कुछ वर्ष पहले आस्ट्रिया की राजधानी वियना की यात्रा के दौरान मैंने अपने एक
मित्र विवियन से पूछा- तुम्हें अपने शहर के बारे में सबसे अच्छी बात क्या लगती है.
तपाक से उसने कहा था-पब्लिक ट्रांसपोर्ट. वियना और अमूमन पश्चिमी यूरोप के सभी
देशों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सुगम उपलब्धता को देखते हुए मैं उसके जवाब से
चकित नहीं हुआ था. हां, मुझे अपने शहर दिल्ली और बदहाल पब्लिक
ट्रांसपोर्ट की याद ज़रूर आ गई थी!
दिल्ली में एक बार फिर से एक पखवाडे के लिए ऑड-इवन फार्मूला के तहत कारों की
आवाजाही पर बंदिश लगी है. सरकार का कहना है कि दिल्ली में इससे प्रदूषण पर रोक
लगेगी.
ऐसा प्रयोग अरविंद केजरीवाल की सरकार ने जनवरी में भी एक पखवाडे के लिए था.
ऑड-इवन की पहल से दिल्ली में वायु प्रदूषण में कितनी कमी आई, आई भी या नहीं, इस पर
पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों में खासा मतभेद है. आईआईटी दिल्ली, आईआईटी रूड़की के अध्ययन जहाँ मानते हैं कि वायु
प्रदूषण या वायु की गुणवत्ता (एयर क्वालिटी) में कोई खास फर्क नहीं पड़ा. या जो
बदलाव आए वे इतमे नगण्य थे कि उसकी गणना मुश्किल है. वहीं सीएसइ (CSE) की सुनीता
नारायण का मानना है कि प्रदूषण में कमी आई थी. हालांकि उनका कहना है कि ऐसा जनवरी
में वायु की गति और आद्रता की वजह से हुआ था. आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता अलग
संस्थानों के आंकड़े दिखा कर कहते हैं कि निस्संदेह प्रदूषण में कमी आई थी.
ऐसे में दिल्ली की गलियों में रहने वाले चाचा ग़ालिब याद आते हैं: ‘या इलाही ये
माजरा क्या है?’
हालांकि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुद मान रहे हैं कि ‘जितनी अपेक्षा
थी उतनी प्रदूषण में कमी नहीं आई, इससे ट्रैफिक में सुधार जरूर आया था.’ तो क्या माना
जाए कि इस बार सरकार ट्रैफिक में सुधार के लिए ऑड-इवन फार्मूला लागू कर रही है?
पिछले दो दशक में पर्यावरण की देख रेख, उसके प्रति चिंता और चिंतन वैश्विक स्तर पर काफी
मौजू है. इसे जन समर्थन भी मिला है. ऐसे में कोई भी राजनीतिक पार्टी पर्यावरण
मामले पर यह संदेश नहीं देना चाहती है कि वे ‘फेंस के दूसरी तरफ’ है. यहाँ तक
वामपंथी पार्टियाँ भी आज वर्ग संघर्ष की बात कम, पर्यावरण की ज्यादा करती दिखती है.
निस्संदेह दिल्ली सरकार की इस पहल से उसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर
काफी वाहवाही मिली, जिसकी हकदार वो है भी. पर सवाल है कि टू व्हीलर
(दूपहिया वाहनों) पर पर रोक क्यों नहीं है? क्या प्रदूषण सिर्फ और सिर्फ कार की वजह से
दिल्ली में है? जाहिर है पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बदहाली को देखते हुए टू व्हीलर पर रोक लगा कर
सरकार कोई खतरा मोल नहीं ले सकती है. साथ ही मेट्रो की यात्रा के बाद अपने घर तक
पहुँचने के लिए वाहनों की पर्याप्त सुविधा नहीं मिलती है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की
बदहाली के अलावा बात आम आदमी पार्टी के वोट बैंक की भी है! ऐसा लगता है कि दिल्ली
सरकार कारवाले से ज्यादा बे-कारों की चिंता करती है.
इस बात से किसी को इंकार नहीं पिछले दस वर्षों में दिल्ली में मेट्रो के आने
से यातायात में काफी आसानी हुई है. पर हाल के वर्षों में मेट्रो पर दवाब भी बढ़ा
है. यह जुमला चल पड़ा है कि ‘हमने मेट्रो में धक्के खाए हैं!’
जहाँ यूरोप की सड़कों पर कार दिल्ली से ज्यादा दिखाई देती है वहीं साइकिल की
सवारी करते बड़े नेता, प्रोफेसर, सीइओ, छात्र-छात्राएँ भी काफी मिल जाते हैं. दिल्ली
जैसे शहर में साइकिल की सवारी मजबूरी में ज्यादातर प्रवासी मजदूर करते दिखते हैं
या कुछ शौकिया लोग. ऐसा लगता है कि सड़क निर्माण की परिकल्पना करते समय
साहब-बाबूओं को आम लोग दिखते ही नहीं. ऐसा क्यों है कि उनके जेहन में फुटपाथ या
साइकिल लेन बनाने की योजना नहीं आती?
दिल्ली में दो-तीन किलोमीटर की यात्रा आप यदि पैदल करना चाहें तो भी नहीं कर
सकते. लुटियंस दिल्ली को छोड़ दे तो पूरी दिल्ली में फुटपाथ का सख्त अभाव है. अलग
से साइकिल लेन बनाने की बात फिलहाल तो दूर की कौड़ी लगती है. क्या केजरीवाल सरकार
ने पिछले साल भर में इस तरफ कोई कदम उठाया है? क्यों नहीं सरकार दिल्ली में ऐसे रूट की पहचान
करे जहाँ साइकिल लेन बनाना आसान हो, जहाँ फुटपाथ को दुरुस्त कर पैदल चलने वालों के
लिए रास्ता बनाया जा सके. इस तरह की पहल से दिल्ली की आबोहवा पर दूरगामी असर
पड़ेगा.
अरविंद केजरीवाल का कहना है कि यदि इस बार का ऑड-इवन सफल रहा (वैसे सफलता से
उनका क्या मानना है यह स्पष्ट नहीं है) तो वो इसे हर महीने दिल्ली में लागू करने
की सोच रहे हैं. आईआईटी दिल्ली के एमेरिटस प्रोफेसर दिनेश मोहन का कहना है कि वायु
प्रदूषण के स्रोत सिर्फ कार या बस ही नहीं हैं. शहर में अंधाधुध निर्माण कार्य, उद्योग-धंघे और
पावर प्लांट वायु को दूषित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. उनका जोर तकनीक में
सुधार, स्वच्छ ईंधन के
इस्तेमाल को लेकर कड़े नियम और पर्यावरण को लेकर एक मजबूत मानक बनाने पर हैं. साथ
ही वे कहते हैं कि अफरा-तफरी में लिए गए इस तरह के निर्णय से कोई फर्क नहीं पड़ने
वाला जब तक कि इरादा दूरगामी बदलाव पर ना हो.
अरविंद केजरीवाल खुद आईआईटी से पढ़े हुए हैं ऐसा नहीं कि वे प्रोफेसर दिनेश
मोहन की बात नहीं समझते, फिर इस तरह के वक्तव्यों के क्या मानी हैं?
क्या देश के अन्य राजनेताओं की तरह वो भी आम आदमी की परेशानियों से सीधे संवाद
के बरक्स जुमले में बात करने की आदत डाल रहे हैं. या उनकी निगाह दिल्ली की सड़कों
पर कम, लाल किले पर
ज्यादा है?
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
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