पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान टेलीविजन के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि हम उम्मीद करें कि कोई साहित्यकार हमारे समय की त्रासदी को शब्द देगा. साहित्य शब्दों के जरिए मानवीय भावों, प्रेम, हिंसा, सुख-दुख, पीड़ा, त्रासदियों को वाणी देता रहा है. यही वजह है कि कोरोना महामारी के दौरान अल्बैर कामू के चर्चित उपन्यास-प्लेग, की बार-बार चर्चा होती रही है. लोग इस महामारी को ‘प्लेग’ के मार्फत समझने की कोशिश करते दिखे. प्रसंगवश, इस उपन्यास में एक पात्र रेमंड रैंबर्ट पत्रकार के रूप में मौजूद हैं!
साहित्य भोगे हुए जीवन को रचता है, पर वह जीवन नहीं है. और कोई भी
कहानी जीवन से बढ़ कर नहीं हो सकती है. हालांकि कोरोना महामारी के दौरान खबरनवीस
अपनी जान पर खेल कर भी खबर दे रहे हैं, हमें इस आपदा की
कहानियों से रू-ब-रू करवा रहे हैं. महामारी से लड़ने में जनसंचार की अहमियत और
केंद्रीयता को सब स्वीकार करते हैं. सही सूचनाएँ जहाँ आम लोगों की दुश्चिंताएँ कम
करती हैं, वहीं दुष्प्रचार लोगों की परेशानियाँ बढ़ाने
का कारण बनते हैं. जनसंचार के माध्यमों का इस्तेमाल जिस रूप में कोरोना महामारी के
दौर में हो रहा है उसका सम्यक अध्ययन अभी बाकी है.
बहरहाल, ऐसा लगता है समकालीन घटनाक्रम को संवेदनशील ढंग से सामने रखने
के लिए साहित्य पर्याप्त नहीं होता. आधुनिक समय में इसके लिए मीडिया माकूल है.
यहाँ पर यह जोड़ना उचित है कि पारंपरिक मीडिया के अलावे सोशल मीडिया की भी इसमें
प्रमुख भूमिका है. सूचना क्रांति के बाद मीडिया के अभूतपूर्व प्रसार ने छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों को भी केंद्र से जोड़ दिया है. आज हम सब एक बड़े नेटवर्क
का हिस्सा हैं. साथ ही तकनीकी ने देश और काल के फासले को कम कर दिया है. यही वजह
है कि दिल्ली में बैठा हुआ कोई शख्स दरभंगा में किसी जरूरतमंद को मदद पहुँचा पा
रहा है. दिल्ली में बैठा हुआ कोई पत्रकार अमेरिका या लंदन में बैठे महामारी और लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों से बिना
किसी दिक्कत के सलाह-मशविरा करने में कामयाब हैं. इस आपदा ने संपूर्ण मानवता को जिस तरह प्रभावित किया है और संचार तकनीकी
का इस्तेमाल कर जिस रूप में इससे लड़ा जा रहा है, मीडिया
गुरु मार्शल मैक्लूहन की ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा प्रासंगिक हो उठती है. इस महामारी
में मानवीय त्रासदी को हम-सब एक-साथ देख रहे हैं, भोग
रहे हैं. एक अनिश्चितता और भय सब तरफ व्याप्त है. पर जैसा कि वीरेन डंगवाल ने लिखा
है: हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है/ हर कठिनाई कुछ
राह दिखा ही देती है.
कोराना महामारी की विचलित करने वाले दृश्य (तस्वीरें) हमारी संवेदना
को झकझोरने में, उद्वेलित करने में प्रभावी हैं. सड़कों पर, अस्पतालों में, घरों में बेबसी की तस्वीरें
मुख्यधारा और सोशल मीडिया के हवाले से हमारी चेतना का अंग बनी है और हम एक-दूसरे
के दुख और शोक में शरीक हैं.
इस महामारी में पिछले साल लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें
मीडिया के माध्यम से आईं, वे महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए थी. इन तस्वीरों ने
देखने के हमारे नजरिए को बदल कर रख दिया. यह पीड़ा के साथ-साथ मानवीय जिजीविषा, करुणा और संघर्ष
की तस्वीरें भी थी. साथ ही सामूहिकता और मानवीय सहयोग की
सहज तस्वीरें हम इस आपदा में देख रहे हैं. मीडिया इन दृश्यों के माध्यम से पूरे
राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ रहा है.
कोरोना महामारी के दूसरे वेव में जब प्रतिदिन संक्रमित लोगों की संख्या चार
लाख के करीब है और हताहतों की संख्या चार हजार, कई पेशेवर
पत्रकार भी इससे संक्रमित हो रहे हैं. एक आंकड़ा के मुताबिक पूरे देश में कोराना
महामारी से अब तक करीब सौ पत्रकारों ने अपनी जान गंवाई है. कई पत्रकार आज इस वायरस
से संक्रमित हैं. पेशे के प्रति अपनी दीवानगी में कुछ पत्रकार इस हालत में भी
लोगों के लिए हरसंभव सहायता करते दिखे हैं. सत्ता को कटघरे में खड़े करने में नाकामी और सरकार से सही समय पर सवाल नहीं पूछने की वजह
से मीडिया की आलोचना अपनी जगह सही है, पर निस्संदेह जब
भविष्य में पत्रकारिता और इस महामारी का इतिहास लिखा जाएगा इसे भी नोट किया जाएगा.
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