पिछले साल अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर लिखा था कि भारतीय फिल्म उद्योग का इतिहास हमेशा ‘दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद’ के रूप में लिखा जायेगा. भारतीय सिनेमा के इतिहास में युगों और उनकी प्रवृत्तियों की ठीक ढंग शिनाख्त अभी नहीं हुई है. भले अमिताभ की पीढ़ी के पंसदीदा अभिनेता दिलीप कुमार हैं, लेकिन भारतीय सिनेमा के सबसे चर्चित और लोकप्रिय सितारे की जब बात होगी, तब बिना किसी दुविधा के अमिताभ बच्चन का ही नाम लिया जायेगा. पिछले पचास वर्षों से बॉलीवुड के आकाश में उनकी चमक बरकरार है. यह भी महज एक संयोग ही है कि दादा साहब फाल्के पुरस्कार के 50वें वर्ष में उन्हें यह सम्मान दिया गया.
पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में नेहरूयुगीन आधुनिकता, राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. अमिताभ की सिनेमा-यात्रा का वितान नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि से होते हुए आपातकाल, उदारीकरण-भूमंडलीकरण और नयी सदी में बदलते भारत तक फैला हुआ है. ‘सात हिंदुस्तानी’ (1969) फिल्म से जारी इस सफर में उन्होंने परदे पर विभिन्न किरदारों को जिया और किसी एक छवि में कैद नहीं हुए.
हालांकि, ‘एंग्री यंग मैन’ छवि की चर्चा आज भी होती है. सलीम-जावेद की जोड़ी ने अमिताभ के इस रूप को परदे पर मूर्त किया. ‘दीवार’ (1975) फिल्म का विजय व्यवस्था से विद्रोह करता हुआ, हाशिये पर पड़ा एक आम आदमी है. इस आम आदमी के असंतोष, क्षोभ, हताशा, सपने और मोहभंग को अमिताभ ने स्वर दिया. एक बातचीत में जावेद अख्तर ने कहा है, ‘इसमें आश्चर्य नहीं कि उस समय की नैतिकता यह थी कि यदि आप न्याय की चाहत रखते हैं, तो उसके लिए आपको खुद लड़ाई लड़नी होगी.
’ फिल्म ‘जंजीर’ का पुलिस इंस्पेक्टर ‘दीवार’ में एक स्मगलर बन जाता है. अमिताभ की इस छवि के निर्माण में तत्कालीन राजनीति, सामाजिक व्यवस्था और शहरी मध्यमवर्ग की बड़ी भूमिका थी. विजय ‘एंटी होरी’ बनकर आजादी, न्याय और समानता की अवधारणा को परदे पर पुनर्परिभाषित करता है.
इसी दौर में हिंदी के कवि धूमिल ने अपनी कविता में पूछा था- ‘क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढोता है/ या इसका कोई खास मतलब होता है?’
हालांकि, अमिताभ की फिल्में जब ‘मेलोड्रामा’ और ‘फैंटेसी’ के सहारे यथार्थ को परदे पर रच रही थीं, ठीक उसी समय बांग्ला, मलयालम और हिंदी के समांतर सिनेमा में राजनीतिक सवालों, सत्ता के दमन और आम आदमी के ‘आक्रोश’ की कलात्मक अभिव्यक्ति भी हुई. लेकिन यह सच है कि पॉपुलर और व्यावसायिक सिनेमा का अपना अर्थशास्त्र है, जिसे समांतर सिनेमा के मानकों से नहीं समझा जा सकता.
पूंजीवादी समाज की सांस्कृतिक जरूरतों को बॉलीवुड पूरा करता रहा है, अमिताभ इसके प्रतिनिधि कलाकार हैं. सिनेमा के अध्येताओं ने अमिताभ के 80 के दशक की फिल्मों के प्रसंग में परदे पर ‘दर्शन’ के तत्व को रेखांकित किया है, जैसा कि भगवद् भक्ति में होता है. ‘मैं आजाद हूं’ (1989) फिल्म में यह मसीहाई अंदाज स्पष्ट है. इसी दशक में अमिताभ का ‘स्टारडम’ ढलान पर था और कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट गयीं.
नयी आर्थिक नीतियों के बाद समृद्ध हो रहे भारत में सैटेलाइट और केबल टीवी के माध्यम से टीवी और सिनेमा के बीच एक एक नया संबंध उभरा. ‘कंप्यूटर जी’ से संवाद करते अमिताभ बच्चन रुपहले परदे से उतर कर आम दर्शकों के ड्राइंग रूम में पहुंच गये.
साथ ही पिछले दशकों में व्यावसायिक और समांतर सिनेमा की रेखा भी कुछ धुंधली हुई है. फिल्म ‘ब्लैक’, ‘पा’, ‘पीकू’, ‘पिंक’ आदि फिल्मों में उन्होंने जिस किरदार को जिया है, वह समकालीन समय और संवेदना के बहुत करीब है, जिसकी व्याख्या सत्तर के दशक के परिवेश के परिप्रेक्ष्य में नहीं की जा सकती. ‘मिलेनियल पब्लिक’ और ‘मेलोड्रामैटिक पब्लिक’ दोनों से उनका राब्ता कायम है.
(प्रभात खबर, 20 अक्टूबर 2019)
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