बीस साल पहले इसी महीने हम भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली से पत्रकारिता में प्रशिक्षण लेकर निकले थे. उन्हीं दिनों बाजार
में कई नए निजी टेलीविजन समाचार चैनलों के आने की संभावना थी, कुछ ने चौबीसों घंटे अपना प्रसारण शुरू कर दिया था. नौकरी को लेकर हम
उत्साहित थे, पर हम युवा साथियों के मन में टेलीविजन
चैनलों की विषय-वस्तु, मनोरंजन, युद्धोन्माद, आक्रामकता आदि को लेकर अच्छे भाव
नहीं थे. अमेरिका में हुए 9/11 आतंकी हमले, भारतीय संसद पर हमला और गोधरा-गुजरात दंगों की घटना
हमारे शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए चुनौती लेकर आया था. उसी दौर में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द भारतीय
मीडिया में प्रचलन में आए थे और एक समुदाय विशेष की स्टीरियोटाइप छवि टीवी पर
दिखाई जा रही थी. बीस साल के बाद भी हमारे भाव बदले नहीं हैं, फर्क इतना है कि हमें उस वक्त कहा जाता था कि अभी ‘संक्रमण काल (transition
period)’ है जो कुछ महीनों में ठीक हो जाएगा, जबकि अब कहते हैं कि टेलीविजन चैनलों के लिए यह संकट काल है. अनायस नहीं
कि पिछले कुछ वर्षों से देश के चर्चित पत्रकार-एंकर, रवीश
कुमार, दर्शकों से टेलीविजन चैनल नहीं देखने की बार-बार
अपील करते हैं!
ऐसा नहीं कि दस साल पहले कोई अच्छी स्थिति थी. वर्ष 2013 में वरिष्ठ
पत्रकार-एंकर करण थापर ने एक आयोजन में कहा था: “टीवी चैनल दरअसल, टीआरपी की दौड़ में लगे हैं. बीबीसी स्वायत्त है. वह
विज्ञापन के लिए नहीं भागता. अगर आप ‘न्यूज वैल्यू’ से अलग होते हैं तो आपकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है और
यह पत्रकारिता नहीं है.” पिछले दिनों टीआरपी घोटाले की मीडिया में खूब चर्चा
हुई थी. सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले, सत्य तक
पहुँचने की बात करने वाले, लोकतंत्र का खुद को प्रहरी मानने
वाले पत्रकार खुद खबर बन गए थे. ऐसे में लोगों के मन में टीआरपी को लेकर सहज
जिज्ञासा थी कि टीआरपी का इतिहास क्या है? यह कैसे तय होती
है? टीआरपी से कैसे
पत्रकारिता प्रभावित होती है? आदि. वरिष्ठ पत्रकार
और लेखक मुकेश कुमार की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘टीआरपी: मीडिया मंडी का
महामंत्र’ में इन्हीं
सवालों का सहजता से जवाब दिया गया है. समकालीन भारतीय समाज और मध्यवर्ग के जीवन
में मीडिया की केंद्रीयता है, पर मीडिया के विभिन्न आयामों, विमर्श को लेकर शोधपरक पुस्तकों का सर्वथा अभाव है. यह किताब इस कमी को
पूरा करती है.
गौरतलब है कि मुकेश कुमार ने टीआरपी को लेकर पीएचडी शोध कार्य किया है. इसी
विषय पर वर्ष 2015 में ‘टीआरपी: टीवी न्यूज और बाजार’ (वाणी प्रकाशन) नाम से एक
किताब उन्होंने लिखी थी और इन्हीं सवालों को टटोला था. ‘टीआरपी: मीडिया मंडी का महामंत्र’ (राजकमल प्रकाशन)
टीआरपी घोटाले के संदर्भ में इन्हीं मुद्दों की नए सिरे से
पड़ताल करती है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस किताब में विज्ञापन (32 हजार
करोड़) और टेलीविजन रेटिंग पॉइंट के आपसी रिश्ते को विश्लेषित किया गया है. टीवी
समाचार उद्योग में काम करने के अपने अनुभव के आधार पर लिखते हैं- “न्यूज चैनलों में
टीआरपी खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं मानी जाती है.” वे इस किताब में
टीआरपी को बाजार का औजार, हथियार कहते हैं. उनके विश्लेषण
के केंद्र में मुख्यत: हिंदी के समाचार चैनल ही हैं.
सवाल है कि इन बीस वर्षों में हिंदी के टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रही? जनसंचार के प्रमुख माध्यम होने के नाते क्या इनके सरोकार जन से जुड़े? क्या सूचनाओं, विमर्शों के मार्फत इन्होंने जन को सशक्त किया ताकि लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभाने में इन्हें सहूलियत हो? उदारीकरण (1991), निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर वह शुरु से ही कारपोरेट जगत का हिस्सा रहा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं. मुकेश कुमार लिखते हैं: “वास्तव में बाजार, टीआरपी और पत्रकारिता के बीच का असली खेल शुरु हुआ चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों के आने के बाद. सन 2000 के आसपास यह दौर शुरु हुआ.” वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में लगे करीब 44 हजार मीटर के जरिए रेटिंग के क्षेत्र में एक बड़ा नाम बार्क (Broadcast Audience Research Council) नामक संस्था टीआरपी देने का काम कर रही है. इस सैंपल को आधार बना कर वह करीब 85 करोड़ दर्शकों (20 करोड़ टीवी-घर) तक पहुँचने, उनके पसंद-नापसंद को जानने का यह दावा करती है और इसी आधार पर चैनलों के बीच विज्ञापनों का बंटवारा होता है. हालांकि टीआरपी घोटाले से पहले और घोटाले के बाद, सैंपल साइज, बार्क की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं. घोटाले की जाँच के दौरान बार्क के पूर्व सीइओ, पार्थो दासगुप्ता की गिरफ्तारी हुई. पुलिस के मुताबिक दासगुप्ता ने माना था कि रिपब्लिक टीवी के संपादक-एंकर अर्णब गोस्वामी ने रेटिंग बढ़वाने के लिए उन्हें लाखों रुपए रिश्वत दिए. इस किताब में लेखक ने बार्क की रेटिंग प्रणाली पर वाजिब सवाल उठाया है.
यह नोट करना समीचीन है कि भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों
के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. टेलीविजन की वजह से खबरों की
पहुँच गाँव-कस्बों, झुग्गी-झोपड़ियों तक हुई. पब्लिक स्फीयर का विस्तार हुआ, साथ ही एक नेटवर्क का निर्माण भी. जो केंद्र से
दूर थे वे नजदीक आए. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं
समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. लेखक इस किताब
में टेलीविजन चैनलों की ताकत पर अपनी नजर नहीं डालते हैं. टेलीविजन दृश्य-श्रव्य
माध्यम है, जो तस्वीरों-आवाजों के माध्यम से संदेश को
दर्शकों तक पहुँचाती है. टेलीविजन के संदेशों को ग्रहण करने के लिए साक्षर या
पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है. जाहिर है भारत जैसे देश में जहाँ आज भी करोड़ों लोग
निरक्षर हैं, टेलीविजन अखबारों का पूरक बन कर उभरा है.
लेकिन यदि मीडिया को पहले ही ‘मंडी’ मान कर आप विश्लेषण करेंगे तो
निष्कर्ष पूर्व-निर्धारित ही होंगे! रेमंड विलियम्स ने अपनी चर्चित
किताब टेलीविजन में टेलीविजन को तकनीकी और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में देखा-परखा
है. टेलीविजन चैनलों की जो स्थिति है, उसका जिस तरह से पिछले दो दशकों में विकास हुआ है क्या वह हमारे
उपभोक्तावादी समाज पर भी एक टिप्पणी नहीं है? विश्लेषकों का मानना है कि पूंजीवादी
व्यवस्था के केंद्र में उपभोग की संस्कृति है. हमारे यहाँ दर्शकों की पसंद, इच्छा
को लेकर अकादमिक शोध की पहल नहीं दिखती. ऐसे में इस निष्कर्ष तक पहुँचना कि ‘ये महाझूठ है कि दर्शकों के पास विकल्प हैं मगर वे उनका इस्तेमाल नहीं करते’ सरलीकरण ही कहा जाएगा. मीडिया का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक विकास से अलहदा
नहीं होता. हिंदुत्ववादी प्रवृत्तियों के उभार का सारा दोष हम मीडिया के मत्थे मढ़
कर छुट्टी नहीं पा सकते.
इस पर काफी चर्चा हो चुकी है कि हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा है, जिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मुकेश कुमार ठीक ही इसे नोट करते हुए अपनी किताब में लिखते हैं: “टीआरपी के चक्कर में ही बहस पर आधारित कार्यक्रमों में चीख-चिल्लाहट, लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज यहाँ तक की मारपीट आवश्यक तत्त्व बन गए, क्योंकि एक अनपढ़ देश में ऐसी चीजों की दर्शक संख्या अधिक होती है.” यदि हम मान लें कि हिंदी के दर्शक ‘अनपढ़’ हैं, पर अंग्रेजी के दर्शक तो पढ़े-लिखे माने जाते हैं, फिर क्यों अंग्रेजी चैनलों के न्यूज रूम में भी आज वही चीख-चिल्लाहट सुनाई पड़ती है? क्यों अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार अपने चैनलों पर ऐसी बहस करते हैं जो सौहार्द की जगह वैमनस्य को बढ़ावा देता है, जिसका तथ्य और सत्य से कोई नाता नहीं रहता? क्यों ट्विटर पर सांप्रदायिक टीका-टिप्पणी वे करते दिखते हैं? क्या अंग्रेजी के समाचार चैनल हिंदुत्व के मुद्दे पर हिंदी चैनलों की राह पर नहीं है? क्या उग्र राष्ट्रवाद का स्वरूप अंग्रेजी और हिंदी के चैनलों में कमोबेश एक जैसा नहीं है? आज क्या दोनों के बीच एक खंडित लोक (split public) का स्वरूप वही है जिसकी चर्चा पिछली सदी में 90 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के संदर्भ में अरविंद राजगोपाल अपनी किताब में करते हैं. मुझे लगता है कि यह विभाजक रेखा धुंधली हुई है. सत्ता के करीब पहुँचने की ललक में अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार ज्यादा महीन ढंग से काम करते हैं. एनडीटीवी ने पूर्व पत्रकार संदीप भूषण ने ‘द इंडियन न्यूजरूम’ (2019) में इसकी पड़ताल की है.
सवाल यह भी है क्या सनसनी इस माध्यम की विशेषता तो नहीं? टीवी के पास महज एक परदा है जहाँ पर उसे सब कुछ दिखाना होता है, इस मामले में वह अखबारों या मोबाइल तकनीकी (ऑनलाइन मीडिया) से अलग है.
मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरिकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- ‘सीरियस टेलीविजन
अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता
है-मनोरंजन की जबान.’ क्या यह हमारे समाचार चैनलों के सच लिए नहीं है? पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शो, सीधे शब्दों में, मनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षा, गहन विवेचन या
विरेचन का. लेखक टीवी रेटिंग
की नई प्रणाली की वकालत अपनी किताब में करते हैं, पर क्या
उससे समस्या का समाधान संभव है? क्योंकि खुद लेखक ने लिखा है-“कितनी भी निर्दोष रेटिंग प्रणाली क्यों न स्थापित कर दी जाए, कंटेंट उसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता.” जाहिर है ऐसे में महज टीआरपी के कोण से हम टेलीविजन की संस्कृति का विश्लेषण
नहीं कर सकते.
भारत में कारोबारी मीडिया और सत्ता के आपसी सांठगांठ पर कम बातचीत होती है, इस
किताब में भी इस मुद्दे को महज छुआ गया है जिस पर विस्तृत शोध की अपेक्षा है. कुछ
अपवादों को छोड़ कर आजाद भारत में सत्ता के इशारे पर मीडिया हमेशा काम करता रहा
है. आपातकाल में अधिकांश मीडिया घराने ने घुटने टेक दिए थे. मुकेश कुमार ने एक जगह
लिखा है कि ‘पहला हमला बेशक बाजार का था जो टीआरपी के जरिए हुआ, मगर दूसरा आक्रमण राजनीति की ओर से हुआ है और इसकी शुरुआत छह साल पहले हुई
है जो कि अभी जारी है.’ पर लेखक इसके विस्तार में नहीं जाते कि नरेंद्र मोदी
के सत्ता में आने के बाद मीडिया जगत में किस तरह से परिवर्तन आया है. एक रपट की तरह
वे लिपिबद्ध करके छुटकारा पा लेते हैं, जबकि उनके पास पत्रकारिता का लंबा
अनुभव है. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे वे परख सकते थे. इसी लेख में वे नोट करते
हैं कि हमारा मीडिया ‘सवर्णवादी है, बहुसंख्यवादी है.’ क्या पिछले छह
साल में ऐसा हुआ है? क्या इसके लिए वे
जिम्मेदार नहीं हैं जो भारत में टेलीविजन चैनलों के कर्ता-धर्ता रहे हैं? लेखक, जिन्हें कई चैनलों को शुरु करने का श्रेय हैं, यदि
अपने अनुभव के आधार पर इस संदर्भ में कुछ लिखते तो ज्यादा तथ्यपरक और प्रभावी
होता- इथनोग्राफिक स्टडी की तरह. अंत में, लेखक
शोधार्थी रहे हैं, ऐसे में इस किताब में एक भी संदर्भ, नोट, फुटनोट का उल्लेख नहीं होना खलता है.
(समालोचन के लिए, आजकल पत्रिका, अगस्त, पेज 55-56)
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