समकालीन आदिवासी गोंड कला के क्षेत्र में पद्मश्री
दुर्गाबाई व्याम, पद्मश्री भज्जू
श्याम और वेंकट रमण सिंह श्याम का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. इन सम्मानित
कलाकारों की एक निजी शैली और विशिष्टता है, जो उनकी चित्रों में दिखाई देती है. तीनों ही अपनी
कला का प्रेरणास्रोत जनगढ़ सिंह श्याम (1962-2001) को मानते हैं. वेंकट रमण सिंह श्याम से अरविंद दास बातचीत:
आज जिसे हम परधान गोंड कला के नाम से जानते हैं, उसकी शुरुआत कब हुई?
हमारे यहाँ शादी, त्योहारों के अवसर पर मिट्टी के रंग, फूल-पत्ती से लोग दीवारों पर भित्तिचित्र पारंपरिक रूप
से बनाते थे. महिलाएँ, पुरुष दोनों ही
इसमें काम करते थे. कोठी में वे डिजाइन बनाते थे, घर की दीवारों पर वे भी वे पेंटिंग करते थे.
राष्ट्रीय स्तर पर यह पेंटिंग चर्चित भले नहीं थी, पर एंथ्रोपोलॉजिस्ट वेरियर एल्विन ने गोंड आदिवासियों
के बीच काफी काम किया. उन्होंने हमारे गाँव पाटनगढ़ रह कर किताब लिखी जिसके माध्यम
से गोंड कला, संगीतकारों के
बारे में (जो बाना बजाते हैं) लोगों को पता चला. जब 80 के दशक में जगदीश स्वामीनाथन भोपाल स्थित भारत भवन
में काम कर रहे थे तब उन्होंने पाटनगढ़ में जनगढ़ सिंह श्याम के काम को दीवारों पर
देखा और उन्हें भारत भवन लेकर आए. तब इस पेंटिंग की बाहर की दुनिया में चर्चा हुई.
जनगढ़ श्याम से आपके रिश्ते थे? क्या आपने जनगढ़ श्याम के साथ काम किया था? उनकी कला को आप किस तरह देखते हैं?
जनगढ़ सिंह श्याम मेरे चाचा थे. मैंने उनके साथ काम
किया है. वे ही मुझे भोपाल लेकर आए थे.
भारत भवन में उन्होंने पेपर के ऊपर पेंटिंग की. लिथो, इचिंग के क्षेत्र में भी काम किया. प्रिंटिंग विभाग
में उन्होंने गोंड देवी-देवताओं, किस्से-कहानियों, अपनी गाथाओं को चित्रित किया. उन्होंने बहुत सारे
प्रयोग किए और इस कला ने एक नया आकार ग्रहण किया. परधान गोंड के यहाँ पारंपरिक रूप
से गाथाओं का महत्व रहा है.
जनगढ़ श्याम की 60वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है. वर्ष 2001 में जब वे मिथिला म्यूजियम (जापान) में थे वहीं
आत्महत्या कर ली थी. क्या परेशानी थी
उन्हें?
जितना मैं जानता हूँ, उनमें कला की प्रतिभा थी. भारत भवन आने से पहले वे
मध्य प्रदेश सरकार के टीसीपीसी (ट्रेंनिग कम प्रोडक्शन सेंटर) में अलग ढंग के
डिजाइन का काम करते थे. काम करते हुए उनमें शार्पनेस आया. उनके माध्यम से कला बाहर
की दुनिया में पहुँची.
मैं सच कहूँ तो इस कला की दुनिया में जिस तरह से उनका
नाम था उस तरह का सम्मान उन्हें नहीं मिला. शिखर सम्मान (1986) के बाद उन्हें लगता था कि वे सिमट गए हैं. सरकार या
कहीं से से उन्हें सहयोग नहीं मिला. वे बहुत दुखी और निराश थे. वे कहते थे कि बेटा
जो नाम है वह मुझे नहीं मिल रहा है. उनके ही सामने एक नए कलाकार को ललित कला का
पुरस्कार मिला, पर उन्हें नहीं
मिला. पर जनगढ़ की मौत के बाद ही मैंने कलाकार बनने की ठानी. हममें से कइयों ने
सोचा कि हम जनगढ़ का स्थान ले सकते हैं.
समकालीन गोंड कला को आप किस रूप में देखते हैं?
इस समय पूरी दुनिया में गोंड कला अपना परचम लहरा रही
है. हम तीन लोगों (भज्जू, दुर्गाबाई और
मैं) ने जैसे काम किया है उसकी चर्चा है. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा लेकर हम इस कला को गए हैं. हमारा पूरा परिवार
पेंटिंग करता है. लोग जनगढ़ की पेंटिंग के छोटे टुकड़े के पीछे भी भागते हैं. हम
तीनों की पेंटिंग की एक अलग पहचान है. हमारा रेखांकन का तरीका- लाइन, ड्राइंग, स्केच या आकृति बनाने का तरीका सबका अलग है. साथ ही
हमारा पैटर्न अलग है.
युवा कलाकारों के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे? उनकी कला में क्या विशेषता दिखाई दे रही है?
नाम होने के बाद एक और जो पैटर्न उभरा है सेमी सर्कल
और डॉट का उसे सब ग्रहण करना चाहते हैं. युवा कलाकार पर इंटरनेट से कॉपी करने पर
जोर बढ़ा हैं. मिथिला पेंटिंग के प्रसिद्ध कलाकारों की तरह ही गोंड कलाकारों को
अपना रूपाकार गढ़ने पर जोर देना चाहिए. कला तभी आगे बढ़ती है जब उसमें परिवर्तन आए. हम इसके लिए
युवा कलाकारों के साथ वर्कशॉप करते हैं.
आपकी शिक्षा-दीक्षा कहाँ हुई?
मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ, मुझे कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं है. जंगल, खेत, किस्से-कहानी ही
मेरी पेंटिंग में आई है. चाचा जी के साथ काफी वक्त मैंने गुजारा, उनसे बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला. मुझे जगदीश
स्वामीनाथन, मकबूल फिदा हुसैन, मंजीत बावा को भी देखने-सुनने का मौका मिला. उनकी
चर्चा से मुझे लाभ हुआ.
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