कोरोना वायरस
के संक्रमण की रोकथाम को लेकर दुनिया भर में युद्ध स्तर पर कोशिश की जा रही है. इस वायरस के वैक्सीन की खोज भी जारी है. हालांकि 'लॉकडाउन' के बीच समाज में सूचनाओं का जाल भी चारों ओर फैला हुआ है. सही सूचनाएँ जहाँ
आम लोगों की दुश्चिंताएँ कम करती हैं, वहीं इंटरनेट
और सोशल मीडिया के माध्यम से फैलने वाले दुष्प्रचार लोगों की परेशानियाँ बढ़ाने का
कारण बनते हैं. इस महामारी से बचाव के लिए जहाँ विशेषज्ञों की टीम के माध्यम से
सही सूचनाएँ लोगों तक पहुँचती है, वहीं बेबुनियाद और अवैज्ञानिक समाधान
से भी सूचना संसार अंटा पड़ा है. साथ ही, हाल ही में जिस तरह
से लॉकडाउन के बीच कई जगहों पर प्रवासी कामगारों की भीड़ उमड़ी, वह चिंताजनक
है. इसी तरह से दुष्प्रचार, फेक न्यूज की वजह से लोगों में समान खरीद कर घरों में जमा
करने की होड़ भी दिखी. सामाजिक सौहार्द के बदले इस महामारी को सांप्रदायिक रंग
देने की कोशिश भी मीडिया के कुछ हिस्से में देखने को मिला है.
कोरोना
महामारी के बीच इस तरह के दुष्प्रचार को ‘इंफोडेमिक’ कहा जा रहा
है. शब्दकोष में यह शब्द अभी जगह नहीं पा सका है, पर वर्ष 2002-3 में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिन्ड्रोम (सार्स) वायरस के फैलने के दौरान
पहली बार इस शब्द की चर्चा हुई थी. शाब्दिक अर्थ
में इसे ‘सूचना महामारी’ कह सकते हैं-
सूचनाओं की अधिकता जो दुष्प्रचार, अफवाह की शक्ल लेती है. महामारी से लड़ने में, समाधान
ढूंढ़ने में यह बाधा बन कर खड़ी हो जाती है. लोगों
में भय का संचार भी इससे होता है. मानवीय भय और असुरक्षा के बीच सही सूचनाएँ एकजुटता
को बनाए रखती हैं, जो इस महामारी से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है. संयुक्त
राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने हाल में कहा कि ‘हमारा साझा
दुश्मन कोविड-19 है, लेकिन
दुष्प्रचार के माध्यम से जो ‘इंफोडेमिक’ फैला है वह
भी दुश्मन है.’ इसी बात को डब्लूएचओ के महानिदेशक टेडरोस गेब्रेयसस ने भी
कहा कि ‘हम ना सिर्फ महामारी से लड़ रहे हैं बल्कि इंफोडेमिक से भी
लड़ रहे हैं.’ असल में लोगों का विश्वास हासिल कर ही सरकार और स्वास्थ्य
एजेंसियाँ इस महामारी के रोकथाम का उपाय कर सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने
भी अपने संबोधन में नागरिकों से सहयोग की बार-बार अपील की है.
समाज के
विकास की अवस्था के साथ ही संचार की तकनीकी और माध्यम का भी विकास होता रहा है.
औपनिवेशिक शासन के दौरान रिसाले, हरकारे, डाक, भाट आदि
खबरों, सूचनाओं के प्रसार का माध्यम होते थे. फिर अखबारों की
दुनिया से गुजरते हुए हमारा समाज रेडियो और टेलीविजन जैसे जनसंचार के माध्यम तक
पहुँचा. भूमंडलीकरण के साथ हम एक बड़े
सूचना समाज का हिस्सा बन गए हैं. समकालीन समाज में सूचना और तकनीक हमारे जीवन का
अंग है. इंटरनेट के माध्यम से फैली सोशल मीडिया हमारी संस्कृति का हिस्सा बन चुकी
है. पिछले दशक में जिस तेजी से सोशल मीडिया की पहुँच बढ़ी है वह अखबार, टेलीविजन
जैसे मीडिया के मुकाबले अप्रत्याशित कही जा सकती है.
प्रसंगवश, इतिहासकार
रंजीत गुहा ने एक अध्ययन में नोट किया है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान किसान विद्रोहों और सिपाही विद्रोह को सत्ता सरकारी कागजातों में ’महामारी’ के रूप में
देख रही थी. यहाँ महामारी सत्ता के नजरिए से एक अलग अर्थ की व्यंजना करती है, जिसमें
किसानों की सामूहिक उद्यमों की नकार है. वे लिखते हैं कि इन विद्रोहों के प्रसार
में अफवाहों की एक बड़ी भूमिका थी. उस समय में हमारे समाज में शिक्षा का प्रसार
बेहद कम था और खबरों के प्रसार की गति बहुत ही धीमी थी. वर्तमान समय में इंटरनेट
के माध्यम से पलक झपकते ही सूचनाएँ मीलों की दूरी तय कर लेती है. जाहिर है खबर की
शक्ल में मनगढंत बातें, दुष्प्रचार, अफवाह आदि
समाज में पहले भी फैलते रहते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैं, बारीक फर्क
है.
ऐसी खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता ना हो
फेक न्यूज कहलाता है. इस तरह की खबरों की मंशा सूचना या शिक्षा नहीं होता है बल्कि
समाज में वैमनस्य फैलाना, लोगों को भड़काना होता है. लोगों के व्यावसायिक हित के
साथ-साथ राजनीतिक हित भी इससे जुड़े होते हैं. समाज में तथ्यों के सत्यापन की
संस्कृति का अभाव भी इसके लिए जिम्मेदार है.
सच यह है कि कोई भी तकनीक इस्तेमाल करने वालों पर निर्भर करती है. दुष्प्रचार फैलाने
का जिम्मा भी उन्हीं लोगों पर है, जो तकनीक का
इस्तेमाल संचार के लिए कर रहे हैं.
इंफोडेमिक के लिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों के सिर दोष मढ़ा जा रहा है. पर ‘लॉकडाउन’ के बीच घर से काम करने के दौरान, स्कूली शिक्षा के लिए सूचना की नई तकनीक और सोशल मीडिया मुफीद साबित हो रहे हैं. साथ ही अखबार और टेलीविजन जैसे पारंपरिक जनसंचार के माध्यमों से जुड़े पत्रकार इंटरनेट के प्लेटफार्म का इस्तेमाल खबरों के संग्रहण और प्रसारण में कर रहे हैं, जो एक हद तक दुष्प्रचार को रोकने में सहायक है.
इंफोडेमिक के लिए सोशल मीडिया जैसे माध्यमों के सिर दोष मढ़ा जा रहा है. पर ‘लॉकडाउन’ के बीच घर से काम करने के दौरान, स्कूली शिक्षा के लिए सूचना की नई तकनीक और सोशल मीडिया मुफीद साबित हो रहे हैं. साथ ही अखबार और टेलीविजन जैसे पारंपरिक जनसंचार के माध्यमों से जुड़े पत्रकार इंटरनेट के प्लेटफार्म का इस्तेमाल खबरों के संग्रहण और प्रसारण में कर रहे हैं, जो एक हद तक दुष्प्रचार को रोकने में सहायक है.
(प्रभात खबर, 7 मई 2020)
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