Sunday, October 10, 2021

मन समंदर में उठती लहरें: कासव


इस हफ्ते मराठी के चर्चित फिल्मकार सुमित्रा भावे-सुनील सुकथनकर निर्देशित ‘कासव’ (2017) फिल्म ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज हुई. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित इस फिल्म के केंद्र में मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) है. बॉलीवुड के फार्मूलों से दूर, ‘मेंटल-जजमेंटल’ के फ्रेमवर्क से बाहर यह फिल्म कछुए (कासव) के रूपक के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक सुरक्षा और परिवार की परिभाषा को खूबसूरती से हमारे सामने लेकर आती है.

यह फिल्म जानकी (इरावती हर्षे) और मानव (आलोक रजवाड़े) के इर्द-गिर्द  घूमती है. मानव एक युवा है जिसके मन में उठ रहे बवंडर की देख-भाल करने वाला कोई नहीं, वहीं जानकी एक अधेड़ उम्र महिला है जो अवसाद से गुजर चुकी है पर बीती स्मृतियाँ उनके मन में अभी भी ताजी है. दोनों के आपसी रिश्तों के माध्यम से हम डिप्रेशन से गुजरने वालों की असुरक्षा, अकेलापन, भय, सहानुभूति और समानुभूति जैसे भावों से परिचित होते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के एक आंकड़ा के मुताबिक करीब 28 करोड़ लोग दुनिया भर में अवसाद से पीड़ित हैं. कहा जा रहा है कि 21वीं सदी में मानसिक बीमारियों की बात करें तो अवसाद दुनिया भर में सबसे ज्यादा लोगों को अपनी जद में लेगा. सही समय पर सहयोग और चिकित्सा सुविधा न मिले तो अवसाद आत्महत्या के रूप में सामने आता है. इस फिल्म की शुरुआत में मानव आत्महत्या की कोशिश करता है, पर वह भाग्यशाली है की उसे जानकी जैसी संवेदनशील स्त्री का साथ मिलता है, एक ऐसा वातावरण मिलता है जहाँ उसके प्रति पूर्वग्रह या दुराग्रह नहीं है. समंदर के नजदीक, प्रकृति के बीच मानव धीरे-धीरे अवसाद से उबरता है. फिल्म में मनोचिकित्सक, अवसाद से उबरने में दवा की भूमिका को रेखांकित किया गया है. 

असल में यह फिल्म सुमित्रा भावे- सुनील सुकथनकर निर्देशित मानसिक स्वास्थ्य को केंद्र में रख कर बनी फिल्मों की त्रयी को पूरा करता है. इससे पहले ‘देवराई (2004)’ और ‘अस्तु (2016)’ का निर्देशन वे कर चुके हैं. जहाँ देवराई के केंद्र में सिजोफ्रेनिया है, वहीं अस्तु फिल्म के केंद्र मे डिमेंशिया/अल्जाइमर (भूलने की बीमारी) है. फिल्म और थिएटर के चर्चित कलाकार और पेशे से मनोचिकित्सक डॉक्टर मोहन आगाशे ‘देवराई’ की तुलना ‘ए ब्यूटीफूल माइंड’ फिल्म से करते हैं. इस फिल्म में चर्चित कलाकार अतुल कुलकर्णी और सोनाली कुलकर्णी हैं.

प्रसंगवश, अस्तु और कासव को मोहन आगाशे ने सह-प्रस्तुत किया है. वे कहते हैं कि मैं प्रोडूसर या बिजनेसमैन नहीं हूँ, पर चूँकि सुमित्रा भावे जिन उसूलों को मानती थीं, उन्हीं पर मैं भी चलता रहा हूँ तो हमने इसे प्रस्तुत करने का निर्णय लिया. वे सिनेमा के दृश्य-श्रव्य शैक्षणिक माध्यम के रूप में इस्तेमाल पर जोर देते हैं. हालांकि वे कहते हैं कि ‘चूँकि मैं इस फिल्म से जुड़ा रहा हूँ इसलिए इस फिल्म के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा.’ अस्तु और कासव में उन्होंने अभिनय भी किया है.

जहाँ कासव के केंद्र में एक युवा है वहीं अस्तु’ फिल्म एक ऐसे पिता के इर्द-गिर्द है जो सारी जिंदगी परिवार के केंद्र में रहने के बाद बुढापे में हाशिए पर है. एक दिन वह अपनी बेटी के साथ बाजार जाता है और एक हाथी को देख कर सवारी करने की उसमें बच्चों सी उत्कंठा जग जाती है. वह हाथी वाले के साथ चला जाता है और बेटी से बिछुड़ जाता है. उसे न अपना भूत याद है न ही वर्तमान. मोहन आगाशे ने खूबसूरती से अल्जाइमर से पीड़ित बुर्जुग की भूमिका निभाई है, जो मर्म को छूती है. उसकी स्थिति एक बच्चे की तरह है. वह समझ ही नहीं पता कि उसके साथ क्या हो रहा है. बेटी जिसे उसने जन्म दिया है अब उसके लिए माँ की तरह है! इस फिल्म को देखते हुए बरबस पिछले साल रिलीज हुई और ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित ‘द फादर’ की याद आ जाती है. ‘द फादर’ में एंथनी हॉपकिंस बार-बार यह सवाल पूछते हैं-व्हाट अबाउट मी?’ इस फिल्म में डिमेंशिया/अल्जाइमर से पीड़ित 83 वर्षीय एंथनी ने जिस खूबसूरती से बीमार व्यक्ति के अंतर्मन को टटोला है वह दुर्लभ है. 


हिंदुस्तान में इन बीमारियों के प्रति लोगों में सूचना और  संवेदना का अभाव है. यदि आप इस बीमारी से पीड़ित किसी व्यक्ति संसर्ग में आए हैं इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि जिस तरह से मोहन आगाशे और एंथनी हॉपकिंस ने किरदार को निभाया है, जिस तरह से फिल्म हमारे सामने उद्घाटित होती है वह अल्जाइमर पर लिखे लेखों और किताबों पर भारी है. यही सिनेमा माध्यम की ताकत भी है. दोनों ही फिल्में बॉलीवुड की फिल्मों में मानसिक स्वास्थ्य के सवाल पर जो स्टीरियोटाइप दिखता है उससे दूर है. 

हालांकि ‘अस्तु’ और ‘द फादर’ फिल्म देखते हुए लगता है कि ये फिल्म जितना बीमार व्यक्ति की परेशानियों के बारे में है, उतनी ही केयर गिवर (देखभाल करने वालों के) के बारे में भी है. उनके मन में खीझ, विवशता, असहायता बोध जैसे भाव एक साथ उभर कर आते हैं. आर्थिक और मानसिक दोनों तरह की परेशानियों को वहन करना परिवारों के लिए आसान नहीं होता. अभी सिनेमा के फोकस में शहरी मध्यवर्गीय परिवार है, उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में निम्नवर्गीय, शहर से दूर लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के सवालों पर भी फिल्मकारों की नजर जाएगी.


(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

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