यूसुके हमागुची निर्देशित जापानी भाषा की फिल्म ‘ड्राइव माय कार’ को पिछले दिनों सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फिल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला. यह फिल्म रचनात्मक जीवन, प्रेम, सेक्स, विवाहेत्तर संबंध जैसे जटिल विषय को सहजता से सामने लेकर आती है. प्रसिद्ध जापानी रचनाकार हारुकी मुराकामी की इसी नाम से लिखी कहानी पर फिल्म आधारित है, हालांकि उनकी कुछ अन्य कहानियों, जो कि ‘मेन विदाउट वीमेन’ में संकलित है, की झलक भी मिलती है. बावजूद इसके फिल्म महज कहानी को रूपांतरित नहीं करती. सिनेमा का सम्मोहन हमें तीन घंटे तक बांधे रखता है. कार में यात्रा के दौरान ‘टाइम और स्पेस’ को जिस खूबसूरती से निर्देशक ने फिल्माया है और संपादित किया है वह कहीं से फिल्म को बोझिल नहीं बनाता है. बिना किसी अवरोध और नाटकीयता के फिल्म एक प्रवाह में आगे बढ़ती जाती है.
फिल्म काफूकू (हिदेतोशी निशिजिमा) और ओटो (रिका
किरिशिमा) दंपत्ति के इर्द-गिर्द है. दोनों रंगमंच-टीवी-फिल्म की दुनिया से जुड़े हैं. ओटो के कई पुरुषों के साथ संबंध हैं, जिसे काफूकू जानता है. पर इस बात को लेकर वह कभी ओटो से कोई
सवाल नहीं करता. ओटो की अचानक मौत हो जाती है. कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं.
काफूकू अकेला हो जाता है. दो साल बाद हिरोशिमा में एक थिएटर समारोह में चेखव के
नाटक ‘अंकल वान्या’ के निर्देशन का
उसे प्रस्ताव मिलता है, जहाँ उसे ड्राइवर के रूप में एक युवती मिसाकी (टोको
मिउरा) मिलती है. उससे वह अपने मन की व्यथा साझा करता है. इस क्रम में हम एक
रिश्ते को उभरते देखते हैं. मिसाकी की कहानी से रू-ब-रू होते हैं. यहां फिल्म दुख, संत्रास, अपराध बोध जैसी
मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती है.
हम व्यक्तित्व के उस गोपनीय कोने में दाखिल होते हैं जहां पर प्रवेश वर्जित है. आत्मा पर लगे खरोंच को जिस खूबसूरती से काफूकू का किरदार उकेरता है, सवाल है कि क्या वह 'वान्या' की तरह ही अभिनय कर रहा है? क्या जीवन एक नाटक है, जहाँ हम सब अभिनय करते हैं?
इस फिल्म की खासियत यह है कि एक साथ ही यह साहित्य, सिनेमा और नाटक के बीच आवाजाही करती है. मुराकामी की कहानियों में जो फलसफा है उसे निर्देशक ने एक नई दृष्टि से परदे पर उतारा है.
इन वर्षों में कोई भी भारतीय फिल्म ऑस्कर पुरस्कार नहीं जीत पाई है. करीब बीस साल पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्म श्रेणी में ‘लगान’ से उम्मीद जगी थी, लेकिन उसके बाद कोई भी फिल्म अंतिम दौर तक भी नहीं पहुँच पाई. क्या भारतीय फिल्में ‘ड्राइव माय कार’ की तरह साहित्य का सहारा नहीं ले सकती? ऐसा नहीं कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य का अभाव हो.
उल्लेखनीय है कि ऑस्कर से सम्मानित सत्यजीत रे की
फिल्में साहित्यिक कृतियों पर ही आधारित रही हैं. बॉलीवुड की बात करें तो यहाँ पर
यह नोट करना उचित होगा कि साहित्य पर फिल्म बनाने की शुरुआत प्रेमचंद की कृति ‘सेवासदन’ पर बनी फिल्म (1934) के साथ ही शुरु हो गई थी, लेकिन सिनेमा पर
बाजार का दबाव ऐसा रहा कि फिल्मकार साहित्य से संवाद करने से परहेज ही करते रहे.
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