Saturday, August 21, 2010

ख्वाबों में खोया सा, अधमुंदी आँखों में सोया सा

वर्षों बाद जेएनयू को एक 'आउटसाइडर' की तरह देखा...

इस 'लेट मानसून' में सब तरफ़ हरी भरी पेड़-पत्तियों पर झीर झीर बारिश की बूँदों के बीच नवल-नवेलियाँ रंग-बिरंगे छाता लिए पगडंडियों से स्कूल की तरफ जा रही थी...उनकी कतार में अपना रास्ता ढूँढ़ता मैं भी था.

लाल ईटों का रंग एक बार फिर सुर्ख दिखा. सजीले अशोक के पेड़ों की हरियाली और निखरी दिखी.

रंग-बिरंगे पोस्टरों पर बिखरे क्रांति के गीत को टप-टप करती बूंदों ने जैसे एक धुन दे दिया हो. जागते ख्वाबों में खोया सा, अधमुंदी आँखों में सोया सा यह जेएनयू फिर से अपना लगा.

मनीष, तुम्हें याद है अभी-अभी तो हम मिले थे एड ब्लॉक पर, एडमिशन लेते हुए. यही मौसम था. आठ बरस बीत गए... नहीं तो!!!

कल जेएनयू की वेब साइट पर एक फोन नंबर ढूँढ़ रहा था तो पता चला कि प्रोफेसर उत्सा पटनायक रिटायर हो गई, दीपांकर गु्प्ता चले गए...

जीपी देशपांडे, मैनेजर पांडेय, कांति वाजपेयी को लोग अब कैंपस में कहां देखेंगे-सुनेंगे...सीआईएल में दुलारे जी मिले, रिटायर हो गए इस जनवरी...बकौल दुलारे जी, नामवर सिंह के साथ ही उन्होंने सेंटर ज्वाइन किया था...अज्ञेय और नामवर के कई किस्से अनकही रह गई...

वो कमरा याद हो आया. उन दीवारों पर लिखे हर्फ़ तो वहीं छूट गए. पता नहीं उन हर्फ़ों पर कुछ और रंग चढ़ गया हो.

हर्फ़ों में बसी उन खूशबूओं को हम ढूँढा करेंगे, जब जब दिल्ली में मानसून की बारिश होगी...

(नोट: जब नामवर सिंह जोधपुर में थे , दुलारे जी उनके रसोइया थे. उससे पहले वे अज्ञेय के साथ रहते थे. नामवर जी जब दिल्ली आए तो उनका रसोई दुलारे जी के ही कब्जे में रहा)

Sunday, August 08, 2010

Remembering People's Poet Nagarjun



























Hindi and Maithili poet Baba Nagarjun was born on 25 June 1911. His birth centenary is being celebrated in 2010-2011. These pictures depict his parental home, a library (in his name) in his village Tarauni and nearby railway station Sakri in Darbhanga district of Bihar. In the last picture Blogger is sitting with Baba Nagarjun's youngest son Shyamakant Mishra.

Saturday, August 07, 2010

नागार्जुन: सच का साहस

दरभंगा जिले में सकरी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए जैसे ही हम नागार्जुन के गाँव तरौनी की ओर बढ़ते हैं, मिट्टी और कंक्रीट की पगडंडियों के दोनों ओर आषाढ़ के इस महीने में खेतिहर किसान धान की रोपनी करने में जुटे मिलते हैं. आम के बगीचे में बंबईआम तो नहीं दिखता पर कलकतियाऔर सरहीकी भीनी सुगंध नथुनों में भर जाती है. कीचड़ में गाय-भैंस और सूअर एक साथ लोटते दिख जाते हैं. तालाब के महार पर कनेल और मौलसिरी के फूल खिले हैं...हालांकि यायावर नागार्जुन तरौनी में कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे छूटा भी नहीं. तरह-तरह से वे तरौनी को अपनी कविताओं में लाते हैं और याद करते हैं. लोक नागार्जुन के मन के हमेशा करीब रहा. लोक जीवन, लोक संस्कृति उनकी कविता की प्राण वायु है. लोक की छोटी-छोटी घटनाएँ उनके काव्य के लिए बड़ी वस्तु है. नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता, ‘अकाल और उसके बादमें प्रयुक्तत बिंबों, प्रतीकों पर यदि हम गौर करें तो आठ पंक्तियों की इस कविता पर हमें अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नहीं है. उनका कृतित्व उनके जीवन के घोल से बना है. यह घलुए में मिली हुई वस्तु नहीं है. नागार्जुन की रचना जीवन रस से सिक्त है जिसका उत्स है वह जीवन जिसे उन्होंने जिया. सहजता उनके जीवन और साहित्य का स्वाभाविक गुण है. इसमें कहीं कोई दुचित्तापन नहीं. लेकिन यह सहजता सरल सूत्र उलझाऊहै.

नागार्जुन कबीर के समान धर्मा हैं. नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर कहा है. सच कहने और गहने का साहस उन्हें दूसरों से अलगाता है. युवा कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो उनमें सच को सच की तरह कहने और सच को सच की तरह सुनने का साहस था’. नागार्जुन दूसरों की जितनी निर्मम आलोचना करते हैं, खुद की कम नहीं. जो इतनी निर्ममता से लिख सकता है- कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप (कर्म का फल भोगे बूढ़े पिता)...तब आश्चर्य नहीं कि ...बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को...सरीखी पंक्तियाँ उन्होंने कैसे लिखी होगी!

उनकी यथार्थदृष्टि उन्हें आधुनिक मन के करीब लाती है. यही यथार्थ दृष्टि उन्हें कबीर के करीब लाती है. यथार्थ कबीर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो और कुछ नहीं-आँखिन देखीहै. नागार्जुन को भी इसी आँखिन देखी पर विश्वास है, भरोसा है. मैथिली में उनकी एक कविता है परम सत्यजिसमें वे पूछते हैं-सत्य क्या है? जवाब है-जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है. जीवन सत्य है. संघर्ष सत्य है. (हम, अहाँ, , , थिकहुँ सब गोट बड़का सत्य/ सत्य जीवन, सत्य थिक संघर्ष.)

नागार्जुन की एक आरंभिक कविता है- बादल को घिरते देखा है.देखा है, यह सुनी सुनाई बात नहीं है. अनुभव है मेरा. इस तरह का अनुभव उसे ही होता है जिसने अपने समय और समाज से साक्षात्कार किया हो. कबीर ने किया था और सैकड़ों वर्ष बाद आज भी वे लोक मन में जीवित हैं. कबीर ने इसे अनभै सांचाकहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक यह अनुभव से उपजा और अनभय सत्य है.

कवि नागार्जुन में साहस है. सत्य का अनुभव है. सत्य के लिए वे न तो शास्त्र से डरते हैं, न लोक से. जिस प्रकार कबीर की रचना में भक्ति के तानेबाने से लोक का सच मुखरित हुआ है, उसी प्रकार नागार्जुन ने आधुनिक राजनीति के माध्यम से लोक की वेदना, लोक के संघर्ष, लोक-चेतना को स्वर दिया है. बात 1948 के तेलंगाना आंदोलन की हो, 70 के दशक के नक्सलबाड़ी जनान्दोलन की या 77 के बेलछी हत्याकांड की, नागार्जुन हर जगह मौजूद हैं. सच तो यह है कि नागार्जुन इस राजनीति के द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनैतिक उतार-चढ़ाव, उठा-पठक, जोड़-तोड़ और जनचेतना का जीवंत दस्तावेज है उनका साहित्य. नागार्जुन के काव्य को आधार बना कर आजाद भारत में राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है.

असल में साधारणता नागार्जुन के काव्य की बड़ी विशेषता है. सिके हुए दो भुट्टेसामने आते ही उनकी तबीयत खिल उठती है. सात साल की बच्ची की गुलाबी चूड़ियाँउन्हें मोह जाती है. काले काले घन कुरंगउन्हें उल्लसित कर जाता है. उनके अंदर बैठा किसान मेघ के बजते ही नाच उठता है. नागार्जुन ही लिख सकते थे: पंक बना हरिचंदन मेघ बजे.

नागार्जुन जनकवि हैं. वे एक कविता में लिखते हैं: जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ. नागार्जुन में जनता का आत्मविश्वास बोलता है. नागार्जुन की प्रतिबद्धता है जन के प्रति और इसलिए विचारधारा उन्हें बांध नहीं सकी. न हीं उन्होनें कभी इसे बोझ बनने दिया. नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? उन्हीं के शब्दों में: बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’, उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति-लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.

नागार्जुन जीवन पर्यंत सत्ता और व्यवस्था के आलोचक रहे. जन्मशती वर्ष में यदि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें याद नहीं करें तो बात समझ में आती है, पर जिस जनको उन्होंने अपना पूरा जीवन दिया उसने उन्हें कैसे भूला दिया?

(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 7 अगस्त 2010 को प्रकाशित, चित्र : नागार्जुन के गाँव तरौनी में उनकी प्रतिमा)