाई देता है.
बहरहाल, नई सदी के दूसरे दशक में ओटीटी के उभार से सिनेमा दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. हिंदी सिनेमा का प्रभुत्व टूटता दिखाई दे रहा है. सब टाइटलिंग और डबिंग की सुविधा से क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों का प्रसारण और दर्शकों तक उनकी पहुँच आसान हो गई है. साथ ही दर्शकों के पास विश्व सिनेमा का आज भंडार उपलब्ध है. ऐसे में हिंदी सिनेमा को फार्मूले से अलग एक नई दृष्टि के साथ मौलिक रचने और गढ़ने की जरूरत है. निस्संदेह कुछ ऐसे फिल्मकार हैं जो समांतर और पापुलर के बीच एक पुल बन कर उभरे हैं. इनकी फिल्में व्यावसायिक और कलात्मक दोनों रूपों में सफल है.
कोरोना महामारी के बाद हिंदी सिनेमा के सामने एक बड़ी चुनौती न्यू मीडिया के इस दौर में दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाने की है. जैसा कि एक बातचीत में श्याम बेनेगल ने स्वीकार किया कि ‘सिनेमा काफी बदल गया है. जरूरी नहीं कि सिनेमा देखने के लिए हम सिनेमाघर ही जाएँ. टीवी और ओटीटी प्लेटफार्म ने सिनेमा का एक विकल्प दिया है.’
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