पिछले दिनों रूपक शरर निर्देशत
मैथिली फिल्म ‘प्रेमक बसात’ को लेकर दिल्ली में रहनेवाले बिहार के लोगों में काफी
उत्साह था. बहुत दिनों के बाद किसी मैथिली फिल्म को लेकर प्रवासियों में ऐसा
उत्साह दिखा. असल में पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फिल्मों की
धमक बढ़ी है. बॉलीवुड की फिल्मों में भी ‘ग्लोबल’ के बदले ‘लोकल’ पर जोर बढ़ा है. भूमंडलीकरण-उदारीकरण के साथ आयी नयी
तकनीक, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर और नवतुरिया लेखकों-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण
को पुनर्परिभाषित किया है.
जहां कम लागत, अपने कथ्य और
सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी या पंजाबी फिल्में हाल के वर्षों में
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही हैं, वहीं भारतीय
सिनेमा के इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फिल्मों की चर्चा नहीं मिलती.
पाॅपुलर फिल्मों में भी बॉलीवुड
से इतर हिंदी समाज से भोजपुरी फिल्मों की ही चर्चा होती है, जबकि दोनों ही
भाषाओं में फिल्म निर्माण का काम एक साथ ही शुरू हुआ था. जहां वर्तमान में भोजपुरी
सिनेमा एक उद्योग का रूप ले चुकी है, वहीं मैथिली सिनेमा अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो
पायी है.
मिथिला में आजादी के बाद से ही
फिल्मों के प्रति लोगों की दीवानगी रही है, पर एक घोर वितृष्णा का भाव भी रहा है. यह दुचित्तापन
आज भी कायम है.
फिल्म निर्माण-निर्देशन या
अभिनय से जुड़ना आवारगी की श्रेणी में ही आता है! पिछले साल आयी फिल्म ‘अनारकली ऑफ आरा’ के निर्देशक
अविनाश दास से एक इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि ‘दरभंगा में क्या
आप जानते थे कि आप फिल्म बनाना चाहते हैं’, तो उनका जवाब था- ‘हां, लेकिन तब मैंने
किसी को बताया नहीं था. मैं नहीं चाहता था कि लोग मेरे ऊपर हंसें.’
सोचिए, यदि अविनाश दास
ने बताया होता, तो क्या प्रतिक्रिया हुई होती. घर-परिवार, आस-पड़ोस के लोग
हंसते और फिर दुत्कारते- अबारा नहितन (आवारा कहीं का)! यदि आप राष्ट्रीय फिल्म
पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मों की सूची देखें, तो ‘मिथिला मखान’ एकमात्र फिल्म है, जिसे मैथिली भाषा
में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला है.
‘ममता गाबए गीत’ जैसी फिल्म एक अपवाद है, जिसे सिनेमाई
भाषा, गीत-संगीत की वजह से मिथिला के समाज में आज भी याद किया जाता है. इस फिल्म में
महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फिल्म के
शीर्ष गायकों ने आवाज दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. एक गीत
विद्यापति का लिखा भी शामिल था और संगीत श्याम शर्मा ने दिया था.
‘ममता गाबए गीत’ के एक निर्माता केदार नाथ चौधरी ने फिल्म के मुहूर्त
से जुड़े एक प्रसंग में लिखा है कि जब (1964 में) वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले, तो रेणु ने भाव
विह्वल होकर कहा था- ‘अइ फिल्म कें बन दिऔ. जे अहां मैथिली भाषाक दोसर
फिल्म बनेबाक योजना बनायब त हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र
हमर मित्र छथि.’ (इस फिल्म को बनने दीजिये. यदि आप मैथिली में दूसरी
फिल्म बनाने की योजना बनायें, तो मेरे पास जरूर आयें. राजकपूर की फिल्मों के गीतकार
शैलेंद्र मेरे मित्र हैं).
इस फिल्म के निर्माण के आस-पास
ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गये गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फिल्म
बनी. सवाल है कि क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थी? यदि यह फिल्म
मैथिली में बनी होती, तो शायद मैथिली सिनेमा का इतिहास कुछ और होता.
मिथिला अपनी भाषा, साहित्य और
संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, पर आधुनिक समय
में फिल्मों में इस समाज की अनुपस्थिति एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी है. जो
इक्का-दुक्का फिल्में बनी भी हैं, उनमें कोई दृष्टि या सिनेमाई भाषा नहीं मिलती है, जो मिथिला के
समाज, संस्कृति को संपूर्णता में कलात्मक रूप से रच सके.
(प्रभात खबर, 23 दिसंबर 2018 को प्रकाशित)
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