Sunday, June 28, 2020

छोटी फिल्में, बातें बड़ी: अखोनी


बॉक्स ऑफिस के आंकड़ो का दबाव बॉलीवुड के फिल्मकारों को प्रयोग करने से हमेशा रोकता रहा है. अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक अपवाद हैं. ऐसे में ‘ओवर द टॉप’ वेबसाइट (नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉट स्टार आदि) प्रयोगशील फिल्मकारों के लिए एक उम्मीद बन कर उभरे हैं. सबटाइटल के माध्यम से दुनिया भर के दर्शकों तक एकसाथ फिल्मों की पहुँच ने फिल्मकारों को नए विषय-वस्तु को टटोलने की ओर प्रवृत्त किया है. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई लेखक-निर्देशक निकोलस खारकोंगोर की ‘अखोनी’ ऐसी ही फिल्म है, जिसमें नस्लवाद जैसे संवेदनशील विषय को मनोरंजक अंदाज में चित्रित किया गया है.


यह फिल्म उत्तर-पूर्वी राज्यों के युवाओं और उनकी खान पान की संस्कृति के इर्द-गर्द घूमती है. फिल्म के केंद्र में ‘अखोनी’ (एक प्रकार का फरमेंटेड सोयाबीन जो उत्तर-पूर्वी राज्यों में पाया जाता है और खाने में जिसका प्रयोग किया जाता है) का तीव्र गंध है. आस्कर पुरस्कार से सम्मानित बहुचर्चित दक्षिण कोरियाई फिल्म ‘पैरासाइट’ में गंध समाज में व्याप्त वर्ग विभेद को सामने लेकर आता है जबकि इस फिल्म में गंध के माध्यम से नस्लीय भेदभाव से हम रू-ब-रू होते हैं.

फिल्म दक्षिणी दिल्ली के हुमायूंपुर इलाके में अवस्थित है जहाँ रंग और रूप के आधार पर ‘आत्म’ और ‘अन्य’ का विभेद स्पष्ट है. एक दोस्त की शादी के अवसर पर ‘अखोनी पोर्क’ व्यंजन की तैयारी और उसे पकाने के लिए एक ‘सुरक्षित जगह’ की तलाश की जद्दोजहद असल में दिल्ली जैसे महानगर में युवा प्रवासियों के लिए सपनों के ठौर की तलाश भी है. ‘अखोनी’ के गंध के साथ घर से बिछुड़ने की पीड़ा और स्मृतियों का दंश भी लिपटा हुआ चला आता है.

हिंदी फिल्मों में उत्तर-पूर्वी राज्यों की संस्कृति का चित्रण गायब है. अगर कोई किरदार नजर आता है, तो वह अमूमन स्टीरियोटाइप होता है. शिलांग में पले-बढ़े निकोलस खारकोंगोर इन राज्यों की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को चित्रित करने में सफल रहे हैं. फिल्म में एक दृश्य है जहाँ मित्र अपने परिचितों-संबंधियों से फोन पर जिस भाषा में बात करते हैं वह कमरे में मौजूद एक-दूसरे के लिए अबूझ है. सयानी गुप्ता और डॉली अहलूवालिया जैसे कलाकारों के साथ इस फिल्म में ज्यादातर किरदार उत्तर-पूर्वी राज्यों से ही हैं.

कोरोना महामारी के बीच रंग और रूप के आधार पर भेदभाव की प्रवृत्ति और बढ़ गई है. यह जहाँ भारतीय समाज मे व्याप्त पाखंड और पूर्वाग्रहों को हमारे सामने लेकर आता है, वहीं राज्यसत्ता पर भी सवाल खड़े करता है. हुमायूंपुर जैसे शहरीकृत गाँव (अर्बन विलेज) का चयन फिल्म की विषय वस्तु के हिसाब से सटीक है. यह इलाका उत्तर-पूर्वी राज्यों और अफ्रीकी नागरिकों के लिए सस्ता रिहाइश है जहां विभिन्न भाषाओं-संस्कृतियों के बीच खान-पान के अड्डों के माध्यम से आदान-प्रदान होता रहता है.

दिल्ली में अवस्थित होने के बावजूद इस फिल्म में ना तो लाल किला है, ना ही इंडिया गेट. कैमरा हुमायूंपुर और आस-पास की गलियों तक ही सीमित है जो सामाजिक यथार्थ के बेहद करीब है.

(प्रभात खबर, 28 जून 2020)

Sunday, June 14, 2020

लेखक का सिनेमा 'गुलाबो सिताबो'

फिल्म भले ही निर्देशक का माध्यम हो, पर शूजित सरकार और जूही चतुर्वेदी की जोड़ी में लेखन अलग से उभर कर आता रहा है. ‘विक्की डोनर’, ‘पीकू’ और ‘अक्टूबर’ फिल्म में दर्शकों ने इसे खूब सराहा था. ‘गुलाबो सिताबो’ फिल्म में एक बार फिर से  शूजित सरकार-जूही चतुर्वेदी की जोड़ी दर्शकों से मुखातिब हैं. फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद जूही चतुर्वेदी ने लिखा है.
‘गुलाबो सिताबो’ देखते हुए यह ख्याल मन में आता रहा कि ‘स्लो रीडिंग’ की तरह ‘स्लो व्यूइंग’ की चर्चा समीक्षक क्यों नहीं करते हैं? दो साल पहले रिलीज हुई ‘अक्टूबर’ फिल्म भी बॉलीवुड के मानकों के हिसाब से काफी धीमी फिल्म थी. हालांकि जहाँ ‘अक्टूबर’ सुगम संगीत की तरह लय में सजी थी, वहीं ‘गुलाबो सिताबो’ में लय गायब है. फिल्म के नाम में जो कोमलता और धुन है वह उभर कर नहीं आ पाई है. उल्लेखनीय है कि फिल्म का नाम उत्तर प्रदेश की कठपुतली लोक कला से प्रेरित है. फिल्म के शुरुआत में गुलाबो सिताबो कठपुतली के खेल को दिखाया गया है- ‘गुलाबो खूब लड़े है, सिताबो खूब लड़े है.’
 इस लोक कला को आधार बना कर लखनऊ की एक हवेली के मालिक मिर्जा नवाब (अमिताभ बच्चन), किराएदार बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) और अन्य पात्रों के आपसी संबंधों, नोंक-झोंक के माध्यम से सामाजिक संबंधों के ताने-बाने को सामने लाने की कोशिश की गई है. ‘घाघ’ और ‘शुतुरमुर्ग’ के बीच लखनवी बोली-बानी में होने वाले नोंक-झोंक का एक द्रष्टा हवेली भी है, जो फिल्म के केंद्र में है. ढहती-ढनमनाती हवेली अपनी चुप्पी में अपनी दास्तान कहती प्रतीत होती है. विसंस्कृतीकरण के इस दौर में क्या यह लखनऊ की संस्कृति का रूपक है? फिल्म की सिनेमैटोग्राफी इसे व्यक्त करने में सफल है. दूसरे स्तर पर यह फिल्म स्त्री-पुरुष के बदलते संबंधों पर भी रोशनी डालती है.
निर्देशक ने इस फिल्म को ‘हास्य-व्यंग्य’ कहा है. दर्शकों के अंदर हास्य का संचार करने के लिए काफी मेहनत भी की गई है, पर निर्देशक पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं. फिल्म में पुरातत्व का प्रसंग और नेहरू की चर्चा वर्तमान राजनीतिक बहस-मुबाहिस पर भी एक टिप्पणी करती प्रतीत होती है. अदाकार विजय राज एक जगह कहते भी हैं: हम सरकार हैं, हमें सब पता है.’
फिल्म लखनऊ शहर में अवस्थित है, जहाँ की जूही चतुर्वेदी हैं. लेकिन फिल्म इस शहर को उस रूप में छायांकित नहीं कर पाई है जिस रूप में कभी फिल्म निर्देशक बासु चटर्जी बंबई और उसकी रोजमर्रा के मिजाज को अपनी फिल्मों में चित्रित करते रहे. फिल्म अपने संवाद के लिए आने वाले वर्षों में अलग से रेखांकित की जाएगी. बेहद सहज अंदाज में कभी ‘चचा’ तो कभी ‘बुढ़उ’ या ‘बे’ का संबोधन हिंदुस्तानी भाषा की अपनी शब्द शक्ति को सामने लेकर आता है. इसी तरह ‘घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने’ जैसी लोकोक्ति बरबस ध्यान आकर्षित करती है. आयुष्मान खुराना और अमिताभ बच्चन जैसे सितारों के बीच विजय राज, बिजेंद्र काला, फारुख जफर और सृष्टि श्रीवास्तव जैसे कलाकार अपनी अदाकारी में सफल रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि कोरोना महामारी के बीच बड़े बजट और सितारों से सजी यह पहली हिंदी फिल्म है जो बॉक्स ऑफिस पर रिलीज नहीं हुई. इसे अमेजन प्राइम पर रिलीज किया गया है. इस फिल्म को लेकर जहाँ सोशल मीडिया में काफी उत्सुकता थी, वहीं मल्टीप्लेक्स के मालिकों और वितरकों में काफी रोष था. क्या यह फिल्म आने वाले समय में हिंदी फिल्मों के प्रसारण का नया रास्ता दिखाएगी या महामारी के बाद फिर से बड़े परदे पर सितारों की महफिल सजेगी? 

(प्रभात खबर, 14.06.2020)

Tuesday, June 09, 2020

संघर्ष की छवियाँ


आधुनिक हिंदी साहित्य में शुरुआती दिनों से ही किसानों, कामगारों और मजदूरों की संघर्षमयी छवि दिखाई देती रही है. प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन का साहित्य इसके दृष्टांत हैं. पर कुछ कहानियों के लिए साहित्य पर्याप्त नहीं होते. समकालीन समय में फोटोग्राफी इसके लिए माकूल है. तस्वीरें ना सिर्फ हमारे समय को ‘रिकार्ड’ कर रही होती हैं, बल्कि यह ऐतिहासिक साक्ष्य भी बन कर हमारे सामने आती है.


इसलिए मीडिया में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि एक तस्वीर हजार शब्दों के बराबर होती है. दक्षिण अफ्रीकी फोटो पत्रकार केविन कार्टर की वर्ष 1993 में सूडान में भूखमरी से जूझते एक बच्चे और गिद्ध की फोटो की चर्चा आज भी होती है. इस फोटो के लिए उन्हें बहुचर्चित पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मजदूरों के मामले में सुनवाई हुई तो उस फोटो का गलत ढंग से जिक्र किया. हालांकि बाद में इसकी तीखी आलोचना भी हुई.

सच यह है कि कोरोना महामारी के दौरान पिछले कुछ महीने में प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें मीडिया के माध्यम से आईं, वे महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए है. इन तस्वीरों ने देखने के हमारे नजरिए को बदल कर रख दिया है. ये आम छवियाँ नहीं है, जिसे चौबीस घंटे टीवी चैनल और सर्वव्यापी मोबाइल फोन के दौर में हम देखते रहते हैं. यह पीड़ा के साथ-साथ मानवीय जिजीविषा, करुणा और संघर्ष की तस्वीरें भी हैं. ये राष्ट्र-राज्य के निर्माण में हाशिए पर रहने वाले मजदूरों की भूमिका और राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी को भी अपने जद में समेटे हुए है.

कुछ दृश्य राष्ट्र की सामूहिक चेतना में लंबे समय के लिए अंकित हो जाते हैं. देश विभाजन, महात्मा गाँधी की हत्या, भोपाल गैस कांड की तस्वीरें आदि इसी श्रेणी में आती हैं. पर हाल में महानगरों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों के जिस हृदय विदारक दृश्य को दुनिया ने देखा है, उसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. रोजी-रोटी औऱ सिर छिपाने के ठौर छिन जाने के बाद माथे पर गठरी और गोद में बच्चों को लिए सड़कों पर भूखे-प्यासे पैदल चलते इन्हें दुनिया ने देखा. दिल्ली, मुंबई, सूरत से बिहार, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, तेलंगाना में स्थित अपने गाँव-घरों को पहुँचने को बेसब्र, ट्रकों में लदे, साइकिल-ऑटो से हजारों मीलों की दूरी तय करते कामगारों या मजदूरों की तस्वीरें आने वाले समय में हमें उद्वेलित करती रहेंगी. पर क्या यह सच नहीं है कि शहरी समाज के हाशिए पर रहने वाले ये कामगार, मजदूर हमारे बीच रह कर भी हमारी आँखो से ओझल थे? यदा-कदा किसी हादसे की खबर के साथ ही वे हमसे रू-ब-रू होते थे.

देश के अर्थशास्त्री जहाँ मजदूरों के लिए शहरों में बेहतर सुविधा बहाल करने की बात कर रहे हैं, ताकि फिर से उन्हें वापस बुलाया जा सके, वहीं लोक कल्याणकारी राज्य की दुहाई देने वाले राजनेताओं के पास कोई मुकम्मल जवाब नहीं है. एक बात तय है कि विकास के दावे और जीडीपी के आँकड़ों के बीच बेबसी की ये यथार्थ तस्वीरें हमारी सामूहिक विफलता की इबारत लिख गया है. साथ ही उदारीकरण के बाद नई आर्थिक व्यवस्था पर भी यह सवाल खड़े कर गया है. अर्थशास्त्रियों ने इस बात को लगातार रेखांकित किया है कि उदारीकरण के साथ समाज में आर्थिक विषमता की खाई और भी गहरी हुई है.

किसी भी तरफ हम नज़र दौड़ा लें, यह खाई और ज्यादा साफ दिखने लगी है और सत्ता का व्यवहार भी समर्थ वर्गों के प्रति ज्यादा नरम दिखने लगा है. हालांकि यह कोई नई बात नहीं है कि सत्ता समर्थ तबकों के हित में बिना किसी संकोच के काम करती है. लेकिन सत्ता के शासन के दायरे में खुद को नागरिक मानने वाले लोगों के भीतर अपनी नजर डालने की उम्मीद हो आती है तो यह भी गलत नहीं है. लेकिन सत्ता का रुख और व्यवहार ही तय करता है कि किसी समाज में शासितों की स्थिति मानवीय होगी या नहीं!

कवि केदारनाथ अग्रवाल ने बंगाल में अकाल के दौरान लाखों लोगों की विवशता और लाचारी को देखते हुए लिखा था: 'बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर/ धर्म, धीरज प्राण खोकर/ हो रही अनरीति बर्बर, राष्ट्र सारा देखता है.' वह औपनिवेशिक भारत के दौर की बात थी, जिसमें भूख से और राजनैतिक अक्षमता की वजह से लाखों लोगों की मौत हुई थी. पर आजाद भारत में कामगारों, मजदूरों की छवियाँ राष्ट्र और दुनिया के सामने हमारी बेबसी और विषमता को दिखाती है. गुरुग्राम से साइकिल पर एक दुर्घटना में घायल अपने पिता को दरभंगा लाने वाली ज्योति की बात हो या सूरत से ट्रक पर अपने घर को लौट रहे बीमार अमृत को सहारा देने वाले याकूब की. उल्लेखनीय है कि अमृत की बीच रास्ते में मौत हो गई. अमृत की तरह ही इस दुस्साहसिक यात्रा को कई मजदूर पूरा नहीं कर पाए.

इन कामगार और मजदूरों की आँखों में व्यवस्था से विद्रोह के भाव नहीं थे, एक विवशता और लाचारी थी. वे वहीं लौट जाना चाहते थे जहाँ की मिट्टी ने उन्हें बनाया है. सोशल मीडिया में वायरल हुई एक तस्वीर में केरल के एर्नाकुलम से राँची स्पेशल ट्रेन से उतरे कुछ कामगार, मजदूरों ने सबसे पहले जमीन को माथे से लगाया. इस मर्मभेदी दृश्य की शब्दों में व्याख्या संभव नहीं है.

(जनसत्ता, 9 मई 2020)