महमूद फारूकी और डारेन शाहिदी |
पिछले दिनों दिल्ली में ‘रिवायत’ नाम से एक लोक उत्सव का आयोजन किया गया. आश्चर्य की बात यह
थी कि इसमें दास्तानगोई को भी शामिल किया गया था. दास्तानगोई नाटकीय अंदाज़ में
कहानी कहने की एक मनोरंजक विधा है. पिछले दशक में जब उर्दू के चर्चित आलोचक और ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ के लेखक शम्सुर्रहमान फारूकी और अदाकार
महमूद फारूकी ने इस विधा में नया रंग भरा तब लोगों की नज़र इस पारंपरिक कला की ओर गई.
मध्यकाल में अमीर हम्ज़ा की दास्तानें
दास्तानगो के बीच काफी पसंद की जाती थी. तिलिस्म और ऐय्यारी कहानियों को रोचक
बनाती थी और सुनने वालों को बांध कर रखती थी. फारूकी ने भी अपनी पहली प्रस्तुति
में दास्तान–ए-अमीर हम्ज़ा के किस्सों में से ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ को ही चुना था. आधुनिक काल में देवकी नंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ की लोकप्रियता ऐय्यारी और तिलिस्म की
वजह से हुई थी, जिसे पढ़ कर पाठकों के ‘होश उड़ जाते थे’ और वे उपन्यास के अगले अंक का बेसब्री
से इंतजार करते थे!
नए अवतार में दास्तानगोई में हम भारत की
सामासिक संस्कृति की झलक पाते हैं.
उर्दू-फारसी की शैली में जब महमूद फारूकी और दारेन शाहिदी ने चर्चित
रचनाकार विजयदान देथा की कहानी-‘चौबोली’ सुनाई तो दर्शकों के सामने भाषा आड़े
नहीं आई. जाहिर है राजस्थानी लोक कहानी ‘चौबोली’ को आधार बना कर 'दास्तान
शहजादी चौबोली' की मंच पर प्रस्तुति होगी तो लोक रंग और राग तो उसमें आएँगे ही. इस
दास्तान में अमरबेल की तरह एक कहानी की डाल पर दूसरी, दूसरी के ऊपर तीसरी,
तीसरी
के ऊपर चौथी कहानी रची-बसी है और दर्शक-श्रोता की उत्सुकता इस बात को जानने में
हमेशा रहती है कि आगे क्या?
नब्बे के दशक के मध्य में एनएसडी के जाने-माने
अदाकार पीयूष मिश्रा भी विजयदान देथा की एक अन्य चर्चित कहानी ‘दुविधा’ (इस पर मणि कौल और अमोल पालेकर ने फिल्म भी बनाई) को मंच पर पेश किया
करते थे, पर नाटकीय अंदाज के बावजूद दास्तानगोई
में नाटकीय साजो-सामान का इस्तेमाल नहीं होता. जहाँ पीयूष मिश्रा हारमोनियम के साथ
मंच पर होते थे, वहीं ‘दास्तान शहजादी चौबोली की’ में
संगीत का इस्तेमाल बिलकुल नहीं था. असल में, दास्तानगोई
में गीत-संगीत का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. संभव है कि आने वाले समय में
दास्तानगो इस प्रयोग को अपनी अदायगी में शामिल करें.
बकौल फारूकी दिल्ली में वर्ष 1928 में मीर बाकर अली की मौत के साथ ही
मुगल काल से चली आ रही दास्तानगोई की संवृद्ध परंपरा समाप्त हो गई. वे आखिर महान
दास्तनागो थे. जामा मस्जिद के आसपास वे दास्तानें सुनाया करते थे. परंपरा के रूप
में एक दास्तनागो बैठकों,
महफिलों और सार्वजनिक जगहों पर लोगों
को किस्से सुनाया करते थे,
लेकिन आजकल दो दास्तानगो प्रस्तुति के
दौरान मौजूद रहते हैं. मंच पर सफेद चादर और मसनद, अंगरखे में दास्तानगो, पानी
पीने के लिए कटोरे और जलती मोमबत्तियां समां बांधने का काम करती है.
हालांकि पंद्रह वर्ष के बाद भी दास्तानगोई लोक
या लोगों के करीब नहीं पहुँच पाई है.
देश-विदेश के महानगरों में साहित्यिक और सांस्कृतिक समारोहों के दौरान ही
ज्यादातर इसे देखने को मिलता है. अच्छी बात यह है कि इस बीच कई युवा कलाकार इस
विधा से जुड़े हैं. जेएनयू में हिमांशु वाजपेयी और अंकित चढ्ढा ने ‘दास्ताने-सेडिशन’ को अनूठे अंदाज में पेश किया था.
जैसा कि कला की हर विधा के साथ होता है, दास्तानगोई भी अपने समय और समाज की
चिंताओं से जुड़ी है. प्रस्तुति के दौरान दास्तानगो राजनीतिक और सामाजिक टिप्पणी
करने से नहीं चूकते जो इस पारंपरिक विधा को समकालीन बनाता है और दर्शकों के साथ
उनका संवाद कायम रहता है.
(प्रभात खबर, 18 अगस्त 2019)
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