इस बार अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार
अमेरिकी नागरिक अभिजीत बनर्जी, एस्थर
डुफलो और माइकल क्रेमर को गरीबी उन्मूलन के लिए किए गए उनके शोध के लिए दिया गया
है. प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा भारत में हुई और वह
प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन
के बाद एमए करने जेएनयू, दिल्ली आ गए थे. चूँकि बनर्जी की जड़ें
भारत में है, इस वजह से उनकी उपलब्धियों पर गर्व
स्वाभाविक है और मीडिया में जेएनयू की खास तौर पर चर्चा है.
वर्ष 2016 से
जेएनयू की चर्चा में नकारात्मक तत्वों का बोलबाला रहा है. इसमें देश की वर्तमान
राजनीति और सोशल मीडिया का भी योगदान है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1969 में जब जेएनयू की स्थापना हुई, देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन का दौर था.
एक तरह से जेएनयू की जन्मकुंडली में ही राजनीतिक सरोकारों और हाशिए पर रहने वाले
समाज के लोगों के प्रति संवेदना का भाव रहा है.
प्रतिष्ठित ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स’ के
बदले जेएनयू में नामांकन उन्होंने क्यों लिया इसे याद करते हुए अभिजीत बनर्जी ने
खुद लिखा है कि ‘जेएनयू की फिजा अलग थी. जेएनयू की
ऊबड़-खाबड़, बेढ़ब खूबसूरती कुछ अलग थी जबकि
डी-स्कूल (दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स) किसी भी दूसरे भारतीय संस्थान की तरह ही
था. खादी कुर्ते में, पत्थरों पर बैठे बहस करते छात्रों में
मैंने खुद को देखा था.’
एक गर्बीली गरीबी और बहस-मुबाहिसा की परंपरा
जेएनयू में आज भी कायम है. वामपंथी रुझान के बावजूद जेएनयू एक लोकतांत्रिक
जगह है.
पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक दुनिया में
लोकतांत्रिक ढंग से बहस-मुबाहिसा के लिए जगह सिकुड़ी है. यह बात ना सिर्फ राजनीति
बल्कि मीडिया के लिए भी सच है. प्रसंगवश, एस्थर
डुफलो के साथ लिखी हाल ही में प्रकाशित उनकी किताब- ‘गुड इकानामिक्स फॉर हार्ड टाइम्स’ में उन्होंने जिक्र किया है कि किस तरह
लोकतंत्र के ऊपर सोशल मीडिया का नाकारात्मक प्रभाव पड़ा है. उन्होंने लिखा है:
इंटरनेट का विस्तार और सोशल मीडिया के विस्फोट से पक्षपातपूर्ण रवैए में बढ़ोतरी
हुई है.’ इस संदर्भ में वे फेक न्यूज और सोशल
मीडिया में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को भी रेखांकित करते हैं जिससे
विचार-विमर्श प्रभावित हुआ है.
वर्ष 2016 में
जब जेएनयू में तथाकथित देश विरोधी नारे लगाने की बात को लेकर सरकार ने छात्र
नेताओं को जेल भेजा तब उन्होंने जोर देकर कहा था देश को जेएनयू जैसे सोचने-विचारने
वाली जगह की ज़रूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर दूर रहना चाहिए. प्रसंगवश, वर्ष 1983 में कुलपति प्रोफेसर पीएन श्रीवास्तव के कार्यकाल के दौरान जब जेएनयू
में छात्र आंदोलन हुआ था तब सैकड़ों छात्रों को तिहाड़ जेल जाना पड़ा. अभिजीत
बनर्जी भी उनमें शामिल थे. हालांकि बाद में सरकार ने सारे आरोप वापस ले लिए थे.
(राजस्थान पत्रिका, 19 अक्टूबर 2019)
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