वर्ष 2004 में ‘खबर लहरिया’ पाक्षिक अखबार को जब चमेली देवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, तब वरिष्ठ पत्रकार बी जी वर्गिस ने इससे जुड़े पत्रकारों को ‘बेयरफुट पत्रकार्स’ कहा था. चीन के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य संबंधी सुविधा पहुँचाने के उद्देश्य से पिछली सदी के 60 के दशक में माओ ने हजारों लोगों को प्राथमिक मेडिकल ट्रेनिंग देकर भेजा था जिन्हें ‘बेयरफुट डॉक्टर्स’ कहा गया.
पिछले दिनों जब रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायर' को सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फीचर वर्ग में ऑस्कर के लिए
मनोनीत किया गया तो यह बात जेहन में आती रही. असल में इस डॉक्यूमेंट्री के केंद्र
में ‘खबर लहरिया’ से जुड़े बेयरफुट पत्रकार ही हैं, जो पिछले बीस वर्षों से बुंदेलखंड के ग्रामीण
इलाकों की खबर लेती रही हैं और उन्हें आस-पास से लेकर दुनिया-जहान की खबरें देती
रही हैं. ये खबरनवीस सिर्फ महिलाएं हैं. पिछले दो दशक में मीडिया क्षेत्र में आए
अभूतपूर्व बदलाव के बाद भी न्यूजरूम में आज भी महिलाओं की उपस्थिति बेहद कम है,
ऐसे में ‘खबर लहरिया’ की मीडिया जगत
में उपस्थिति प्रेरणादायक है.
वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में सात महिलाओं ने आठ पेज के इस
अखबार की शुरुआत की थी, बाद में बांदा से
भी इसे प्रकाशित किया गया. अखबार में रिपोर्टिंग, संपादन से लेकर उत्पादन, वितरण में इनकी भूमिका थी, जिन्हें ग्रामीण इलाकों में वितरित किया जाता था. इसमें जिन
महिलाओं की भागीदारी थी वह हाशिए के समाज से आती थी. हालांकि इस अखबार के बीज
बांदा जिले से 90 के दशक में निकलने वाले अखबार ‘महिला डाकिया’ (1993-2000) में छिपे थे. ‘महिला डाकिया’
के उत्पादन, वितरण आदि में भी ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी थी. ‘खबर लहरिया’ की तरह ही ‘महिला डाकिया’
की भाषा बुंदेली और हिंदी मिश्रित थी. ‘महिला डाकिया’ महज एक ‘प्रायोगिक अखबार’
था. सामाजिक कार्यकर्ता फराह नकवी ने अपनी
किताब ‘वेव्स इन द हिंटरलैंड (द
जर्नी ऑफ ए न्यूजपेपर)’ में लिखा है: ‘दोनों ही प्रकाशन के पीछे यह विचार था कि
ग्रामीण महिला जिनकी शिक्षा बहुत अधिक नहीं है, वे खबरों के उत्पादन से जुड़े’. खबर लहरिया को ‘निरंतर’ गैर सरकारी संगठन
का सहयोग मिला. 90 के दशक के मध्य में फराह नकवी ‘निरंतर’ से जुड़ी थी.
21वीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में मीडिया के लिए संभावनाओं और चुनौतियों
से भरा रहा है. ‘खबर लहरिया’
का प्रिंट अंक बंद हो गया और वर्ष 2016 से यह
डिजिटल अवतार में आ गया. हालांकि, ऑनलाइन आ जाने से
भी उसका उद्देश्य वही है जो वर्ष 2002 में था. पहले अंक में अखबार ने लिखा था-‘सुनौ..सुनौ..सुनौ हम खबर लहरिया नाम का हमार
आपन अखबार शुरु कीन है. या चित्रकूट जिला का हमार आपन अखबार आये. जेहिमा इलाका की
सच्ची घटना, किस्सा, कहानी, चुटकुला, योजनाएं, घरेलू इलाज, देश-विदेश के बातै रहा करी.’ हालांकि वर्तमान
में इन्हें दिल्ली स्थित कार्यालय से संपादन में सहयोग मिलता है. इनकी रिपोर्टिंग
टीम में करीब 20 सदस्य हैं जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखती हैं. ‘राइटिंग विद फायर’ में अखबार से डिजिटल तक के सफर की कहानी ही है. अभी इस डॉक्यूमेंट्री को
पब्लिक के लिए रिलीज नहीं किया गया है.
मेनस्ट्रीम मीडिया के बरक्स इंटरनेट जनित डिजिटल मीडिया और मोबाइल फोन ने ‘पब्लिक स्फीयर’ में बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और एक नए लोकतांत्रिक
समाज का सपना भी बुना है. भारतीय गाँव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन
यथार्थ और उसकी समस्याओं को एक जगह समेटने के उद्देश्य से पी साईंनाथ की पहल से ‘पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया’ (PARI) नामक एक वेबसाइट की शुरुआत वर्ष 2014 में हुई.
इसे उन्होंने हमारे समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा. इस वेबसाइट पर
विचरने वाले एक साथ विषय वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं. ऐसे ही
कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उभरे हैं जहाँ पर गाँव-कस्बों की खबर मिल जाती हैं. फिर भी
खबर लहरिया जैसे मीडिया की अहमियत कम नहीं होती.
‘राइटिंग विद फायर’ के ऑस्कर के लिए
मनोनीत होने से ‘खबर लहरिया’
टीम में नई ऊर्जा का संचार हुआ है. उनसे बात
करने पर उनकी खुशी और उत्साह का पता चलता है. ‘खबर लहरिया’ की संपादक कविता
देवी ने अपनी खुशी को सोशल मीडिया पर शेयर भी किया. उन्होंने डॉक्यूमेंट्री निर्देशकों
को बधाई देते हुए लिखा कि ‘हमें गर्व है कि
फिल्म के जरिए हमारे 20 साल की ग्रामीण रिपोर्टिंग और मेहनत को बहुत सराहना और
प्यार मिल रहा है जो हमारे हौसले को बुलंद करता है.’ उम्मीद की जानी चाहिए
‘राइटिंग विद फायर’
से ‘खबर लहरिया’ की खबर दूर तक
पहुँचेगी और वैकल्पिक मीडिया मजबूत होगा.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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