Sunday, October 06, 2024

विघ्नहर्ता गणेश की कथा‌ का‌ पुनर्सृजन


हाल ही में मुबंई-पुणे में गणेश उत्सव की धूम थी. घरों में, चौक-चौराहे पर गणेश की प्रतिमा स्थापित थी. दस दिनों के इस उत्सव के दौरान हजारों की संख्या में गणेश विसर्जित हुए. भारतीय मिथक में गणेश की उपस्थिति अलहदा है. वे सबके प्रिय हैं, विघ्नहर्ता भगवान हैं. आश्चर्य नहीं कि कला संसार में विभिन्न तरह से उनके चरित्र की व्याख्या होते रही हैं. बहुत रूपों में गणेश की कथा का पुनर्सृजन हुआ है.
पिछले दिनों पुणे में निर्देशक-अभिनेत्री यूकी एलियास का बहुचर्चित नाटक ‘एलिफैंट इन द रूम’ का मंचन हुआ. उन्होंने अपने नाट्यकर्म की शिक्षा-दीक्षा पेरिस और लंदन से पूरी की है. यह नाटक एक ऐसे बच्चे (मास्टर टस्क) के बारे में है जिसके पास हाथी का सिर है. वह खोया-खोया, आशंका से ग्रस्त जंगल में भटक रहा है. वे अपने ‘स्व’ की तलाश में है.
जंगल में उसकी मुलाकात मकड़ी और मूर्क से होती है जो उसका अपहरण करना चाहते हैं ताकि उसके माता-पिता से फिरौती की रकम उसूल की जा सके. पर वे सफल नहीं होते हैं जब उसे बच्चे के पिता के बारे में पता चलता है कि वे ‘त्रिनेत्र’ हैं. इसी तरह कहानी आगे बढ़ती है जो आधुनिक समय में दोस्ती, पर्यावरण, सत्ता और संघर्ष जैसे मुद्दों के ईर्द-गिर्द घूमती चलती है. इसी क्रम में दर्शकों को हास्य, करुणा, रौद्रे जैसे भावों से भी मुखामुखम होता है.
इस एकल नाटक की भाषा अंग्रेजी थी. घंटे भर के इस नाटक में एलियास अपने अभिनय प्रतिभा से विभिन्न किरदारों को निभाते हुए दर्शकों को बांधे रखती है. यह नाटक 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड’ में भी कई पुरस्कार जीत चुका है. साथ ही यूरोप सहित कई देशों में भी इसका मंचन हो चुका है.
मंच पर बेहद कम साज-सज्जा में एलियास ने जंगल का संसार रचा था. ध्वनि और प्रकाश के सहारे दर्शकों को मिथक के संसार में ले जाने में वे सफल रही. वे कहती है कि मैं मिथक से हट कर सफेद, काले और भूरे रंग, जो कि हाथी से जुड़े हैं उसका इस्तेमाल इस नाटक में किया है ताकि एक बच्चे के युवा तक की विकास यात्रा को दिखा सकें. पिछले कुछ वर्षों में युवा नाटककारों की चिंता की जद में पर्यावरण भी आए हैं. वे विभिन्न तरह से प्रकृति और मानवीय रिश्तों को रंगकर्म में पिरो रहे हैं. इस लिहाज से एलियास का यह नाटक रेखांकित करने योग्य है.
नाटक को देखते हुए मुझे ‘एलिस इन द वंडरलैंड’ और क्रिश्चियन एंडरसन की बहुचर्चित कृति ‘द अग्ली डकलिंग’ की याद आती रही. एक स्तर पर यह नाटक आपसी सामंजस्य को लेकर भी है. यह नाटक बच्चों के लिए भी है. पर दर्शकों में बच्चों की उपस्थिति नहीं थी.

देश में रंगकर्म की पहुँच एक सीमित दर्शक वर्ग तक ही है. हिंदी रंगमंच के लिए यह खास तौर पर रेखांकित किया जाना चाहिए. सूचना क्रांति के इस दौर में बच्चे और युवा मनोरंजन के लिए लोग मोबाइल-लैपटॉप पर सिमट गए हैं. सवाल है कि नए दर्शक रंगमंच से कैसे जुड़ेंगे? रंगकर्मियों को अपने नाटक स्कूल-कॉलेज तक ले जाने होंगे ताकि बच्चे-युवा दर्शक जुड़ सके.  

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