राज्यसभा टीवी पर ‘मीडिया
मंथन’ नाम
से एक रोचक कार्यक्रम आता है, जिसके एंकर हैं हिंदी
के वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश. शनिवार (22 Oct) को प्रसारित हुए इस
कार्यक्रम का विषय था ‘मीडिया
में विज्ञापन या विज्ञापन में मीडिया’. विषय काफी मौजू और
समकालीन पत्रकारिता की चिंता के केंद्र में है.
पर
कार्यक्रम देख कर काफ़ी निराशा हुई. उम्मीद थी कि मंथन से कुछ निकलेगा, लेकिन निकला वही ढाक के
तीन पात! हिंदी में जो इन दिनों मीडिया विमर्श है वह मंडी, दलाल स्ट्रीट, दुष्चक्र जैसे जुमलों
के इधर-उधर ही घूमता रहता है. इसी तरह उर्मिलेश और जो कार्यक्रम में मौजूद गेस्ट
थे इसी विमर्श के इर्द-गिर्द अपने विचारों को परोसते रहे, जो कि अंग्रेजी विमर्श
में कब का बासी हो चला है. उर्मिलेश भी अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि ‘ बाज़ार के दुष्चक्र से
मीडिया की मुक्ति नहीं’. ‘वह अभिशप्त है’. वगैरह, वगैरह.
विमर्श
की चिंता के केंद्र में यह था कि ‘विज्ञापन और ख़बर के
बीच अब कोई फर्क नहीं बचा है’. ‘पत्रकारिता के सामाजिक
सरोकर बिलकुल ख़त्म हो गए हैं.’ पेड न्यूज, एडवरटोरियल इन दिनों
ख़बरों पर हावी है, आदि.
सवाल
बिलकुल जायज है और यह स्थापित तथ्य है कि पेड न्यूज़, एडवरटोरियल मीडिया की
विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न बन कर खड़े हैं. और इस पर कई वरिष्ठ पत्रकार, शोधार्थी पिछले दशक से
लिखते रहे हैं, बहस-मुबाहिसा
करते रहे हैं
पर
कार्यक्रम के दौरान इन सारे सवालों, बहस के बीच कोई आंकड़ा
नहीं था (पहले कितना रेशियो विज्ञापन और खबर का था जब आठ-दस पेज का अखबार होता था, और आज 20-25
पेज
के अखबार में क्या रेशियो है). कोई स्रोत नहीं थे.
1953 में ही संपादक अंबिका प्रसाद वाजपेयी विज्ञापन को समाचार पत्र की
जान कह रहे थे. और हिंदी समाचार पत्रों के विज्ञापन के अभाव में निस्तेज होने का
रोना रो रहे थे. 1954 में पहले प्रेस कमीशन ने अखबारों में बड़ी पूंजी के प्रवेश की बात
स्वीकारी थी. पर इसका लाभ अंग्रेजी के अखबारों को मिलता रहा.
उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद ही
भारतीय भाषाई अखबार विज्ञापन उद्योग से जुड़ कर लोगों तक ठीक से पहुंच सके. रौबिन
जैफ्री ने अपने लेखों में विस्तार से इसे रेखांकित किया है, सेवंती निनान इसे हिंदी
की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार कहती हैं. जाहिर है इस पुनर्विष्कार में
विज्ञापन, पूंजीवादी
उद्योग के उपक्रम तकनीक की प्रमुख भूमिका थी. मैंने भी अपनी किताब ‘हिंदी में समाचार’ में विस्तार से
रेखांकित किया है कि किस तरह भूमंडलीकरण के बाद हिंदी के अखबार जो अंग्रेजी के
पिछलग्गू थे, एक
निजी पहचान लेकर सामने आए हैं.
पर
अपनी बहस में उर्मिलेश ना तो इस भाषाई मीडिया ‘क्रांति’ की चर्चा करते है, ना ही अखबारों, चैनलों के
प्रचार-प्रसार से आए लोकतंत्र के इस स्थानीय, देसी रूप को
देखते-परखते हैं. साथ ही विज्ञापन की इस बहुतायात मात्रा से परेशानी किसे है? पाठकों-दर्शकों को कि
मीडिया के विमर्शकारों को? क्या
कोई सर्वे है कि असल में पाठक-दर्शक विज्ञापन चाहते हैं या नहीं. यदि हां, तो कितना विज्ञापन
उपभोक्ता चाहते हैं? हम
एक कंज्यूमर सोसाइटी (उपभोक्ता समाज) में रह रहे हैं, ऐसे में विज्ञापन की
भूमिका को एक नए सिरे से देखने की जरूरत है, महज 'शोर' कह कर हम इसे खारिज़
नहीं कर सकते.
जब
पच्चीस रुपए का अख़बार पाँच रुपए में मिल रहा हो, ज्यादातार मीडिया हाउस
का कारोबार घाटे में हो, ऐसे
में विज्ञापन पर निर्भरता स्वाभाविक है. पर हिंदी में मीडिया मंथन इसे एक ‘इच्छाशक्ति से बदलने’,
‘organic approach (?)’ को बढ़ावा देने से आगे किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा. यह
विमर्श मीडिया को पूंजीवाद की महत्वपूर्ण इकाई मानने से ही परहेज करता प्रतीत होता
है. इसके विश्लेषण के औजार पत्रकारिता के वही गाँधीवादी, शुद्धतावादी कैनन है (गाँधी विज्ञापन के प्रति काफी सशंकित थे. वे अपने पत्रों में विज्ञापन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते थे, 99 प्रतिशत विज्ञापन को पूरी तरह से बकवास मानते थे) जो
आज़ादी के साथ ही भोथरे हो गए थे.
(जानकी पुल पर प्रकाशित)
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