Sunday, February 06, 2022

'कन्यादान' के पचास साल

 


पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ दिखी. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए. ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है. मैथिली के चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा (1908-1984) के क्लासिक उपन्यास ‘कन्यादान-द्विरागमन’ पर आधारित और फणि मजूमदार निर्देशित यह फिल्म वर्ष 1971 में रिलीज हुई थी. जहाँ ‘कन्यादान’ का रचनाकाल वर्ष 1933 का है वहीं ‘द्विरागमन’ वर्ष 1943 में लिखी गई थी.


हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मिथिला का सामाजिक यथार्थ इस उपन्यास में व्यक्त हुआ है. विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक युवक, सी सी मिश्रा की शादी एक ग्रामीण अशिक्षित युवती, बुच्चीदाई से हो जाती है. स्त्री शिक्षा की अनदेखी, बेमेल विवाह और दहेज की समस्या इसके मूल में है. फिल्म की पटकथा नवेंदु घोष और संवाद फणीश्वरनाथ ‘रेणु ने लिखे थे. फिल्म से जुड़े कलाकार गोपाल, चांद उस्मानी, लता सिन्हा, तरुण बोस आदि की मातृभाषा मैथिली नहीं थी. पर मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की इस फिल्म में एक प्रमुख भूमिका थी. शूटिंग मुंबई और मिथिला में हुई थी और फिल्म में मैथिली और हिंदी का प्रयोग है. स्त्रियों के हास-परिहास, सभागाछी, शादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेला, गोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म के गीत-संगीत में चर्चित लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था.

जैसा कि आम तौर पर साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्मों के साथ होता रहा है, किताब के लेखक निर्देशक के फिल्मांकन से कम ही संतुष्ट होते हैं. इसका एक कारण तो यह है कि साहित्यकार यह समझ नहीं पाते कि फिल्म में बिंब की भूमिका प्रमुख होती है. जिस रूप में साहित्यकार ने कथा को अपने लेखन में चित्रित किया है, उसी रूप में फिल्म में नहीं ढाला जा सकता है. मसलन ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास का देशकाल आजादी के पहले का समाज है, जबकि फिल्म लगभग तीस साल के बाद बनी है. हरिमोहन झा ने इस फिल्म के बारे में लिखा है- ‘चित्र जेहन हम चाहैत छलहूँ तेहन नहि बनि सकल (फिल्म हम जैसा चाहते थे वैसा नहीं बन सकी)’. बहरहाल, उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि इस फिल्म ने मैथिली में सिनेमा बनाने का रास्ता दिखाया और ‘मधुश्रावणी’, ‘ललका पाग’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्में आगे जाकर बनी.

सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता है. इसे ‘कन्यादान’ उपन्यास में दो मित्रों के आपसी संवाद में भी देखा जा सकता है. उपन्यास के पात्र सी सी मिश्रा अपने मित्र रेवती रमण से कहते हैं: “रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.” सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं है, पर बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई.

(प्रभात खबर 06.02.22)

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