हिंदी फिल्मों
में गीतों को एक अहम मुकाम हासिल है. पर क्या यही बात गीतकारों के बारे में कही जा सकती है? 70 के दशक के चर्चित गीतकार योगेश (1943-2020) भरी महफिल से चुपचाप उठ कर चले
गए, बिना किसी आवाज के. सच तो यह है कि भले ही उनके गीत लोगों की जुबान पर रहे, पर वे वर्षों पहले ही विस्मृति में धकेल दिए गए थे.
उन्हें फिल्मी दुनिया में वह जगह हासिल
नहीं हो सकी, जिसके वे हकदार थे.
'जिंदगी कैसे है पहेली' या 'कहीं दूर जब दिन
ढल जाए' जैसे गाने सुनते
ही हमें सुपरहिट फिल्म 'आनंद' और
सुपरस्टार राजेश खन्ना-अमिताभ बच्चन की याद आती है. जिंदगी के फलसफे को इन सीधे-सादे शब्दों में ढालने वाले योगेश ही थे, जिनका पूरा नाम योगेश गौर था. सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में तैयार हुए इन गीतों ने उन्हें संगीत प्रेमियों के बीच
मकबूलियत दी थी. असल में गीतकार शैलेंद्र के गुजरने के बाद एक जो खालीपन था उसे योगेश के भावपूर्ण गीतों से भरने की एक उम्मीद जगी थी. उनके गीतों में शैलेंद्र
की तरह ही आस-पास के जीवन के अनुभव व्यक्त हुए. इसी दौर में निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी की फिल्में शहरी मध्यवर्गीय
जिंदगी के इर्द-गिर्द बुनी गई, जिसे योगेश के गीतों का भरपूर सहयोग मिला था. बात ‘मिली’ फिल्म की हो ‘रजनीगंधा’ की या ‘छोटी सी बात’ की. योगेश के शब्दों ने उसमें जादू भर दिया था, जो सुनने वालों के दिलों को बेधता रहा. 'आए तुम याद मुझे' जैसे गाने में रोमांस
और नॉस्टेलजिया एक साथ मिलता है. इसी तरह 'रजनीगंधा फूल तुम्हारे महके यूँ ही जीवन में' या 'कई बार यूँ ही देखा है’ जैसे गाने उस दौर के युवा प्रेमियों के जीवन दर्शन, कश्मकश को बिना किसी बनावट के हमारे सामने लेकर आया. ये गाने वही लिख सकता है जिसने जीवन और उसकी
पेचीदगियों को देखा और जिया हो.
उल्लेखनीय है कि कि 'कई बार यूँ ही देखा है' गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. लता मंगेशकर ने भी योगेश
के लिखे कई गानों को स्वर दिया था. उन्होंने श्रद्धांजलि देते हुए याद किया कि 'योगश जी बहुत
शांत और मधुर स्वभाव के इंसान थे.' इसी स्वभाव के चलते 80 के दशक में जिस तरह की तड़क-भड़क हिंदी फिल्मों के
गीत-संगीत के क्षेत्र में देखने को मिली वे खुद को अनफिट पाते रहे. हालांकि उस दौर में बॉलीवुड में जो गुटबाजी
थी इसके भी वे शिकार हुए, पर उन्होंने कभी गिला-शिकवा व्यक्त
नहीं किया.
बाद के वर्षों
में भी कुछ गाने उन्होंने लिखे थे लेकिन उसमें 70 के दशक के योगेश की छाप नहीं
दिखी. वर्ष 2017 में हरीश व्यास की फिल्म 'अंग्रेजी में
कहते हैं' के भी कुछ गाने
उन्होंने लिखे थे, जो उनकी आखिरी
फिल्म थी. उन्हें वर्ष 1962 में आई फिल्म ‘सखी रॉबिन’ फिल्म के
गाने- तुम जो आ जाओ तो प्यार आ जाए' से ब्रेक मिला था, जिसे मन्ना डे और
सुमन कल्याणपुरे ने स्वर दिया.
पचपन साल के
फिल्मी कैरियर में योगेश के लिखे गानों की फेहरिस्त भले ही उनके समकालीन गीतकारों
जितनी लंबी नहीं हो, पर जो भी गीत
उन्होंने लिखे वे धरोहर के रूप में हमारे पास हमेशा रहेंगे. जब भी सावन की फुहारें
पडेंगी हम गुनगुना उठेंगे- ‘रिमझिम गिरे सावन सुलग सुलग जाए मन’ बिना यह महसूस किए कि इसे योगेश ने लिखा था!
(प्रभात खबर, 31 मई 2020)
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