हिंदी भाषा और साहित्य के लिए यह गर्व की बात है कि गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’-टूम ऑफ सैंड, अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट की गई है. उल्लेखनीय है कि यह हिंदी की पहली कृति है जिसे अंतिम छह की सूची में शामिल किया गया है. अब अगले महीने लंदन में होने वाले पुरस्कार समारोह पर सबकी नजर रहेगी. अन्य चयनित (शॉर्टलिस्ट) पांच किताबों में बोरा चुंग की ‘कर्स्ड बनी’, जॉन फॉसे की ‘ए न्यू नेम: सेप्टोलॉजी VI-VII’, मीको कावाकामी की किताब ‘हेवेन’, क्लाउडिया पिनेरो द्वारा लिखित ‘एलेना नोज़’ और ओल्गा टोकार्ज़ुक की ‘द बुक्स ऑफ जैकब’ शामिल है.
पोलिश लेखिका ओल्गा टोकार्ज़ुक को साहित्य के लिए वर्ष 2019 में नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, साथ ही वर्ष 2018 में ‘फ्लाइट्स’ उपन्यास के लिए बुकर पुरस्कार से भी वे सम्मानित हुई थीं. 50,000 पाउंड के इस पुरस्कार को अनुवादक और लेखिका के बीच बांटा जाएगा. ‘रेत समाधि’ उपन्यास को डेजी रॉकवेल ने अनुवाद किया है.
यह किताब अपनी विषय-वस्तु, भाषा, किस्सागोई और समय-काल के बदलते परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य को लेकर चर्चा में रही है. ज्यूरी ने भी इस किताब की प्रशंसा करते हुए इसे रेखांकित किया है. उन्होंने इसे ‘लाउड और इरेसिस्टेबिल’ कहा है. हालांकि आम पाठकों के लिए इस उपन्यास का शिल्प दुरूह है.
पीठ, धूप, हद-सरहद
जैसे खंडों में बंटे इस उपन्यास के केंद्र में अस्सी वर्षीय विधवा है. बेटी और मां
के रिश्ते के माध्यम से हम घर-परिवार में दाखिल होते हैं और विभिन्न किरदारों केके, सिड, रोजी
(ट्रांसजेंडर), अली अनवर से रू-ब-रू
होते हैं. दीवार की ओर पीठ किए दादी का चित्रण देखिए:
उट्ठो
नहीं
धूप
नहीं.
सूप
नहीं.
पीठ.
चुप. दीवार
....
सुबह
से पड़ी है
बाथरूम
भी देर से गई और आकर पड़ रही
खाना
नहीं पीना नहीं चाय मुँह तक ले जाना नहीं
फूल
खिले हैं परवाह नहीं
गुलदाउदी, पर देखना नहीं.
इससे पहले गीतांजलि श्री के चार उपन्यास– माई, हमारा शहर उस बरस, तिरोहित, खाली जगह पुरस्कृत और चर्चित हो चुके हैं. अपने पहले उपन्यास ‘माई’ और ‘तिरहोति’ में भी गीतांजलि श्री ने स्त्री जीवन को चित्रित किया है. ‘रेत समाधि’ पढ़ते हुए खास कर उनके पहले उपन्यास ‘माई’ याद आती है, पर रेत समाधि का फलक काफी व्यापक है. बीस साल पहले हिंदी के आलोचक मैनेजर पांडेय ने गीतांजलि श्री के कथा-विन्यास में मौजूद ‘विनोदी और विद्रोही स्वभाव’ का जिक्र किया था. यह ‘स्वभाव’ रेत समाधि में खुल कर अभिव्यक्त हुआ है. इस मामले में ‘रेत समाधि’ समकालीन हिंदी उपन्यासों में अनूठा है.
यह
किताब वर्ष 2018 में प्रकाशित हुई.
इस साल हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, ऐसे
में सरहद और विभाजन की त्रासदी भी हमारे जेहन में है. हद-सरहद खंड के शुरुआत में लिखी
इन पंक्तियों पर गौर कीजिए: ‘वाघा आ गए तो गाथा ड्रामा
और कथा पार्टीशन.’
यहाँ आपको मोहन राकेश के मलबे का मालिक मिलेगा, मंटो का टोबा टेक सिंह भी. यहां कृष्णा सोबती हैं, खुशवंत सिंह हैं. इंतजार हुसैन, शानी और राही मासूम रजा हैं.
जब चंद्रप्रभा देवी पाकिस्तान जाती है तो हमारे मन में बॉर्डर का सवाल उठता है? इसका क्या मतलब है? रेत समाधि का प्रसंग है: “जिसे कहते हैं बार्डर उसके पार खड़ी औरत पृथ्वी की तरह धीमे धीमे चकरा रही है, इधर जाना है कि किधर? आज ही के लिए जैसे उसने दर्वेशाना पोशाक पहनी थी. पोशाक भी चकरा रही है. बेटी उसका चक्कर रोक के सामने को घुमा देती है. लाहौर को जाती सड़क पे. जिस सड़क पे वे हैं उसे ग्रैंड ट्रंक रोड कहते हैं जो इधर भी जाती है, उधर भी.”
पिछले दिनों कई पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मकार अनूप सिंह से मैं बातचीत कर रहा था, जिन्होंने विभाजन (पार्टीशन) को लेकर चर्चित फिल्म 'किस्सा' (2013) बनाई है. उनके दादा ने विभाजन के दंश को झेला था जो इस फिल्म में अंबर सिंह (इरफान खान) के रूप में मौजूद हैं. वे कहते हैं कि 'हम सब रिफ्यूजी हैं और एक-दूसरे में ही बसते हैं- वही हमारा वतन है.' राजनीति जो नहीं कहती है वह बात साहित्य, सिनेमा कहता है. इस उपन्यास में एक पंक्ति है- ‘मत मानो बार्डर को. बार्डर से अपने टुकड़े मत करो.’
इस किताब में एक कथा के साथ कई कथाएँ जुड़ी हुई आती हैं जिसके लिए पाठक पहले से तैयार नहीं रहता और अचंभित होता है. शुरुआत में जो विधवा स्त्री- अम्मा, दीवार की तरफ पीठ किए है वही पाकिस्तान में गोली खा कर मरती है. क्या यह प्रेम कहानी है?
हाल ही में एक इंटरव्यू में गीतांजलि श्री ने स्वीकार किया कि वे लिखते समय ‘ध्वनि के प्रति बहुत सजग रहती हैं’. यह सजगता उपन्यास के हर पन्ने पर दिखती है. इस उपन्यास में किस्सागोई है, पर विन्यास कविता का है. जाहिर है पौने चार सौ पेज के इस उपन्यास का आस्वाद हमें तभी मिलता है. जब हम ठहर-ठहर कर कविता की तरह इसे पढ़ते हैं.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए. नोट: रेत समाधि/टूम ऑफ सैंड किताब अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीत गई)
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