वर्षों पहले
गुलजार ने कहा था कि ‘सिनेमा वाले मुझे साहित्य का आदमी समझते हैं
और साहित्य वाले सिनेमा का’. साहिर लुधियानवी (1921-1980) के साथ ऐसा
नहीं है. वे सिनेमा और साहित्य दोनों दुनिया में एक साथ समादृत रहे हैं. वे जितने अच्छे शायर थे उतने ही
चर्चित गीतकार. पिछले दिनों अर्जुमंद आरा और रविकांत के संपादन में जनवादी लेखक
संघ की पत्रिका ‘नया पथ’ ने
साहिर लुधियानवी जन्मशती विशेषांक प्रकाशित किया है जो यह इस बात की ताकीद
करता है. खुद साहिर इस बात से वाकिफ थे कि साहित्य क्षेत्र में फिल्मी साहित्य को
लेकर अच्छी राय नहीं है. इसलिए
उन्होंने फिल्मी गीतों के संकलन ‘गाता जाये बंजारा’ की भूमिका
में लिखा है: “मेरा सदैव प्रयास रहा है कि यथासंभव फिल्मी गीतों को
सृजनात्मक काव्य के निकट ला सकूँ और इस प्रकार नये सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण
को जन-साधरण तक पहुँचा सकूं.” साहिर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे और प्रगतिशील
आंदोलन से जुड़े थे. उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर नजर डालने पर यह स्पष्ट हो
जाता है कि वे मजलूमों, मखलूकों के साथ थे अपने काव्य और जीवन
में.
खुद वे अपने ऊपर फैज, मजाज, इकबाल
आदि की शायरी के असर की बात स्वीकार करते थे. इस विशेषांक में अतहर फारुकी ने नोट
किया है कि ‘उर्दू शायरी के
अवामी प्रसार में, यानी अवाम के साहित्यक आस्वादन को बेहतरीन शायरी से परिचित
कराने में साहिर लुधियानवी फैज से भी आगे निकल जाते हैं.’ हो सकता है कि इसमें अतिशयोक्ति लगे पर यह स्वीकार करने में किसी को कोई गुरेज
नहीं होना चाहिए कि उनकी रोमांटिक शायरी फिल्मी गीतों का अंग बन कर, रेडियो,
कैसेट और अब यू-टयूब जैसे माध्यमों से होकर देश और दुनिया के बड़े
हिस्से तक पहुँची.
आजाद हिंदुस्तान के दस साल बाद प्यासा (1957) फिल्म के लिए लिखा उनका गाना
समाज में व्याप्त विघटन और मूल्यहीनता को दर्शाता है, जो
आज भी मौजू है.
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
इसी फिल्म वे पूछते हैं, ‘जिन्हें नाज है
हिंद पर वो कहां हैं’. साहिर ने 1948 में पहला फिल्मी गीत (बदल रही है
जिंदगी, फिल्म-आजादी की राह पर) लिखा और सौ से ज्यादा फिल्मों में
करीब 800 गाने लिखे. उनके इस सफर पर एक नजर डालने पर स्पष्ट है कि
सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ उनके गानों में बखूबी व्यक्त हुई.
हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. गानों के
माध्यम से कहानियाँ आगे बढ़ती है जिसमें किरदारों के मनोभाव व्यक्त होते हैं पर
साहिर, शैलैंद्र जैसे शायर रूपकों, बिंबों के
माध्यम से आजाद भारत के आस-पड़ोस की घटनाओं, देश-विदेश की
हलचलों को भी बयान करते हैं. सच तो यह है कि फिल्मी गानों को आधार बना कर आधुनिक
भारत की राजनीति और इतिहास का अध्ययन किया जा सकता है.
पिछले सदी के साठ का दशक देश के लिए काफी उथल-पुथल भरा रहा था. इसी दशक में
चीन और पाकिस्तान के साथ भारत ने युद्ध लड़ा था. देश के पहले प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू की मौत हुई थी. हरित क्रांति के बीज इसी दशक में बोये गए थे.
निराशा और उम्मीद के बीच साहिर ने आदमी और इंसान (1969) फिल्म में लिखा:
फूटेगा मोती बनके अपना पसीना
दुनिया की कौमें हमसे सीखेंगी जीना
चमकेगा देश हमारा मेरे साथी रे
आंखों में कल का नजारा मेरे साथी रे
कल का हिदुंस्तान जमाना देखेगा
जागेगा इंसान जमाना देखेगा
समाजवादी व्यवस्था का स्वप्न और सामाजिक न्याय साहिर के मूल सरोकार रहे हैं
जिसे संपादक अर्जुमंद आरा ने ‘साहिर के सरोकार’ लेख में रेखांकित किया है. अब्दुल हई साहिर लुधियानवी की प्रसिद्धि
फिल्मी गानों से पहले उनके काव्य संग्रह तल्खियाँ (1944) से फैल चुकी थी. साहिर की
मौत से पहले रिलीज हुई कभी-कभी (1976) फिल्म के गानों ने उनकी शोहरत में और
भी तारे टांके. पैतालिस साल के बाद भी उनका लिखा युवाओं के
लब पर है. --
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँ ही
उठेगी मेरी तरफ प्यार की नजर यूँ ही
मैं जानता हूँ कि तू गैर है मगर यूँ ही...
यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि असल में यह गाना उनके पहले काव्य संग्रह ‘तल्खियाँ’ में संकलित है जिसका सरल रूप गाने में इस्तेमाल किया गया. इस गीत के लिए उन्हें दूसरा फिल्म फेयर पुरस्कार मिला
(पहला फिल्म फेयर पुरस्कार ‘ताजमहल’ फिल्म के गाने ‘जो वाद किया’ के लिए). इस गाने में नॉस्टेलजिया है और बीते जमाने की तस्वीर है. इसे देश में लगे
आपातकाल (1975) की पृष्ठभूमि में भी सुना समझा जा सकता है.
पत्रिका के संपादकों ने बिलकुल ठीक लिखा है कि : साहिर साहब सिर्फ किताबी अदब के नहीं थे, सिनेमा, ग्रामोफोन,
कैसेट और रेडियो के भी उतने ही थे, जितने
मुशायरों और महफिलों के, जितने हिंदी के उतने ही उर्दू के,
जितने हिंदुस्तान के उतने ही पाकिस्तान के, और
जितने कल के उतने ही आज के.”
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
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