हिंदुस्तान
टाइम्स में एक ख़बर पढ़ी कि उमर खालिद ने हिरासत में पुलिस से सिगरेट और अख़बारों
की मांग की. पता नहीं इस ख़बर में कितनी सच्चाई है, पर मुझे हिंदी के चर्चित कवि आलोकधन्वा की कविता की
पंक्तियाँ याद हो आई:
'सरकार ने
नहीं--इस देश की सबसे
सस्ती सिगरेट ने
मेरा साथ दिया'
आलोकधन्वा ने जब
1972 में इन पंक्तियों को लिखा, वह दौर अलग था.
आजादी के बाद जवान हुई उस पीढ़ी के कुछ सपने थे. युवाओं मेंराज्य और सत्ता के
प्रति आक्रोश था. समाज के प्रति एक प्रतिबद्धता थी. खुद आलोकधन्वा नक्सलबाड़ी
आंदोलन से जुड़े हुए थे.
सपने तो उदारवाद
के दौर में पली-बढ़ी हमारी पीढ़ी के भी हैं, समझदारी भी है, पर प्रतिबद्धता खो गई है. हम सब अपनी दुनिया, ईएमआई की किस्तों और शबो रोज़ हो रहे तमाशे में उलझे हुए
हैं.
बहरहाल, उमर का साथ सरकार तो नहीं ही दे रही है,
उसे सिगेरट भी मयस्सर नहीं! जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया, उमर खालिद और अन्य छात्रों पर देशद्रोह का आरोप
है. वे पुलिस हिरासत में हैं.
60 के दशक के
आखिरी सालों में जब जेएनयू की स्थापना हुई थी, तब पेरिस और यूरोप के अन्य देशों के विश्वविद्यालय के युवा
छात्र राज्य और सरकार की नीतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे. वियतनाम के खिलाफ
अमेरिकी सरकार के युद्ध के विरोध में छात्र सड़कों पर थे. एक तरह से जेएनयू की
जन्मकुंडली में संघर्ष, समाज के हाशिए के
प्रति एक न्यूनतम सरोकार और सक्रियता लिखी हुई थी. इन वर्षों में जेएनयू के
छात्रों ने कैंपस के अंदर और बाहर इस परंपरा को एक हद तक निभाया भी है.
शुक्रवार को संसद
में हुए बहस के दौरान जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष सीताराम येचुरी और देवी
प्रसाद त्रिपाठी ने बखूबी याद किया कि किस तरह आपातकाल के दौरान जेएनयू का
छात्रसंघ भूमिगत रहते हुए भी इंदिरा गाँधी की दमनकारी नीतियों और सत्ता के बरक्स
प्रतिरोध का एक प्रमुख केंद्र बना रहा. छात्रसंघ अध्यक्ष त्रिपाठी समेत कई छात्र
मीसा के तहत गिरफ्तार किए गए थे.
प्रसंगवश,
वर्ष 2012 में निर्भया के बलात्कारियों के
खिलाफ कैंपस के बाहर सड़कों पर जेएनयू के छात्र इस लड़ाई को लेकर उतरे. धीरे-धीरे
दिल्ली और फिर मीडिया के मार्फत पूरे देश में यह लड़ाई फैली. शायद पहली बार ऐसा
हुआ है कि एक जघन्य बलात्कार के खिलाफ रोष और आंदोलन में छात्रों ने अग्रणी भूमिका
निभाई. बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के उन्होंने अपनी आवाज़ देश और देश के बाहर
पहुँचाई थी.
जेएनयू देश के
सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में से एक है. नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रीडेशन कौंसिल
(NACC) ने इसे देश के
विश्वविदयालयों में सबसे उत्कृष्ट ग्रेड से नवाजा है.
हालांकि, इन दिनों कैंपस में लगे तथाकथित देश विरोधी
नारों की वजह से जेएनयू चर्चा में है. चारो तरफ सत्य और अर्ध सत्य से भरी
जानकारियाँ फैली हुई है. यह महज सोशल नेटवर्किंग साइट पर ही नहीं है, बल्कि कई ज्ञानी, बुद्धिजीवी, नेता भी इस तरह
के कुप्रचार में सलंग्न है.
सरकार और उसकी
मशीनरी, जिसमें कुछ मीडिया घराने
भी हैं, इस आग को हवा देन में लगी
है. गृहमंत्री एक फर्जी ट्विट के आधार परजेएनयू के छात्रों का संबंध आतंकवाद से
जोड़ते हैं, देशद्रोही कहते
हैं. शिक्षामंत्री झूठ का पुलिंदा संसद में लहराती है और भावुक होकरगलतबयानी करती
हैं. प्रधानमंत्री रात में इस झूठी तकरीर को ट्विटर पर शेयर करते हैं. 'सत्यमेव जयते' लिखते हैं. यहाँ तथ्य और सत्यके बीच कोई संबंध नहीं होता.
सरकार झूठ गढ़ती है. मीडिया उसका प्रसार करती है. भक्त वाह, वाह करते हैं!
युवा वर्ग हर दौर
में स्वप्नजीवी होता है. उनके सपने होते हैं. समाज, व्यवस्था और खुद से लड़ने का जज्बा किसी से भी ज्यादा होता
है. आदर्श और यर्थाथ के बीच लड़ाई भी इसी दौर में चलती रहती है. विश्वविद्यालय का
कैंपस इन सपनों, संघर्षों और
शिक्षा के लिए एक आदर्श भूमि होती है. जाहिर है, छात्रों को विश्वविदयालयों में सीखने (जिनमें उनकी
मूर्खताएँ भी शामिल हैं), विचारों को एक
सान देने, वाद-विवाद-संवाद की एक
प्रक्रिया से गुज़रने का मौका मिलना ही चाहिए. बिना इसके विश्वविद्यालय ज्ञान सृजन
का केंद्र बने नहीं रह सकते हैं. जेएनयू कैंपस विचारों के इस खुलेपन और
लोकतांत्रिक स्पेस के कारण ही देश-दुनिया में अपनी पहचान बना पाया है.
संभव है कि
युवाओं के सपनों में कुछ भ्रांतियाँ भी हो. पर राज्य उस पर अपनी सारी शक्तियों के
साथ दमन नहीं करता. जेएनयू में लगे
तथाकथित नारों (इसमें कुछ बाहरी लोग भी शामिल थे जिनकी शिनाख्त अभी तक नहीं हो पाई
है) की निंदा कैंपस, कैंपस के बाहर और
संसद में हुई. छात्रसंघ ने भी अगले दिन ही पर्चा निकाल खुद को इस कार्यक्रम से दूर
कर इन नारों की भर्त्सना की थी. हालांकि
देश के सभी जाने माने न्यायविद इस बात पर एक मत हैं कि जेएनयू में लगाए गए तथाकथित
नारे देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आते.
यहाँ पर इस वाकये
का जिक्र जरूरी है, प्रसंग और वर्ष
भले ही सुदूर इतिहास के हो. वर्ष 1933 में
ऑक्सफोर्ड यूनियन, अंडर ग्रेजुएट
डिबेटिंग सोसाइटी, ने एक प्रस्ताव पास किया कि ‘सदन किसी भी सूरत में राजा और देश के लिए लडाई नहीं लड़ेगा.’
इसी दौर में हिटलर की सत्ता उभार पर थी. ब्रिटेन में सदन के इस प्रस्ताव की व्यापक
आलोचना और अवहेलना हुई. पर गौरतलब है कि
जब 1939 में हिटलर ने ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध घोष किया तब इन्हीं छात्रों ने,
जो इस वाद-विवाद में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था,
देश के लिए प्राणों की आहूति भी दी थी!
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
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