मैथिली साहित्य की अप्रतिम रचनाकार लिली रे का गुरुवार (3 फरवरी) को दिल्ली में निधन हो गया. वे पिछले कुछ वर्षों से पार्किंसन बीमारी से पीड़ित थी. मैथिली साहित्य में एक वर्ग विशेष के पुरुष रचनाकारों का वर्चस्व रहा है. लिली रे ने अपने लेखन से उस वर्चस्व को चुनौती दी, जिसकी अनुगूँज अखिल भारतीय स्तर पर सुनी गई. पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आधुनिक मैथिली साहित्यकार हरिमोहन झा, नागार्जुन और राजकमल चौधरी आदि के रचनाकर्म पर जिस तरह विचार-विमर्श हुआ है, जिस रूप में साहित्य की समीक्षा हुई उस रूप में लिली रे के कथा-साहित्य की नहीं हुई. एक तरह से उनकी उपेक्षा हुई. जबकि मैथिली साहित्य में उन्हें ‘मरीचिका’ उपन्यास के लिए वर्ष 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. बाद में नीरजा रेणु, उषा किरण खान और शेफालिका वर्मा को भी मैथिली में साहित्य अकादमी मिला.
मधुबनी जिले में 26 जवरी 1933 को एक संपन्न परिवार में उनका जन्म हुआ और घर पर ही शिक्षा-दीक्षा हुई. जैसा कि उस
समय प्रचलन था उनकी शादी महज बारह वर्ष की आयु में पूर्णिया जिले में हो गई,
पर उनमें पढ़ने-लिखने की उत्कट आकांक्षा थी.
उन्होंने अपनी आत्मकथा-‘समय के घड़ैत’
में लिखा है: "सबसँ पहिने हमर रचना सब
वैदेही मे कल्पनाशरणक नाम सँ बहराइत छल. वैदेही क सम्पादक छलाह-श्री कृष्णकांत
मिश्र, लालबाग, दरभंगा. प्रथम रचनाक शीर्षक छल-रोगिणी. सब रचना
संभवत: 1954 सँ 1958 केर बीच छपल छल. तदुपरांत, 1978 सँ लिली रेक नाम सँ लिखए लगलहुँ. (सबसे पहले
मेरी रचना सब वैदेही (पत्रिका) में कल्पना शरण के नाम से छपी. वैदेही के संपादक थे
श्री कृष्णकांत मिश्र, लालबाग, दरभंगा. पहली रचना का शीर्षक था-रोगिणी. सब
रचना संभवत: 1954 से 1958 के बीच छपी. उसके बाद वर्ष 1978 से लिली रे नाम से लिखने लगी.”
पहली रचना ‘रोगिणी’
(1955) और ‘रंगीन परदा’ (1956) से ही लिली रे का मैथिली साहित्य में विशिष्ट स्वर सुनाई
देने लगा था. मैथिली स्त्री लेखन में ऐसी परंपरा नहीं थी. ‘रंगीन परदा’ में मिथिला के
सामंती समाज का पाखंड मालती और मोहन के बीच विवाहेतर संबंध के माध्यम से व्यक्त
हुआ. इस कहानी में दामाद और सास के बीच जो शारीरिक संबंध दिखाया गया है उससे
मिथिला के साहित्यक दुनिया में अश्लीलता को लेकर बहस छिड़ गई. लेकिन राजकमल चौधरी जैसे साहित्यकार से लिली रे को
प्रशंसा के पत्र भी मिले थे. उनके कथा साहित्य की स्त्रियाँ अपनी स्वतंत्रता के
प्रति सचेष्ट है. ‘रोगिणी’ की गर्भवती विधवा रेनू आत्महत्या के बदले जीवन
को चुनती है.
लिली रे के उपन्यास (पटाक्षेप) और कहानियों (बिल टेलर की डायरी) को हिंदी में
अनुवाद करने वाली मैथिली लेखिका विभा रानी ने ठीक ही लिखा है कि “लिली रे की कहानियों में स्थानीय मिथिला के
साथ-साथ देश भर मुखरित है, जो कथा संसार की
सार्वभौमिकता का व्यापक फलक है. दिल्ली से लेकर दार्जिलिंग व सिक्किम तक तथा मजदूर
से लेकर राजदूत तक तथा देशी से लेकर विदेशी तक- सभी इनकी कथाओं के पात्र व कैनवास
में फैले हुए हैं.” लिली रे का
ज्यादातर जीवन मिथिला के परिवेश से बाहर बीता. इस लिहाज से लिली रे का अनुभव संसार
व्यापक है जो उनकी कथा साहित्य के विषय वस्तु के चयन में दिखता है. जहाँ दो खंडों
में फैले ‘मिरीचिका’ उपन्यास में जमींदारी, सामंतवाद और उसके ढहते अवशेष के साथ जीवन का चित्रण है वहीं
पटाक्षेप (1979) उपन्यास के मूल
में नक्सलबाड़ी आंदोलन है.
प्रसंगवश, वर्ष 1960 के दशक में उनका लेखन मंद रहा, लेकिन फिर ‘पटाक्षेप’ (मिथिला मिहिर
पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशन) से लेखन ने जोर पकड़ा. मेरी जानकारी में
नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रखकर मैथिली में शायद ही कोई और उपन्यास लिखा गया
है. बांग्ला की चर्चित रचनाकार महाश्वेता देवी ने भी ‘हजार चौरासी की मां’ उपन्यास लिखा, बाद में इसको आधार बनाकर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने फिल्म भी बनायी. ‘पटाक्षेप’ में बिहार के पूर्णिया इलाके में दिलीप, अनिल, सुजीत जैसे पात्रों की मौजूदगी, संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के लिए किसानों-मजदूरों को तैयार करने की कार्रवाई
पढ़ने पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह रबिंद्र रे और उनके साथियों की कहानी
है. रबिंद्र लिली रे के पुत्र थे जिनका वर्ष 2019 में निधन हो गया. अपनी आत्मकथा में भी लिली रे नक्सलबाड़ी
आंदोलन में पुत्र रबिंद्र रे (लल्लू) के भाग लेने का जिक्र करती हैं कि किस तरह
लल्लू हताश होकर आंदोलन से लौट आए और फिर अकादमिक दुनिया से जुड़े.
इस उपन्यास का एक पात्र सुजीत कहता है- ‘हमारी पार्टी का लक्ष्य है- शोषण का अंत. श्रमिक वर्ग को
उसका हक दिलाना.’ मानवीय मूल्यों
को चित्रित करने वाला यह उपन्यास आत्मपरक नहीं है. सहज भाषा में, बिना दर्शन बघारे लिली रे ने सधे ढंग से
वर्णनात्मक शैली में उस दौर को संवेदनशीलता के साथ ‘पटाक्षेप’ में समेटा है.
उनकी यथार्थवादी दृष्टि प्रभावित करती है. लिली रे के निधन के साथ ही मैथिली
साहित्य के एक युग का भी पटाक्षेप हो गया.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
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