कान फिल्म समारोह के 75वीं वर्षगांठ पर सत्यजीत रे की चर्चित फिल्म ‘प्रतिद्वंदी’ विशेष रूप से दिखाई जा रही है. वर्ष 1970 में रिलीज हुई इस फिल्म को रे की फिल्मी यात्रा में एक अलग मुकाम हासिल है. उनकी शुरुआती फिल्में पाथेर पांचाली, अपराजितो, जलसाघर, चारुलता आदि अपनी प्रगीतात्मकता और मानवीय संवेदनाओं के चित्रण के कारण सराही गई, पर बाद के दशक में समकालीन भावबोध से दूर और अराजनीतिक होने का उन पर आरोप लगा. इस फिल्म से वे अपने आलोचकों को जवाब देते प्रतीत होते हैं. यह फिल्म समकालीन वास्तविकता से सीधे मुठभेड़ करती है. सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म में धृतमन चटर्जी की प्रमुख भूमिका है. अपनी पहली फिल्म में वे एक मंजे कलाकार के रूप में सामने आते हैं.
‘प्रतिद्वंदी’ कलकत्ता (कोलकाता) में अवस्थित है. फिल्म का नायक सिद्धार्थ (धृतमन चटर्जी) एक शिक्षित बेरोजगार युवक है जिसे नौकरी की तलाश है, लेकिन वाम विचारधारा के कारण उसे बार-बार असफलता हाथ लगती है. देश-काल के बदलते यथार्थ की वजह से उसका व्यक्तित्व अशांत और अस्थिर है. ध्यान रहे कि आजादी के ‘बीस साल बाद’ नेहरू युगीन सपने विखंडित होने लगे थे. युवाओं में बेरोजगारी के कारण आक्रोश बढ़ता जा रहा था. दुनिया भर में राजनीतिक सत्ता के खिलाफ युवा संघर्ष कर रहे थे. भारत में इसकी परिणति नक्सलबाड़ी आंदोलन में दिखी थी, जिसका केंद्र कोलकाता था. फिल्म के एक चर्चित दृश्य में इंटरव्यू के दौरान सिद्धार्थ वियतनाम युद्ध में आम लोगों के संघर्ष, प्रतिरोध और साहस को पिछले दशक (साठ) की सबसे महत्वपूर्ण घटना कहता है.
उसी दौर में भारतीय सिनेमा में एक नई धारा (न्यू वेब) की शुरुआत हुई. फिल्मकार मृणाल सेन, फिल्म संस्थान, पुणे से शिक्षित मणि कौल, कुमार शहानी आदि इसके अगुआ थे. वर्ष 1970 में कन्नड़ में यू आर अनंतमूर्ति के चर्चित उपन्यास ‘संस्कार’ पर इसी नाम से फिल्म आई थी. मृणाल सेन की चर्चित कोलकता त्रयी (कलकत्ता 71 और पदातिक) की पहली फिल्म ‘इंटरव्यू’ भी उसी वर्ष रिलीज हुई थी. इस फिल्म में रे ने उन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है जिसमें मृणाल सेन सिद्धहस्त थे.
सिनेमा तकनीक आधारित कला है जो समय के साथ पुरानी पड़ जाती है. ‘प्रतिद्वंदी’ फिल्म अपनी विषय-वस्तु की वजह से पचास साल बाद भी मौजूं है, भले ही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया हो. बेरोजगारी की समस्या आज भी युवाओं को मथ रही है, जिसकी परिणति आए दिन सड़कों पर विरोध प्रदर्शन में दिखाई देती है. इस फिल्म के एक दृश्य में इंटरव्यू के लिए अनेक युवाओं के साथ अपनी बारी का इंतजार करता सिद्धार्थ अव्यवस्था, अमानवीय व्यवहार से आहत होकर साक्षात्कार कक्ष में घुस कर इसका प्रतिवाद करता है. वह मेज-कुर्सी पलट देता है. हालांकि मृणाल सेन की फिल्म (इंटरव्यू) से तुलना करते हुए समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता ने नोट किया है: “सेन के नायक की उद्धत भाव भंगिमाओं (चेष्टाओं) के मुकाबले सिद्धार्थ की पराजय में अधिक वास्तविकता और सार है.” इसी बात को 70 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े रहे प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने एक बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि भले मृणाल सेन की फिल्में हमारी राजनीति के करीब थी, पर सत्यजीत रे की फिल्में कलात्मक रूप से उत्कृष्ट हैं.
(प्रभात खबर, 22.05.22)
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