धूप खूब खिली है. लोग नंगे बदन नेकर के तट पर लेटे धूप सेंक
रहे हैं. कुछ
विद्यार्थियों के हाथों में किताब और नोट बुक भी दिख जाती है. वैसे नेकर का पानी
गंदला है. नदी पर बना
पुल भी सेन या टेम्स पर बने पुल से कोई स्पर्धा करता नहीं दिखता. नेकर नदी और हाइडेलबर्ग को लेकर मेरे मन
में एक छवि अल्लामा इकबाल की एक नज्म से जुड़ी हुई थी- एक शाम-दरियाए नेकर के किनारे.
हाइडेलबर्ग शहर की
रौनक नेकर के दोनों तटों पर बसे विश्वविद्यालय से है. शहर खुश मिजाज दिखता
है. इसमें एक
ठहराव है और समय के साथ ना चलने की जिद्दी धुन भी. कोई बनावटीपन या दिखावा नहीं. शहर का फैलाव भले ही कम हो पर सैलानियों की आवाजाही ज्यादा
है.
ऊँची पहाड़ियों पर बने
कैसल के ऊपर पहुँचे तो
मन में केदारनाथ सिंह की पंक्ति गूँजी-
यहाँ से देखो! करीने से सजे
मकानों का सुर्ख रंग, पहाड़ी पर हरे-भरे पेड़ और बीच में बहती नेकर नदी. मानो शहर बुद्ध की ध्यान मग्न प्रतिमा में बदल गया
हो.
सोचता हूँ, सात सौ साल
पहले यह शहर और विश्वविद्यालय कैसा रहा होगा? मन में नालंदा विश्वविद्यालय की छवि उभरती है. पुराने शहर के अंदरूनी हिस्से में
हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय की पुरानी इमारत और एक संग्रहालय भी है. सन 1386
में स्थापित जर्मनी के सबसे पुराने इस विश्वविद्यालय ने इतिहास के कई थपेड़े झेले. नाजी जर्मनी में अन्य
विश्वविद्यालयों की तरह इसने भी हिटलर का समर्थन किया था. हालांकि विश्वयुद्ध के दौरान विध्वंस से
यह बच गया था, पर उस दौर में पुस्तकालय की किताबों को लोग शहर से दूर गाँवों-कस्बों में ले गए, ताकि विध्वंस की हालत में उसे बचाया जा सके. यूरोप में और खास कर जर्मनी में युद्ध
कालीन इतिहास की गाथा को सहेज कर रखा गया है ताकि आने वाली पीढ़ी उस सबक से कुछ
सीख सके. हाइडेलबर्ग की
यात्रा से पहले हम कोलोन स्थित 'नेशनल सोशिलिज्म
म्यूजियम' गए थे, जो नाजी
जर्मनी में गेस्टापो (खुफिया पुलिस) का मुख्यालय था. उन दीवारों पर उस दौर की ज्यादती और
व्यथा का विवरण भले ही विचलित करता हो,
पर मानवता के इतिहास के लिए इसे सहेजना जरुरी लगता है.
बहरहाल, पुराने शहर की गलियों में भटकने के बाद हम
अल्लामा इकबाल की रिहाइश की खोज में निकले.
उन्होंने हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय से दर्शन, साहित्य और जर्मन भाषा की पढ़ाई की और बाद में म्यूनिख से
पीएचडी की थी. उनकी
स्मृतियों को सुरक्षित रखते हुए नेकर के तट पर एक मार्ग का नाम- 'इकबाल उफेर' रखा गया है.
'उफेर' यानी स्ट्रीट. नेकर के दूसरे तट पर
एक स्ट्रीट है -'फिलॉसफेन वेग'. सैकड़ों साल पुराने मकानों से घिरी इस
स्ट्रीट पर कहते हैं कि कई दार्शनिकों ने अपने निशान छोड़े हैं! इसी के इर्द-गिर्द एक मकान के बाहर एक नेमप्लेट दिखती
है जिसमें लिखा है: 'दार्शनिक, कवि और पाकिस्तान के जनक (मानस पिता) यहाँ रहते थे'.
'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' लिखने वाले कवि इकबाल और एक अलग राष्ट्र
पाकिस्तान की मांग करने वाले विचारक इकबाल के साथ तालमेल बिठाने में मुझे परेशानी
हुई. उनका व्यक्तित्व एक
साथ कई विरोधाभासों को समेटे हुए
था.
खैर, मेरी इन उलझनों का जवाब अगले दिन
हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई संस्थान में मिला जहाँ मुझे हिंदी
मीडिया पर बोलना था. यह संस्थान
पिछले पचास सालों से दक्षिण एशियाई भाषा, साहित्य और संस्कृति के ऊपर शोध, शिक्षण-प्रशिक्षण को बढ़ावा दे रहा हैं. इस संस्थान में प्रवेश करते ही रचनाकर्म
में रत रवींद्रनाथ ठाकुर की एक आवक्ष प्रतिमा ('बस्ट') दिखती है. इकबाल की तरह ठाकुर भी
दक्षिण एशिया के एक ऐसे
प्रतिनिधि शायर और विचारक थे, जिन्हें किसी एक राष्ट्रीयता में कैद नहीं किया जा
सकता.
संस्थान के वर्तमान
निदेशक प्रोफेसर हंस हार्डर खुद हिंदी और बांग्ला के विद्वान हैं. मेरी नजर कोल्हापुरी चप्पल पर पड़ी जो
उन्होंने पहन रखी थी. मैंने तारीफ
की तो मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा कि आम तौर पर विश्वविद्यालय में हम ये पहन कर
नहीं आते, पर आज गरमी है, तो चलेगा. और फिर यह दक्षिण एशियाई संस्थान तो है ही!
आज लोग इसे भले ही याद
न करें, पर 20वीं सदी की
शुरुआत में अल्लामा इकबाल, जाकिर हुसैन, राम मनोहर लोहिया जैसे राजनेता-विचारक जर्मनी शिक्षा-दीक्षा के लिए आए थे. जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया
कि लोहिया की पीएचडी थीसिस का वर्तमान में कोई अता-पता नहीं है. भारत सरकार को चाहिए कि वह जर्मनी के साथ
मिल कर उनके शोध प्रबंध की खोज का उपक्रम करे, ताकि पता चल सके वे भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम के दौर में किन विचारों-चिंताओं से
जूझ रहे थे.
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में 28 जून 2013 को प्रकाशित)