स्मृतियां
अक्सर अनकहे दस्तक देती हैं. कभी किसी बातचीत के बीच या कभी किसी सिनेमा, संगीत के माध्यम से या कई बार
बिना किसी आश्रय के. करीब 23 वर्षीय
युवा अचल मिश्र की मैथिली फिल्म-‘गामक
घर (गांव का घर)’ की
इन दिनों मीडिया में खूब चर्चा है. इस फिल्म में मिथिला में बसे एक गांव की यादें
हैं, जहां से निर्देशक का जुड़ाव है.
इस फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद मेरा भी मन बचपन के दिनों में लौट आया.
पिछले कुछ वर्षों में
बिहार
के बाहर मीडिया में लोक पर्व छठ की खूब चर्चा होती रही है. वहीं छठ के इर्द-गिर्द
ही मिथिला में एक और लोक पर्व- ‘सामा-चकेवा’ भी मनाया जाता रहा है, लेकिन वह अनदेखा रह जाता है.
कार्तिक महीने में छठ के अगले दिन ‘सामा-चकेवा’ की शुरुआत होती है, जो आठ दिनों तक चलती है.
यह
लोक पर्व भाई-बहन के आपसी प्रेम को दिखाता है. इसी मौसम में हिमालय से मैदान की ओर
पक्षियां प्रवास के लिए आते हैं. युवतियां मिट्टी की आकृतियों में विभिन्न
पक्षियों को अपने रंग में रंगती हैं. सामा-चकेवा पक्षियों का स्वागत इस पर्व से
जुड़ा है. लोक गीतों के साथ सामा की विदाई होती है, इस आग्रह के साथ कि वे फिर से लौट
कर मिथिला की धरती पर आयें.
मिथिला
की चर्चित सिक्की कला भी सामा की ‘पौती’ के रूप में दिखायी पड़ती है. मेरे लिए सामा-चकेवा मिथिला
की संस्कृति का एक अहम हिस्सा है, जिसमें मिथिला पेंटिंग, सिक्की कला,
लोक गीतों की झलक है. दूसरे
स्तर पर देखें, तो
प्रकृति के साथ मनुष्य के सहज संबंधों की अभिव्यक्ति भी इस लोक पर्व में मिलती है.
जब
से गांव-घर छूटा है, मैंने
इस पर्व को मनाते हुए नहीं देखा. ‘दिल्ली-एनसीआर’ में तो इसकी चर्चा भी नहीं होती,
जहां मिथिला समाज का एक
बहुत बड़ा वर्ग रहता है. बहरहाल, मेरा एक दोस्त कहता है, ‘यार, शाम होते ही आजकल तुमपे उदासी क्यों
छाने लगती है.’ मैं
उसके जवाब में ‘नहीं
तो’ कह
कर उसकी बात को टालने की कोशिश करता हूं. मैं ‘होमसिक’
कभी नहीं रहा,
लेकिन अक्सर इस मौसम में
शाम ढलते-ढलते एक अजीब सी ‘नॉस्टेल्जिया’ मेरे अंदर घर करने लगती है.
जेएनयू
के दिनों में मेरे हॉस्टल के कमरे की बालकनी में ठीक सामने एक बरगद का पेड़ था और
टेरेस पर एक झुरमुट पीपल. इन पेड़ों पर हर साल प्रवासी पक्षियों के झुंड आते थे.
नवंबर आते ही मैं इनका इंतजार करता था. मुझे नहीं पता होता कि ये किस देश से आते
थे.
वियोग
में होते थे या प्रेम में? निर्वासन की पीड़ा झेल रहे थे या सैर-सपाटे के मूड में. या
किसी सहचर की खोज में भटक रहे थे? कवि उदय प्रकाश ने ‘नींव की ईंट हो तुम दीदी’ शीर्षक कविता में लिखा है- हमारा
क्या है दिदिया री!/ हारिल हैं हम तो/ आयेंगे बरस दो बरस में कभी/ दो-चार दिन
मेहमान-सा ठहर कर/ फिर उड़ लेंगे. ‘गामक घर’ एक रूपक है, हम जैसे ‘हारिलों’ के लिए.
प्रभात खबर, 30 अक्टूबर 2019
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