Monday, October 24, 2016

हिंदी में एकांगी मीडिया मंथन

राज्यसभा टीवी पर मीडिया मंथननाम से एक रोचक कार्यक्रम आता है, जिसके एंकर हैं हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश. शनिवार (22 Oct) को प्रसारित हुए इस कार्यक्रम का विषय था मीडिया में विज्ञापन या विज्ञापन में मीडिया’. विषय काफी मौजू और समकालीन पत्रकारिता की चिंता के केंद्र में है.
पर कार्यक्रम देख कर काफ़ी निराशा हुई. उम्मीद थी कि मंथन से कुछ निकलेगा, लेकिन निकला वही ढाक के तीन पात! हिंदी में जो इन दिनों मीडिया विमर्श है वह मंडी, दलाल स्ट्रीट, दुष्चक्र जैसे जुमलों के इधर-उधर ही घूमता रहता है. इसी तरह उर्मिलेश और जो कार्यक्रम में मौजूद गेस्ट थे इसी विमर्श के इर्द-गिर्द अपने विचारों को परोसते रहे, जो कि अंग्रेजी विमर्श में कब का बासी हो चला है. उर्मिलेश भी अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि बाज़ार के दुष्चक्र से मीडिया की मुक्ति नहीं’. ‘वह अभिशप्त है’. वगैरह, वगैरह.
विमर्श की चिंता के केंद्र में यह था कि विज्ञापन और ख़बर के बीच अब कोई फर्क नहीं बचा है’. ‘पत्रकारिता के सामाजिक सरोकर बिलकुल ख़त्म हो गए हैं.पेड न्यूज, एडवरटोरियल इन दिनों ख़बरों पर हावी है, आदि.
सवाल बिलकुल जायज है और यह स्थापित तथ्य है कि पेड न्यूज़, एडवरटोरियल मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न बन कर खड़े हैं. और इस पर कई वरिष्ठ पत्रकार, शोधार्थी पिछले दशक से लिखते रहे हैं, बहस-मुबाहिसा करते रहे हैं
पर कार्यक्रम के दौरान इन सारे सवालों, बहस के बीच कोई आंकड़ा नहीं था (पहले कितना रेशियो विज्ञापन और खबर का था जब आठ-दस पेज का अखबार होता था, और आज 20-25 पेज के अखबार में क्या रेशियो है). कोई स्रोत नहीं थे.
1953 में ही संपादक अंबिका प्रसाद वाजपेयी विज्ञापन को समाचार पत्र की जान कह रहे थे. और हिंदी समाचार पत्रों के विज्ञापन के अभाव में निस्तेज होने का रोना रो रहे थे. 1954 में पहले प्रेस कमीशन ने अखबारों में बड़ी पूंजी के प्रवेश की बात स्वीकारी थी. पर इसका लाभ अंग्रेजी के अखबारों को मिलता रहा.
उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद ही भारतीय भाषाई अखबार विज्ञापन उद्योग से जुड़ कर लोगों तक ठीक से पहुंच सके. रौबिन जैफ्री ने अपने लेखों में विस्तार से इसे रेखांकित किया है, सेवंती निनान इसे हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार कहती हैं. जाहिर है इस पुनर्विष्कार में विज्ञापन, पूंजीवादी उद्योग के उपक्रम तकनीक की प्रमुख भूमिका थी. मैंने भी अपनी किताब हिंदी में समाचारमें विस्तार से रेखांकित किया है कि किस तरह भूमंडलीकरण के बाद हिंदी के अखबार जो अंग्रेजी के पिछलग्गू थे, एक निजी पहचान लेकर सामने आए हैं.
पर अपनी बहस में उर्मिलेश ना तो इस भाषाई मीडिया क्रांतिकी चर्चा करते है, ना ही अखबारों, चैनलों के प्रचार-प्रसार से आए लोकतंत्र के इस स्थानीय, देसी रूप को देखते-परखते हैं. साथ ही विज्ञापन की इस बहुतायात मात्रा से परेशानी किसे है? पाठकों-दर्शकों को कि मीडिया के विमर्शकारों को? क्या कोई सर्वे है कि असल में पाठक-दर्शक विज्ञापन चाहते हैं या नहीं. यदि हां, तो कितना विज्ञापन उपभोक्ता चाहते हैं? हम एक कंज्यूमर सोसाइटी (उपभोक्ता समाज) में रह रहे हैं, ऐसे में विज्ञापन की भूमिका को एक नए सिरे से देखने की जरूरत है, महज 'शोर' कह कर हम इसे खारिज़ नहीं कर सकते.

जब पच्चीस रुपए का अख़बार पाँच रुपए में मिल रहा हो, ज्यादातार मीडिया हाउस का कारोबार घाटे में हो, ऐसे में विज्ञापन पर निर्भरता स्वाभाविक है. पर हिंदी में मीडिया मंथन इसे एक इच्छाशक्ति से बदलने’, ‘organic approach (?)’ को बढ़ावा देने से आगे किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा. यह विमर्श मीडिया को पूंजीवाद की महत्वपूर्ण इकाई मानने से ही परहेज करता प्रतीत होता है. इसके विश्लेषण के औजार पत्रकारिता के वही गाँधीवादी, शुद्धतावादी कैनन है (गाँधी विज्ञापन के प्रति काफी सशंकित थे. वे अपने पत्रों में विज्ञापन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते थे, 99 प्रतिशत विज्ञापन को पूरी तरह से बकवास मानते थे) जो आज़ादी के साथ ही भोथरे हो गए थे.
(जानकी पुल पर प्रकाशित)

Sunday, October 16, 2016

अंग्रेजी टीवी न्यूज़ चैनल का हिंदीकरण

वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा रेखा पर दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा था और युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. ‘आजतक’ जैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में एक बड़ी भूमिका अदा की थी. उसी दौरान (2001-02) हम भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. हमें तथ्य और सत्य के रिश्ते की बारीकियों को समझाया जा रहा था. सवाल करना, पूछना, कुरेदना, ख़बर की तह तक जाने की सीख दी जा रही थी. असहज तथ्यों को छुपाने की सत्ता की आदत, ख़बर निकालने के गुर, साथ ही सत्ता के साथ एक हाथ की दूरी बरतने की सलाह दी जा रही थी.
उस वक्त आज तक चैनल से जुड़े रहे दीपक चौरसिया व्याख्यान देने आए थे. बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूछा कि- ‘आज तक की प्रसिद्धि क्यों इतनी है?’ मैंने कहा- ‘युद्ध हो ना हो, आप टैंक, मोर्टार स्टूडियो में तैनात रखते हैं और यह आम दर्शकों को लुभाता है. दर्शकों के अंदर की हिंसा को उद्वेलित करता है!’ चौरसिया साहब का चेहरा बुझ गया था. मेरे एक मित्र ने एक चिट बढ़ाई- भाई, आपको शायद नौकरी की जरुरत नहीं होगी, हमें है!
उस वक्त हमें लगता था और मीडिया के जानकार कहते थे कि टेलीविजन मीडिया अपने शैशव अवस्था में है. ये संक्रमण काल है, कुछ वर्षों में यह ठीक हो जाएगा. पंद्रह वर्ष बाद ऐसा लगता है कि हिंदी समाचार चैनलों के इस संक्रमण से अंग्रेजी के चैनल भी संक्रमित हो चुके हैं. अर्णव गोस्वामी और ‘टाइम्स नॉउ’ इसके अगुआ है. और इस बीच अर्णव के कई ‘क्लोन’ तैयार हो चुके हैं.
भारतीय भाषाई मीडिया पर राष्ट्रवादी भावनाओं को बेवजह उभारने का आरोप हमेशा लगता रहा है, जो एक हद तक सच भी है. पर मोदी सरकार के आने के बाद, ‘न्यूज नैशनलिज्म’ के इस दौर में, अंग्रेजी पत्रकारिता खास तौर से खबरिया चैनलों की भाषा और उनके तेवर देख कर लगता है कि अब सामग्री के उत्पादन और प्रसारण के स्तर पर ‘अंग्रेजी और वर्नाक्यूलर’ के बीच विभाजक रेखा मिट गई है. यह अंग्रेजी चैनलों का ‘हिंदीकरण’ है.
ऐसा नहीं है कि सत्ता या बाजार के दबाव मे खबरें अखबारों ना चैनलों से पहले नहीं गिराई जाती थी, पर हाल में जिस तरह से एनडीटीवी ने लचर तर्क देकर पूर्व गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम के इंटरव्यू को प्रोमो दिखाने के बाद रोका है, वह स्वतंत्र पत्रकारिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है. गौरतलब है कि हमारी पीढ़ी हज़ार कमियों के बावजूद भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता में एनडीटीवी को एक मानक के रूप में देखते बड़ी हुई है. एक-दो अपवाद को छोड़ कर उड़ी में हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से भारतीय मीडिया सेना और सत्ता से सवालों से परहेज करता रहा है, उससे लगता है कि आने वालों दिनों में पत्रकारिता सरकारी प्रेस रीलिजों के भरोसे ही चलेगी.
पाकिस्तान और सेना के मामले में भारतीय मीडिया राज्य और सत्ता के नज़रिए से ही ख़बरों को देखने और उन्हें विश्लेषित करने को अभिशप्त लगता है.
जाहिर है कि सीमा रेखा पर किसी चैनल का कैमरा नहीं लगा है और संघर्ष के वक्त पत्रकार वहाँ नहीं थे. खबरें ‘विश्वस्त सूत्रों’ से ही मिलती है, पर विश्लेषण करने, सवाल पूछने को तो हमारे स्वनामधन्य पत्रकार-संपादक स्वतंत्र हैं!
कुछ वर्ष पहले नोम चोमस्की ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि पाकिस्तानी मीडिया भारतीय मीडिया से ज्यादा स्वतंत्र है और उन पर सत्ता का दवाब अपेक्षाकृत कम है. संभव है इसमें हमें अतिरंजना लगे. पर सर्जिकल स्ट्राइक्स के बाद जिस तरह से पाकिस्तानी की मीडिया सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत दिखाई है, ये सच लगता है.
हाल ही में पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग होने और सेना और राजनेताओं के बीच उभरे मतभेद की खबर डॉन अख़बार के पत्रकार-विश्लेषक सिरिल अलमेइडा ने प्रकाशित की थी. इस पर पाकिस्तानी सरकार-सेना ने जो रुख अपनाया उसकी मजम्मत करने में वहाँ की अखबारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. मसूद अजहर और हाफिज सईद के ऊपर ‘राष्ट्रीय हितों’ को ध्यान में रखते हुए कोई कार्रवाई नहीं करने पर सवाल उठाते हुए ‘द नेशन’ ने लिखा: सरकार और सेना के अलाकमान प्रेस को लेक्चर देने की कि वह किस तरह अपना काम करे, कैसे हिम्मत कर रहे हैं? एक प्रतिष्ठित रिपोर्टर के साथ अपराधी की तरह बर्ताव करने की वे हिम्मत कैसे कर रहे है? कैसे वे हिम्मत कर रहे हैं यह बताने का कि उनके पास एकाधिकार है, योग्यता है यह घोषणा करने का कि पाकिस्तान का ‘नेशनल इंटरेस्ट’ क्या है? 

क्या ऐसी किसी प्रतिक्रिया की उम्मीद आज हम भारतीय मीडिया से कर सकते हैं? गौरतलब है कि पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीएनएन न्यूज 18 को दिए इंटरव्यू के दौरान कहा था: मीडिया अपना काम करता है, वह करता रहे. और मेरा यह स्पष्ट मत है कि सरकारों की, सरकार के काम-काज का कठोर से कठोर analysis होना चाहिए, criticism होना चाहिए, वरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता है.
पर लोकतंत्र ठीक से चले इसकी फिक्र किसे है!

Wednesday, August 24, 2016

हवेली में भित्तिचित्र

जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर की एक प्रसिद्ध किताब है- प्रोटेस्टेंट इथिक एंड स्पिरीट ऑफ कैपिटलिज्म. इस किताब में वे लिखते हैं कि किस तरह प्रोटेस्टेंट संबंधी धार्मिक मान्यताओं से यूरोप में पूंजीवाद के प्रचार-प्रसार को बल मिला. इसमें वे ईसाई धर्म की इस शाखा की उन विशेषताओं को रेखांकित करते हैं जो आधुनिक पूंजीवादी विचारधारा की प्रेरक हैं. वर्षों पहले समाजशास्त्र के एक शिक्षक ने मारवाड़ी बनिया समुदाय के भारतीय पूंजीवाद में योगदान और उनके रीति-रिवाजों, रहन-सहन, धर्म से उनके जुड़ाव और रिश्तों की बात की थी. पता नहीं, इस बारे में कोई अध्ययन किया गया है या नहीं. अमूमन भारत के अकादमिक जगत में कारोबारी घराने, महाराजाओं के बारे में एक तरह की उपेक्षा का भाव है, जिस वजह से इनके बारे में कम ही शोध उपलब्ध हैं.

राजस्थान के शेखावटी इलाके ने भारत में कारोबारियों के कई घराने दिए हैं. बिड़ला, मित्तल, बजाज, गोयनका, झुनझुनवाला, डालमिया, पोद्दार, चोखानी आदि की जड़ें इन्हीं इलाकों से जुड़ी हैं. आधुनिक भारत के निर्माण में इन कारोबारियों की भूमिका असंदिग्ध है. इन घरानों के कई कारोबारी आजादी के दौरान राष्ट्रीय आंदोलनों से भी जुड़े हुए थे. उन्नीसवीं सदी में अफीम, कपड़ों, मसालों के कारोबार से इन इलाकों के कारोबारियों ने अकूत धन अर्जित किया था. इन धनिकों की हवेलियों को देखने पर उनकी संपत्ति, माल-असबाब की एक झलक मिलती है, हालांकि हवेलियों से कारोबारियों के कला-संस्कृति के प्रति रुझान, उनके दृष्टिकोण का भी पता चलता है.

सीकर से तीस-चालीस किलोमीटर दूर मंडावा और नवलगढ़ इलाकों में भारत के चर्चित इन कारोबारी घरानों की हवेलियां स्थित हैं. तकरीबन सौ साल पहले इनके बाशिंदे कारोबार की खोज में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और सुदूर देश चले गए, तब से ये हवेलियां वीरान पड़ी हैं. कई हवेलियों पर ताले जड़े हैं और कुछ रखवालों, चौकीदारों के भरोसे हैं. ऐसी ही एक हवेली में रह रहे एक चौकीदार ने मुझे बताया कि हवेली के मालिक-कारोबारी दो-चार साल में मांगलिक कार्यों के दौरान अपने कुल देवता के दर्शन के लिए आते हैं.

बहरहाल, इस समय जो चीज इन हवेलियों को विशिष्ट बनाती है, वह है इन पर बने भित्ति-चित्र. इन हवेलियों की दीवारों, मेहराबों, खंभों पर बने करीब सौ-डेढ़ सौ साल पुराने इन भित्ति-चित्रों की शैली और इनका सौंदर्य मनमोहक है. साथ ही राजस्थानी लोक कथाओं, पशु-पक्षी, मिथकों, धार्मिक रीति-रिवाजों, आधुनिक रेल, जहाज, मोटर, ईसा मसीह आदि के चित्रों का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व भी है. इन चित्रों से उस जमाने में लोगों के रहन-सहन, सामाजिक स्थिति, संस्कृतियों के मेल-जोल का भी पता चलता है. अनाम कलाकारोंके बनाए इन भित्ति-चित्रों में इस्तेमाल किए गए रंग प्राकृतिक हैं. मसलन, लाल के लिए सिंदूर, काले रंग के लिए काजल, नीले रंग के नील का प्रयोग किया गया है. हालांकि बाद के दिनों में इन चित्रों के संरक्षण के दौरान सिंथेटिक रंगों का प्रयोग किया जाने लगा. जिस तरह मिथिला पेंटिंग में मछली, वर्ली पेटिंग में मोर, पट चित्र में घोड़े का चित्रण कलाकार बार-बार करते हैं, उसी तरह शेखावटी के इन भित्ति-चित्रों में ऊंट का चित्रण खूब किया गया है.


इन हवेलियों में प्रवेश करने पर ऐसा लगता है जैसे कि यह कोई कला-दीर्घा हो. पर कुछ हवेलियों को छोड़ कर (मंडावा के किले, पोद्दार म्यूजियम, मोरारका म्यूजियम आदि) बाकी की हालत खस्ता है. कुछ हवेलियों में होटल खोल दिए गए हैं. उपेक्षा और वर्षों धूल, हवा, प्रदूषण और रख-रखाव के अभाव में चित्रों से रंग उड़ गए हैं तो कहीं भीत उखड़ रही है. चित्रकार भैरोंलाल स्वर्णकार पोद्दार म्यूजियम के पुनर्नवा अभियान में वर्षों से जुटे हुए हैं. वे बताते हैं कि इस हवेली के मालिक ने बीसवीं सदी की शुरुआत में इन दीवारों पर रेलगाड़ी का अंकन तब करवाया था, जब इस इलाके के लोग रेलगाड़ी से अपरिचित थे. कई भित्ति-चित्र ऐसे हैं जिन्हें देख कर समय और काल के साथ इन चित्रों के रिश्ते को देख कर अचंभा होता है. मुझे उन्होंने बताया कि इस म्यूजियम में अब तक करीब आठ सौ भित्ति-चित्रों का संरक्षण किया जा चुका है. करीब दो सौ हवेलियों में इन भित्ति-चित्रों का एक ऐसा संसार फैला है जो अनमोल है. पूरे देश में एक साथ हजारों भित्ति-चित्र शायद ही कहीं और बिखरे पड़े हों!


पिछले दिनों चर्चित फिल्म पीकेऔर बजरंगी भाईजानकी शूटिंग इन इलाकों में हुई, जिसके कारण एक बार फिर से ये इलाके चर्चा में आए हैं. साथ ही पिछले कुछ वर्षों में विदेशी सैलानियों के बीच यह इलाका तेजी से एक पर्यटक स्थल के रूप में उभरा है. धनकुबेरों को अपने इस पुराने ठौर से आज कोई खास मतलब नहीं दिखता है. आस-पड़ोस के लोगों और सरकार के लिए भी कला के इस खजाने का कोई मूल्य नहीं है और न ही शायद उन्हें इसके संरक्षण की कोई चिंता है.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 24 अगस्त 2016 को प्रकाशित)

Saturday, July 30, 2016

राष्ट्र सारा देखता है

पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के आने से राष्ट्र-राज्य की शक्ति में कमी आई है.  हालांकिराष्ट्र-राज्य की शक्ति में आई कमी के साथ-साथ इन्हीं वर्षों में दुनिया भर में दक्षिणपंथी ताकतों और उग्र-राष्ट्रवाद  का उभार भी हुआ है. पिछले महीने यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के लिए हुए जनमत संग्रह दक्षिणपंथी ताकतों की मजबूती और राष्ट्र-राज्य की कमजोर होती शक्ति को फिर से पाने का ही एक प्रयास है. अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के इमिग्रेशन, मुस्लिम समुदाय को लेकर दिए गए भड़काऊ बयानों को हम इसकी अगली कड़ी के रूप में देख सकते हैं.

भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में इसकी अभिव्यक्ति पिछले कुछ महीनों से विभिन्न मुद्दों (लव जिहाद, बीफ बैन, जेएनयू, कश्मीर) के बहाने राष्ट्रवाद के ऊपर चल रही बहस के रुप में भी देखी जा सकती है.

इस बहस के पीछे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की  राजनीति,  आत्म और अन्य की एकांगी व्याख्या और भारतीय इतिहास की औपनिवेशिक समझ-बूझ की एक बड़ी भूमिका है, जो भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रितानी हुकूमतों के काल के आधार पर विभाजित करके देखती रही है.

बहरहाल, ये सारी बहसें अखबारों, खबरिया चैनलों और खास कर प्राइम टाइम’ के माध्यम से जिस रूप में हमारे सामने आ रही है, वह एक अलग विश्लेषण की मांग करता है. दुनिया भर में बाजार और सूचना क्रांति को भूमंडलीकरण का मुख्य औजार माना गया है.  प्रसंगवशभारत में भूमंडलीकरण के बाद ही भाषाई अखबारों और खबरिया चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ.

सवाल है कि भारत में राष्ट्रवाद और मीडिया के इस संबंध को हम किस रूप में देखेंक्या यह भूमंडलीकरण के साथ ही सहज रुप से विकसित हुए हैंया भारतीय संदर्भ में इसकी कोई ख़ास विशेषता है?

राष्ट्रवाद के उदय और उभार के पीछे बेंडिक्ट एंडरसन ने प्रिंट पूंजीवाद’ की भूमिका को रेखांकित किया है. उनका मानना है कि राष्ट्र की अवधारणा हमारी कल्पना में ही साकार होती हैऔर इसे साकार बनाने में मास मीडिया की एक बड़ी भूमिका होती है. हालांकि, भारत में भाषाई मीडिया और खास तौर पर खबरिया चैनल जिस तरह के राष्ट्रवाद को इन दिनों बढ़ावा दे रहे हैं वह उग्र-राष्ट्रवाद का नमूना है. पिछले दिनों कश्मीर में चरमपंथी बुरहान वानी के सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत और बाद के घटनाक्रम पर कुछ न्यूज चैनलों के कवरेज और उन्मादी बहस-मुबाहिसा को देख कर कश्मीर के आईएएस अधिकारी शाह फैसल ने आक्रोश में इसे न्यूजरूम नैशलनिज्म’ का नाम दियाजो हिंदुस्तान में वाद-विवाद-संवाद की पुरानी परंपरा को कुंद करता है.  यह राष्ट्रवाद कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग तो मानता हैपर जब कोई कश्मीर भू-भाग में रहने वाले कश्मीरियों की वेदना-संवेदना का जिक्र करता है तो वह राष्ट्रविरोधी करार दिया जाता है. 

उल्लेखनीय है कि भारत में 19वीं सदी के आखिरी और 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने राष्ट्रवाद को खूब बढ़ावा दिया था. यह राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शक्तियों के खिलाफ था, पर आज़ादी के बाद एक संप्रभु राष्ट्र-राज्य में राष्ट्रवाद और मीडिया का वहीं स्वरूप नहीं रह गया जो आजादी के संघर्ष के दिनों में था. हालांकि, आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में अखबारफिल्म और सरकारी रेडियो- टेलीविजन राष्ट्र निर्माण में सहयोग दे रहे थे, पर उनमें उग्रता नहीं थीं. मीडिया का प्रसार और पब्लिक स्फीयर में उसकी भूमिका भी सीमित थी. 

पिछले दशकों में हिंदी क्षेत्र में मंडल-कमंडल की एक नई राजनीति सामने आई. साथ ही लोगों की आय और शिक्षा में भी बढ़ोतरी हुई और एक नया पाठक-दर्शक वर्ग उभरा है, जिसे हम नव मध्यम वर्ग कह सकते हैं. मीडिया की पहचान एक हद तक इसी वर्ग (टारगेट आडिएंश) से जुड़ी हैं. इस वर्ग में बहुसंख्यक दलित, आदिवासी, किसान, मजदूर और महिलाएँ शामिल नहीं हैं. 

उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम हैलोकतंत्र की एक मजबूत संस्था है, उसकी एक स्वायत्त संस्कृति है. जब भी हम मीडिया और राष्ट्रवाद के संबंधों की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के इस द्वंद्वात्मक रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया  का विस्तार हुआ है लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य पाठकों की संख्या को बढ़ाना, टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है.   

साथ ही हमें इन मीडिया संस्थानों के संपादकों-मालिकों की राजनीतिक और कारोबारी हितों को भी रेखांकित करना होगा. क्या यह अनायास है कि पिछले कुछ वर्षों में मीडिया घराने के मालिक संसद में पहुँचने के लिए लालायित रहते हैं. कुछ मालिक-संपादक बकायदा राजनीतिक पार्टियों के साथ मंच साझा करने में, उनके करीबी कहलाने में गर्व महसूस करते हैं. जाहिर हैऐसे में राष्ट्रवाद और संस्कृति की उनकी समझ उनके चैनलों पर उनकी राजनीति से प्रेरित दिखेगी. बात चाहे जेएनयू की होकश्मीर की हो या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की.

साथ ही, राष्ट्रवाद जैसे जटिल मुद्दे के विवेचन-विश्लेषण में मीडियाकर्मियों की शिक्षण-प्रशिक्षण की भी अपनी भूमिका है. पिछले दो दशकों में जिस तरह से मीडिया का उभार हुआ है और जिस तरह राजनीति मीडिया जनित होकर प्राइम टाइम के माध्यम से हमारे सामने आती है वह पत्रकारों के पेशेवर होने की मांग करती है. वर्तमान में मीडिया में पेशेवर नैतिकता की दरकार किसी भी अन्य पेशे से ज्यादा है. दुर्भाग्यवशभारत में मीडिया के अभूतपूर्व फैलाव के बाद जो मीडिया संस्कृति विकसित हुई है उसमें अभी भी पत्रकारों के शिक्षण-प्रशिक्षण पर विशेष जोर नहीं है. फलत: कई बार पत्रकार राजनीतिक पार्टियों के पैरोकार बन जाते हैं और उनके एजेंडे को ही मीडिया का एजेंडा मान लेते हैं.

Wednesday, July 13, 2016

सद्भाव के सुर

पंडित अभय नारायण मल्लिक के साथ लेखक
ऐसे समय में जब चारों तरफ हिंसा की खबरें हैंहिंसा की तैयारी चल रही हैइस मानसून में राग मल्हार या दरबारी कान्हरा की चर्चा बेमानी-सी लगती है. पर जब राजनीतिचाहे वह सत्ता की हो या धर्म कीलोगों को जोड़ने के बजाय बांटने की हो रही होसदियों से एक व्यापक समाज की पहचान से जुड़ी सांस्कृतिक स्मृति और इतिहास को मिटाने पर तुली होतब संगीत की याद बेतहाशा आती है.

स्मृतियों में डूबा-उतराया मैं पिछले दिनों हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद के एक चर्चित घराने दरभंगा शैली के एक प्रतिनिधि और संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पंडित अभय नारायण मल्लिक से मिलने उनके घर गया. जीवन के अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर चुकेशरीर से कमजोर मल्लिक के सुर और उनकी बोली-वाणी में मजबूती और मिठास अब भी बरकरार है. राग कान्हरा और राग दीपक की चर्चा करते हुए उनकी आंखों में चमक बढ़ जाती है. पिछले साल बिहार में चुनाव के दौरान जब सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय नेता दरभंगा पहुंच कर इस शहर से दरभंगा मॉड्यूल’ और आतंकवाद के तार जोड़ रहे थेतब मन मायूस हो गया था. दरभंगा या किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान हिंसा या अलगाव से नहीं बन सकती है. हाल में उत्तर प्रदेश में शामली जिले के कैराना में ऐसा ही कुछ होता दिखा है. किराना घराने के सिरमौर उस्ताद अब्दुल करीम खान के साथ कैराना का नाम जुड़ा हैपर राजनीतिक पार्टियों और मीडिया को झूठ-अफवाहों के सिवा कुछ पता नहीं! या फिर जान-बूझ कर एक साजिश के तहत सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की कोशिश हो रही है.

बहरहालवर्तमान पीढ़ी भले ही दरभंगा घराने से अपरिचित होमिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. इसे दरभंगा-अमता घराना के नाम से जाना जाता है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. पंडित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. ध्रुपद के श्रेत्र में दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री)पंडित सियाराम तिवारी (पद्म श्री)पंडित विदुर मल्लिक के गायन की चर्चा आज भी होती है. दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तालवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. यह एक उदाहरण है कि राष्ट्र की सीमा भले ही एक-दूसरे को अलगाती हैमगर संगीत एक-दूसरे को जोड़ता रहा है. यही बात रवींद्र संगीत के बारे में भी कही जा सकती है.

दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. गौरतलब है कि ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. पखावज के नामी वादक पंडित रामाशीष पाठक दरभंगा घराने से ही थे.
पं रामचतुर मल्लिक पंडित जी के गुरु थे

मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ालेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ावैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. पिछली सदी के शुरुआती दशकों में ध्रुपद की लोकप्रियता में कमी आई. सुखद रूप से एक बार फिर पिछले तीन-चार दशकों से देश-विदेश में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. पंडित अभय नारायण मल्लिक ने बताया कि खयाल का अति हो गया था!

दरभंगा महाराज के दरबार से जुड़ा यह घराना आजादी के बाद भी बिहार में संगीत के सुर बिखेरता रहा. पुराने दौर के लोग याद करते हैं कि 60-70 के दशक में दरभंगालहेरियासराय में होने वाली दुर्गापूजा के दौरान किस तरह पंडित रामचतुर मल्लिक की अगुआई में देश भर के संगीत के दिग्गज अपनी मौसिकी का जादू बिखरते थे. लेकिन बाद के दशकों में जैसे-जैसे बिहार में राजनीतिक माहौल प्रतिकूल होता गयादरभंगा में भी ध्रुपद की परंपरा सिमटने लगी.

इसके बाद धीरे-धीरे दरभंगा से इस घराने का कुनबा देश के विभिन्न शहरों में जमता गया. हालांकि पंडित अभय नारायण मल्लिक अभी भी दरभंगा और अपने गांव अमता को शिद्दत से याद करते हैं. विद्यापति के पद को गाते हुए वे अतीत को याद करने लगते हैं और बताते हैं कि दरभंगा रेडियो स्टेशन में उनके गाए विद्यापति के पद रिकॉर्ड में मौजूद होने चाहिए. उन्होंने याद किया कि उनके गुरु पंडित रामचतुर मल्लिक भी अपनी गायकी के आखिर में विद्यापति के पद ही गाते थे. पंडित मल्लिक के घर से निकलते हुए मुझे बचपन में पढ़ी यह पंक्ति याद आई- यह विशुद्ध साहित्य-संगीतवह गंदी राजनीति!’ 

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 13.07.2016 को प्रकाशित)

Friday, June 17, 2016

कैराना में बहुत कम बच रहा है कैराना

लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
अब इन्हीं शहरों में
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाज़ार
कई तरह के सौदाई
इनके भीतर इनके आसपास
इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर
और श्रीनगर तक
हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताक़त

सफ़ेद रात शीर्षक से लिखी आलोकधन्वा की इस कविता में विस्थापन का सवाल है. शहर की चिंता है, शहर बचा न पाने की बेबसी है. हिंसा का सवाल है. पर यह सारे सवाल एक कवि के हैं. कवि और राजनेता की भाषा में फर्क होता है, उनकी चिंता में भी. अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर में कह सकते थे: तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश, हम आएँ सुबह-ए- बनारस की रौशनी लेकर, और इसके बाद यह पूछें कि कौन दुश्मन है. वह राजनेता थे, कवि थे.

पर यह दौर नरेंद्र मोदी और अमित शाह का है. कहने को प्रधानमंत्री मोदी भी गुजराती के कवि है, पर वह नाम के कवि है. मुश्किल सवालों पर चुप्पी उन्हें ज्यादा पसंद है.

आजकल उत्तर प्रदेश के शामली जिले स्थित कैराना चुनावी राजनीति के कारण चर्चा में है. बीजेपी का आरोप है कि कैराना के मुस्लिम बहुल इलाके से हिंदुओं ने भय से अपना घर-बार छोड़ दिया है. पिछले दिनों इलाहाबाद में बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने कैराना का हवाला दिया और कहा कैराना के अंदर जो पलायन हुआ है उसको उत्तर प्रदेश की जनता को हलके से नहीं लेना चाहिए.

जिस तरह से कभी भगवान राम उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में थे, संभव है कि कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले भगवान राम की फिर से वापसी हो! सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और विकास का पाठ बीजेपी एक साथ साधना चाहती है.

फिलहाल हम चर्चा कैराना की कर रहे हैं. जिसका अपना एक सांस्कृतिक इतिहास है. कैराना का संबंध हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के चर्चित किराना घराना से है. इस घराने के सबसे प्रसिद्ध गायक उस्ताद अब्दुल करीम खान की गायकी, उनकी ठुमरी, खयाल की चर्चा पुराने-नए शास्त्रीय संगीत से शौकीन आज भी करते हैं. करुण और श्रृंगार रस से भरे उनकी मौसकी में जो लोच है वह सहृदय को दशकों से अपनी ओर खींचती रही है. कहते हैं राम का गुणगान करिए/ राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिए गाने वाले पंडित भीमसेन जोशी करीम खान के गाए पिया बिन नहीं आवत चैनऔर पिया मिलन की आससुन कर इस कदर प्रभावित हुए कि वह संगीत सीखने घर से भाग निकले. सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान के मुताबिक भीमसेन जोशी का कहना था, अगर गाना गाना है तो ऐसे ही गाए’. मतलब उस्ताद करीम खान साहब की तरह. उस्ताद करीम खान के अलावे उनके भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खान और उनकी दो बेटियाँ हीराबाई बड़ोदकर और रौशनआरा बेगम किराना घराने के चर्चित गायक रहे हैं.   

कैराना गाँव में 1873 में जन्मे करीम खान का भी कैराना से विस्थापन हुआ था. उन्हें मैसूर के महाराज ने रियासत में दरबार के गायक के रूप में नियुक्त किया. कर्नाटक संगीत की दुनिया में इस तरह से करीम खान साहब ने हिंदुस्तानी संगीत को प्रतिष्ठित किया. वे खुद कर्नाटक संगीत में भी पारंगत थे. यूँ उनके शिष्य पूरे भारत में रहे पर महाराष्ट्र और बंगाल में उन्होंने अपना काफी समय गुजारा था. पंडित सवाई गंधर्व (उस्ताद करीम खान के शिष्य और भीमसेन जोशी के एक गुरु),  भीमसेन जोशी, गूंगूबाई हंगल, फिरोज दस्तूर, फैयाज अहमद खान, प्रभा आत्रे आदि ने किराना घराने की गायकी को ही अपनाया.

इसी घराने के फैयाज अहमद खान की गायकी बाजू बंद खुल खुल जाए सुन कर प्रसिद्ध गायक केएल सहगल उनके शिष्य बन गए और बाद में उसे एक फिल्म में गाया भी था. उन्होंने राग झिंझोटी में उस्ताद करीम खान के गाए पिया बिन नाहीं आवत चैन भी गाया था.

किराने घराने के गायकों की मौसिकी ही उनके लिए इबादत थी, जहाँ हिंदू-मुस्लिम का राजनीति विभाजन मिट गया. चर्चित कवि मंगलेश डबराल लिखते हैं: असली कैराना संगीत का कैराना है, भाजपा के बेशर्म सांप्रदायिक झूठों और अफवाहों का नहीं.

कैराना ने महजबी राजनीति से दूर संगीत के सुरों को पूरी दुनिया में पहुँचाया. पर इस तरह के झूठ और अफवाहों से कैराना कैसे बचा रह सकता है? क्या मुजफ्फरनगर बचा रहा, क्या अयोध्या बचा रहा? आलोक धन्वा अपनी कविता में पूछते हैं:


क्या लाहौर बच रहा है?
वह अब किस मुल्क में है?
न भारत में न पाकिस्तान में
न उर्दू में न पंजाबी में
पूछो राष्ट्र निर्माताओं से
क्या लाहौर फिर बस पाया?

Saturday, June 11, 2016

सफर में समांतर सिनेमा

पिछले दिनों जब मैंने अपने गुरु प्रोफेसर वीर भारत तलवार से पूछा कि इस बीच आपने कौन-सी फिल्म देखी, तो मुस्कराते हुए उन्होंने कहा कि इन दिनों काफी अच्छी फिल्में बन रही हैं. फिर उन्होंने अलीगढ़का जिक्र किया था. हिंदी सिनेमा जहां अस्सी के दशक के बॉलीवुड को काफी पीछे छोड़ चुका है, वहीं पिछले दशक में अन्य भारतीय भाषाओं में भी लगातार कई अच्छी फिल्में आई हैं. ऐसा नहीं कि बॉलीवुड में फार्मूलाबद्ध, मसाला फिल्में नहीं बन रही हैं. एक दर्शक वर्ग के लिए इन फिल्मों का अपना सांस्कृतिक-सामाजिक महत्त्व है. लेकिन पिछले दशक में कई नए निर्देशकों ने परंपरागत तौर पर फिल्मी कहानियों से इतर अपनी फिल्मों में भारतीय समाज के यथार्थ को नए सिरे से पकड़ने की कोशिश की है. एक तरह से इसे सत्तर के दशक में विकसित समांतर सिनेमा का विस्तार कहा जा सकता है. यह अनायास नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल आज के निर्देशक अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, गुरविंदर सिंह की प्रशंसा करते थे.

पच्चीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के साथ भूमंडलीकरण भारत में अपने पांव पसार रहा था, तब लोगों को इस बात की चिंता सता रही थी कि कहीं हॉलीवुड और बॉलीवुड का बाजार क्षेत्रीय फिल्मों के विकास को रोक न दे. लेकिन भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीक की उपलब्धता और सुगमता ने क्षेत्रीय फिल्मों को भी अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित होने का मौका दिया हैक्षेत्रीय सिनेमा ने स्थानीयता की धुरी पर मजबूती से खड़े होकर राष्ट्रीय-भूमंडलीय दर्शकों तक अपनी पहुंच बनाई है. इस बाबत विभिन्न शहरों में बने मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की भूमिका को भी रेखांकित किया जाना चाहिए. साथ ही कुछ युवा निर्देशकों-कलाकारों की सृजनशीलता और जज्बा भी सराहनीय है. इन दिनों मराठी, पंजाबी, मलयालम, कन्नड़ आदि भाषाओं में बनी फिल्में राष्ट्रीय स्तर पर सराही जा रही हैं. पिछले वर्ष युवा निर्देशक चैतन्य ताम्हाणे की फिल्म कोर्टको भारत की ओर से आधिकारिक रूप से ऑस्कर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था. इसी तरह, 2011 में सलीम अहमद निर्देशित एक मलयाली फिल्म एडामिंते माकन अबू’ (अबू, आदम का बच्चा) को भी ऑस्कर के लिए भेजा गया था. चर्चित लेखक गुरुदयाल सिंह की कहानी पर आधारित और गुरविंदर सिंह निर्देशित अन्हे घोड़े दा दानको 2011 में बेहतरीन निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन और उसके दमन के इर्द-गिर्द रची गई गुरविंदर की फिल्म चौथी कूटको इस बार भी पंजाबी भाषा में राष्ट्रीय पुररस्कार से सम्मानित किया गया

यानी कि सिनेमा के परदे पर क्षेत्रीयता की ऐसी धमक मौजूद है, लेकिन लगता है कि दिल्ली की जनता को इन फिल्मों से कोई खास लेना-देना नहीं है. पिछले दिनों मैंने अनु मेनन निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह-कल्कि कोचलिन अभिनीत वेटिंगफिल्म देखी. प्रेम, बिछोह, दर्द और इंतजार को लेकर दो पीढ़ियों की अपनी समझ-नासमझ को फिल्म में जीवंत बना दिया गया है. लेकिन एक मशहूर सिनेमा हॉल में पहले दिन इस फिल्म के एक शो में बमुश्किल पंद्रह लोग थे. इसी तरह राम रेड्डी की राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित चर्चित कन्नड़ फिल्म तिथिको देखने के लिए एक शो में पच्चीस-तीस से ज्यादा दर्शक सिनेमा हॉल में मौजूद नहीं थे. जबकि कर्नाटक के एक गांव में केंद्रित कड़वे यथार्थ और हास्य बोध से भरी इस फिल्म की अंतरराष्ट्रीय जगत में भी खूब सराहना हुई है. बिना किसी स्टार के गैर पेशेवर कलाकारों ने जिस तरह से इस फिल्म में अभिनय किया है, वह किसी भी फिल्म के कला पक्ष पर विचार करने वाले समीक्षक को चौंकाता है. इसमें तो सेट, कैमरा, ध्वनि संयोजन वगैरह भी इस फिल्म को लीक से अलग ले जाकर खड़ा करता है. इसी तरह, अभी तक आर्थिक रूप से सबसे सफल मराठी फिल्म सैराटकी भी खूब चर्चा हुई. लेकिन दिल्ली में दर्शकों की पहुंच सीमित रही.

असल में पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में सिनेमा के प्रदर्शन, विवेचन-विश्लेषण की परंपरा में कमी आई है. युवाओं के बीच लीक से हट कर बन रही फिल्मों का प्रचार-प्रसार ज्यादा नहीं हो पाता है. गौरतलब है कि पिछले दशक में दिल्ली में ओसियान फिल्मोत्सव ने दर्शकों को देश-विदेश, क्षेत्रीय सिनेमा की अच्छी फिल्मों को देखने का एक मंच दिया था. मगर 2008 में आई आर्थिक मंदी का असर इस समारोह पर भी पड़ा और इसे बंद करना पड़ा. मैंने 2005 में पहली मराठी फिल्म श्वासदेखी थी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. ‘श्वासको 2004 में ऑस्कर के लिए भी भारत की ओर से नामांकित किया गया था. इस तमाम क्षेत्रीय सिनेमा की सिनेमाई भाषा काफी अलहदा है. ये फिल्में अपने कथ्य और कहन में साफगोई और सहजता के लिए जानी जाती है. चिंता की बात यह है कि अगर इन फिल्मों की पहुंच एक बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं हुई, तो कहीं वे अपने उद्देश्य में समांतर सिनेमा की तरह ही पिछड़ न जाएं! 
(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित, 11 जून 2016)