मशहूर फिल्म निर्देशक, दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित श्याम बेनेगल 87 वर्ष की उम्र में आज भी रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं. फिलहाल वे अपनी नई फिल्म ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ के निर्माण में व्यस्त हैं. फिल्म इस साल सितंबर में रिलीज होगी. यह फिल्म बांग्लादेश के जनक और ‘बंगबंधु’ के नाम से चर्चित शेख मुजीबुर्रहमान (1920-1975) के जीवन पर आधारित है. पिछले महीने बेनेगल ने इस फिल्म का पोस्टर रिलीज किया. लेखक-पत्रकार अरविंद दास ने उनसे बातचीत की, एक अंश प्रस्तुत है:
पहले आपने महात्मा गाँधी, सुभाष चंद्र बोस और जवाहर लाल नेहरू के ऊपर फिल्म और डॉक्यूमेंट्री बनाई है, यह फिल्म किस तरह अलग है?
यह भी एक ऐतिहासिक जीवनपरक फिल्म है, जैसा कि ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ या ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फॉरगॉटेन हीरो’ थी. मुजीब हमारे उपमहाद्वीप के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. उन्होंने बांग्लादेश को जन्म दिया. उनकी कहानी बहुत रोचक है. खुद भी वे बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे. वे किसी धनाढ्य या जमींदार परिवार से ताल्लुक नहीं रखते थे, जैसा कि उस दौर के ज्यादातर राजनीतिक नेता थे. वे मध्यवर्ग से आते थे और कामकाजी थे. उनकी पृष्ठभूमि नेहरू या गाँधी जी के जैसी नहीं थी.
यह फिल्म भारत और बांग्लादेश सरकार के सहयोग से बन रही है. इसके बारे में कुछ विस्तार से बताएँ?
हां, यह भारत और बांग्लादेश सरकार के संयुक्त प्रयास का फल है. पिछले साल बांग्लादेश ने आजादी का 50वां और शेख मुजीब का 100वां सालगिरह मनाया था. जब हमने फिल्म पर काम करना शुरू किया तब देर हो चुकी थी और यह फिल्म समारोह का हिस्सा नहीं बन पाई. इस फिल्म के सारे कलाकार बांग्लादेश से हैं.
आपने पिछली सदी के सत्तर के दशक में अंकुर, निशांत, मंथन जैसी फिल्में बनाई, फिर बाद के दशक में मुस्लिम स्त्रियों को केंद्र में रख कर मम्मो, सरदारी बेगम और जुबैदा फिल्में आई, जीवनीपरक फिल्में भी निर्देशित की. आपके लिए विविध विषयों को समेटती इस लंबी फिल्मी यात्रा के क्या मायने हैं?
मेरे लिए प्रत्येक फिल्म का निर्माण सीखने की एक सतत प्रक्रिया है. फिल्म निर्माण के माध्यम से आप अपने आस-पड़ोस, लोगों और देश में बारे में जानते-समझते हैं. फिल्म बनाते हुए आप खुद को शिक्षित करते हैं.
आपकी कई फिल्में सामाजिक मुद्दों के इर्द-गिर्द है. एक बार आपने कहा था कि सिनेमा से समाज को हम बदल नहीं सकते पर वह बदलाव का एक जरिया हो सकता है. क्या अब भी आप ऐसा मानते हैं?
बिलकुल, लेकिन फिल्म आपको अंतर्दृष्टि भी देती है. आपको कुछ ज्यादा सीखने की जरूरत नहीं है. यह अंतर्दृष्टि न सिर्फ खुद के बारे में बल्कि वातावरण, पृष्ठभूमि के बारे में भी मिलती है. साथ ही अपने देश, इतिहास और भी बहुत सी चीजों के बारे में भी.
वर्तमान समय में सब तरफ हिंसा, संघर्ष दिखाई देता हैं. आप सांसद भी रहे हैं. समकालीन समाज में सिनेमा की क्या भूमिका देखते हैं? उदाहरण के लिए ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने समाज को ध्रुवीकृत किया है…
हां, यह समस्या है. सिनेमा आपको प्रभावित करती है और दुनिया के प्रति आपके नजरिए को भी निर्धारित करती है. मैंने ‘द कश्मीर फाइल्स’ नहीं देखी है, पर इसके बारे में सुना है. एक फिल्मकार के रूप में इतिहास के प्रति आपकी एक जिम्मेदारी होती है. जिस फिल्म में जितना प्रोपगेंडा होगा, उसका महत्व उतना ही कम होगा. फिल्म का इस्तेमाल प्रोपगेंडा के लिए भी होता है, पर ऐतिहासिक फिल्मों को बनाते हुए वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखना जरूरी है. बिना वस्तुनिष्ठता के यह प्रोपगेंडा हो जाती है.
वर्तमान समय में सिनेमा की जो स्थिति है उसके बारे में आपका क्या कहना है?
सिनेमा काफी बदल गया है. फिल्म देखने के लिए आप जरूरी नहीं कि सिनेमाघर ही जाएँ. टीवी और ओटीटी प्लेटफार्म ने सिनेमा का एक विकल्प दिया है. ज्यादातर लोग टीवी पर ही फिल्में देखते हैं. इसने फिल्मकारों के सिनेमा बनाने के ढंग को प्रभावित किया है.
फिर सिनेमा का क्या भविष्य आप देखते हैं?
हम भविष्य की ओर नजर गड़ाए हुए हैं. मुझे नहीं पता कि सिनेमा का क्या भविष्य होगा. सिनेमा का भविष्य है, पर जरूरी नहीं कि यह उसी रूप में हो जैसा हमने सोचा था. सिनेमा को गढ़ने में इतिहास और तकनीक दोनों की ही भूमिका होती है. सिनेमा का रूप बदल जाता है. आप किस तरह सिनेमा देखते हैं, वह भी सिनेमा का भविष्य तय करेगा.
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