(20 नवंबर 1934-19 मार्च 2018) |
बड़े भाई नवीन उनके शिष्य थे और मैं भी उन्हें अपना गुरु मानता रहा, गोकि मेरे जेएनयू
ज्वाइन करने से पहले वे सेंटर (भारतीय भाषा केंद्र) से रिटायर हो चुके थे. पर उनका
सेंटर आना-जाना लगा रहता था. वे इमेरिटस प्रोफेसर थे.
इसी साल जनवरी महीने में प्रगति मैदान में हुए विश्व पुस्तक मेले में केदारनाथ
सिंह राजकमल प्रकाशन के बुक स्टॉल पर बैठे दिखे. मैंने
पाँव ज़मीन पर जमा, उकड़ूँ बैठ अपने मोबाइल से ये तस्वीर ली थी. उनकी कवि
नज़र मुझे परख रही थी.
मैंने नजदीक जा कर प्रणाम किया और फिर अपना परिचय दिया. कहा कि मैं तो आपसे
नहीं पढ़ पाया पर बड़े भाई आपके
शिष्य रहे हैं. हम आपको याद करते रहते हैं. फिर उन्हें बड़े भाई का यह कहा सुनाया
-केदार जी कहते थे कि कविता बिटवीन द लाइंस होती है.'
बड़े बूढ़े की निश्छल हँसी, जो ममत्व से भरी उनकी आँखों में थी, मैंने देखी.
उन्होंने मेरी पीठ ठोकी. हम उन्हें यह तस्वीर भेंट करना चाहते थे. पता चला कि वे
बीमार हैं, अस्पताल में भर्ती हैं. फिर जब पता चला कि वे घर आ गए हैं तो
उनके मोबाइल पर फ़ोन किया जो स्वीच ऑफ था...
वर्ष 2001-02 के दौरान जब मैं आईआईएमसी, जेएनयू कैंपस में छात्र था तब हम पुस्तक मेले
घूमने गए थे. उस दौरान भी राजकमल प्रकाशन के स्टॉल पर बैठे दिखे थे, साथ
में प्रोफेसर नामवर सिंह भी थे. मैं उनके पास गया और पूछा: आपने ऐसा क्यों लिखा है कि ‘यह जानते हुए कि
लिखने से कुछ नहीं होगा, मैं लिखना चाहता हूँ’. मेरे हाथों को छूते हुए उन्होंने कहा- ‘यहाँ इस सवाल का
जवाब नहीं मिल पाएगा, घर आओ’. लेकिन संकोचवश
मैं उनके घर नहीं जा सका, हालांकि इन वर्षों में उनकी कविता से
लगाव बढ़ता ही गया.
एक बार मुझे किसी को ‘प्रपोज’ करना था, काफ़ी उधेड़बुन में था.
क्या पता क्या सोचे, बुरा मान गई तो. फिर केदारनाथ सिंह याद
आए-
‘इन्तज़ार मत करो
जो कहना है कह डालो
क्योंकि हो सकता है
फिर कहने का कोई अर्थ न रह जाय’
वे दिन ‘कुछ इश्क किया, कुछ काम किया’ वाले थे. हम सोचते थे ‘दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए’.
कवि उदय प्रकाश ने उनकी ‘ताल्सताय और
साइकिल’ कविता के प्रसंग में टिप्पणी करते हुए लिखा है कि 'वे
एक उदास गिरगिट से बात कर सकते थे'. मैंने सच में एक कवि को
उदास गिरगिट से बात करते हुए देखा है जो उनके शिष्य भी थे. मैं बात रमाशंकर
विद्रोही की कर रहा हूँ जो शाम को जेएनयू के गंगा ढाबा के कोने में अपनी मंत्र
कविता को बुदबुदाते एक उदास गिरगिट से बात करते हुए मिला करते थे. वे केदार नाथ
सिंह की कविता ‘नूर मियां’ को याद करते थे.
केदारनाथ सिंह की कविता एक साथ गाँव-शहर की यात्रा करती है. मेरे जैसे लोगों
के लिए जो इन दो दुनियाओं के बीच कहीं टिका है, उनकी कविताओं
से संबल, सांत्वना पाता रहा. इस मायने में वे एक विरल कवि थे,
न सिर्फ हिंदी के बल्कि भारतीय भाषाओं के. उनकी एक कविता है ‘जाना’, जिसे
उनके सुधी पाठक आज बहुत शिद्दत से याद कर रहे हैं-
‘मैं जा रही हूँ- उसने कहा
जाओ-मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.’
(द लल्लन टॉप वेबसाइट पर प्रकाशित)
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