Monday, August 31, 2020

सहिष्णुता और स्वतंत्रता का सवाल: मी रक़्सम


इस महीने के आसिफ निर्देशित ‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म ने अपने प्रदर्शन के साठ साल पूरे किए. ऐतिहासिकता के आवरण में ‘मुगल-ए-आजम’ सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और अकबर की छवि में नेहरू युगीन धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को सामने लेकर आया. इस फिल्म में अनारकली अकबर के दरबार में जन्माष्टमी के अवसर पर कथक प्रस्तुत करती है-‘मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे’. हाल ही में जी5 ऑनलाइन वेबसाइट पर रिलीज हुई फिल्म ‘मी रक्सम’ देखते हुए इस फिल्म के दृश्य और नृत्य की छवियाँ मेरे मन में उमड़ती-घुमड़ती रही.

‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म को सिनेमा के अध्येताओं ने मुस्लिम संस्कृति के निरूपण के लिए भी अलग से रेखांकित किया है. मुस्लिम समाज और संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली फिल्मों को सुविधा के लिए ‘मुस्लिम सोशल’ संज्ञा से नवाजा गया. जहाँ साठ-सत्तर के दशक में आई ‘मुगल-ए-आजम’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘मेरे महबूब’, ‘पाकीजा’ आदि फिल्मों में मुस्लिम प्रभुवर्गों की संस्कृति, राजा-नवाबों की जीवन शैली को परदे पर दिखाया गया, वहीं दूसरे छोर पर ‘गर्म हवा’, ‘बाजार’, ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’, ‘नसीम’ आदि फिल्में हैं जिसमें मुस्लिम मध्यवर्ग की अस्मिता, समस्या, सांप्रदायिकता आदि का चित्रण है. उदारीकरण के बाद देश की बदलती सामाजिक परिस्थितियों और हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार ने ‘मुस्लिम सोशल’ को बॉलीवुड में हाशिए पर धकेल दिया. मुस्लिम किरदार तो हिंदी फिल्मों में नज़र आते हैं, पर इन्हें ‘मुस्लिम सोशल’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.
‘मी रक्सम’ एक ऐसी फिल्म है जिसमें निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार के जीवन और संघर्ष का चित्रण है. इसे बाबा आजमी से निर्देशित किया है और शबाना आजमी ने प्रस्तुत किया है. बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म है. इस फिल्म की कहानी स्कूल जाने वाली एक लड़की मरियम के अपने पिता के साथ रिश्ते और भरतनाट्यम नृत्य सीखने की जद्दोजहद के इर्द-गिर्द घूमती है. एक मुस्लिम लड़की के भरतनाट्यम सीखने को घर-परिवार और समाज के लोग ‘बुतपरस्ती’ और मजहब के खांचे में बांट कर देखते हैं. पर जैसा कि फिल्म में एक संवाद है- ‘सवाल डांस का नहीं है. सवाल जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने का है.’
इस फिल्म में भी ‘सलीम’ का किरदार है, पर वह एक दर्जी है. अपनी बेटी के ख्वाबों को पूरा करने के लिए वह कोई कसर नहीं छोड़ता और मजहब के नाम पर द्वेष फैलाने वालों के मंसूबे को सफल नहीं होने देता है. सलीम का किरदार गंगा-जमुनी तहजीब को मुखर रूप से व्यक्त करता है.
फिल्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव के आस-पास अवस्थित है. मिजवां के दृश्य मोहक हैं. यह कैफी आजमी की जन्मस्थली भी है. बकौल बाबा आजमी एक बार कैफी आजमी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या तुम कोई फिल्म मिजवां में शूट कर सकते हो?’ एक तरह से यह फिल्म शबाना आजमी और बाबा आजमी का अपने पिता और मशहूर शायर के जीवन दर्शन के प्रति श्रद्धांजलि है.
धर्मनिरपेक्षता, इसके स्वरूप और राष्ट्र-राज्य के साथ संबंधो को लेकर इन दिनों विद्वानों के बीच काफी बहस हो रही है. इन बहसों के बीच यह फिल्म एक सार्थक सांस्कृतिक हस्तक्षेप है. दानिश हुसैन और अदिति सुबेदी का अभिनय अत्यंत स्वाभाविक है. छोटी सी भूमिका में भी नसीरूद्दीन शाह प्रभावशाली हैं. खास कर पिता-पुत्री के आपसी संबंधों के दृश्य और संवाद मर्म को छूती है. हालांकि फिल्म कहीं-कहीं उसी स्टिरियोटाइप में उलझती हुई दिखती है, जिसकी फिल्म में आलोचना की गई है.

(प्रभात खबर, 30 अगस्त 2020)

Sunday, August 02, 2020

लोक कला की संघर्ष चेतना: मिथिला पेंटिंग

मिथिला या मधुबनी पेंटिंग एक बार फिर से चर्चा में है. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर मधुबनी शैली में बने मास्क की तस्वीरें खूब साझा की गईं, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने ‘मन की बात’ प्रसारण में नोटिस लिया. उन्होंने कहा ‘ये मधुबनी मास्क एक तरह से अपनी परंपरा का प्रचार तो करते ही हैं, लोगों को स्वास्थ्य के साथ रोजगार भी दे रहे हैं.’ कोरोना महामारी के दौरान जिस तरह मिथिला पेंटिंग पुनर्नवा हुई है, वह इस पेंटिंग की जीवंतता का प्रमाण है.

सच तो यह है कि जब वर्ष 1934 में ब्रिटिश अधिकारी डब्लू जी आर्चर ने इस लोक कला को देखा-परखा, वह इस क्षेत्र में आए भीषण भूकंप की त्रासदी के बाद ही संभव हुआ. वे मधुबनी में अनुमंडल पदाधिकारी थे. राहत और बचाव कार्य के दौरान उनकी नज़र क्षतिग्रस्त मकानों की भीतों पर बनी रेल, कोहबर वगैरह पर पड़ी. मंत्रमुग्ध उन्होंने इन चित्रों को अपने कैमरे में कैद कर लिया. फिर जब उन्होंने ‘मैथिल पेंटिंग’ नाम से प्रतिष्ठित ‘मार्ग’ पत्रिका में लेख लिखा तब दुनिया की नज़र इस लोक कला पर पड़ी थी. हालांकि उन्होंने इस कला के लिए ‘फोक (लोक)’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था. बाहरी दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन साठ के दशक में दिखाया गया है, पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया जाता रहा है. पहले इसे ‘बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था.

बाद में अखिल भारतीय हस्त शिल्प बोर्ड, दिल्ली के चित्रकार भास्कर कुलकर्णी ने इस चित्रकला को परखा और प्रोत्साहित किया. उन्होंने साठ के दशक में मधुबनी जाकर निकट के गाँव रांटी, जितवारपुर आदि के पाँच स्त्री कलाकारों को पेंटिग के लिए चुना था. पद्म श्री से सम्मानित रांटी की महासुंदरी देवी ने वर्ष 2012 में मुझे बताया था कि “1961-62 में भास्कर कुलकर्णी ने मुझसे कोहबर, दशावतार, बांस और पूरइन के चित्रों को कागज पर बना देने के लिए कहा. कागज वे खुद लेकर आए थे. करीब एक वर्ष बाद वे इसे लेकर गए और मुझे 40 रुपए प्रोत्साहन के रूप में दे गए.” महासुंदरी देवी ने भास्कर कुलकर्णी के लिए आठ चित्र और बनाए थे. उन्होंने कहा था कि शुरुआत में घर वाले इन चित्रों के बदले मिलने वाले पैसे को अच्छी निगाह से नहीं देखते थे पर धीरे-धीरे स्थिति बदलती गई. सर्वविदित है कि इस कला में शुरुआती दिनों से परंपरा के रूप में ब्राह्मण और कायस्थ परिवार की स्त्रियों की सहभागिता रही. बाद में इस पेंटिंग में दलित महिलाओं का भी योगदान रहा और कचनी, भरनी शैली से इतर गोदना शैली की उपस्थिति दर्ज हुई.

वर्ष 1965-66 के दौरान बिहार में भीषण अकाल पड़ा था. भास्कर कुलकर्णी ने मिथिला क्षेत्र की महिलाओं को कागज पर चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया ताकि आमदनी के स्रोत के रूप में यह कला विकसित हो सके. फिर जगदंबा देवी, गंगा देवी, सीता देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी और गोदावरी दत्त जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से देश और दुनिया का परिचय हुआ. कालांतर में पद्मश्री सहित इन्हें देश के अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया. मिथिला चित्रकला की लोक चेतना संघर्ष की चेतना है और यही वजह है कि जहाँ देश की अन्य लोक और जनजातीय कलाएँ सिमटती गई, मिथिला पेंटिंग अपनी रंगों की विशिष्टता और विषय-वस्तु में अभिनव प्रयोग से देश-दुनिया के कलाप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल रही है.


(प्रभात खबर, 2 अगस्त 2020)