हिंदुस्तान में जन नाट्य मंच (जनम) एक तरह से नुक्कड़ नाटक का पर्याय है, जिसके केंद्र में रंगकर्मी सफदर हाश्मी (1954-1989) रहे हैं. दिल्ली स्थित रंगकर्मियों के इस समूह ने पिछले पचास वर्षों में सौ से अधिक नाटकों का देश-विदेश के दर्शकों के बीच मंचन किया है. हबीब तनवीर, अनुराधा कपूर, एम के रैना आदि भी इससे जुड़े रहे हैं. पिछले दिनों ख्यात रंगकर्मी और जनम की अध्यक्ष मलयश्री हाश्मी से अरविंद दास ने इस समूह की यात्रा, सफदर हाश्मी, प्रतिरोध की संस्कृति और युवा कलाकारों के बारे में बातचीत की. प्रस्तुत है मुख्य अंश:
जन नाट्य मंच अपनी यात्रा के पचासवें साल में है, इस सफर को किस रूप में देखती हैं?
मैं लगातार यह सोचती रही हूँ कि
यह पचास साल का सफर कैसे मुमकिन हुआ, क्योंकि
हम तो एक बहुत छोटी सी मंडली हैं, हमारे आगे-पीछे कोई नहीं
है. हमारे पास कोई फंड नहीं है, किसी का सहयोग नहीं है. मैं
मानती हूं कि इस यात्रा के पीछे दो कारण हैं. एक तो निरंतरता है. हम बिना रुके
मेहनतकश, कामकाजी दर्शकों के बीच नए-नए कलात्मक नाटक लेकर
गए. हम हमेशा नए दर्शक तक जाते हैं. साथ ही हमारे ग्रुप में नए साथी हमेशा जुड़ते
रहे हैं. ये सौ-पचास नहीं होते, बहुत कम होते हैं. सात-आठ
लोग नाटक के लिए काफी होते हैं. इसमें सभी आयु वर्ग के लोग रहते हैं. कोई जिंदगी
भर नहीं रुकते हैं.दूसरी बात यह है कि नाटक के लिए और भी चीजें जरूरी है, जैसे कि नए विचार हों, खुद की, लोगों की ट्रेनिंग. विविधता और रचनात्मक रेंज भी जरूरी है. ऐसा नहीं कि
हमारे सारे, 125 के करीब नुकक्ड़ नाटक, धांसू रहे हैं, पर एक बेसिक कंपिटेंट लेवल हमेशा
हमने रखा है. बेहतरीन से बेहतरीन कलाकारों से अभिनय निकालने पर हमेशा हम जोर देते
हैं.
इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन
(इप्टा) से निकले लोगों ने ही वर्ष 1973 में जनम को जन्म दिया. क्या इप्टा में
नुक्कड़ नाटक की परंपरा थी?
इप्टा के शुरुआती दिनों
(1943-44) में खास तौर पर बंबई में कामगारों के संघर्ष और सांप्रदायिक दंगे हुए
थे. उस दौरान छोटे-छोटे नाटक, बिना विधिवत
स्क्रिप्ट के, गली-चौराहे पर इप्टा से जुड़े कलाकार करते थे.
इसकी अवधि दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं होती थी. इसे मैं नुक्कड़ नाटक का
प्रारूप समझती हूँ. पूरी दुनिया में इस तरह का काम हमेशा होता रहा है. इसके अलावे ‘स्किट-छोटे छोटे नाटक’ (Skit) भी होता रहा
है. वर्ष 1951 में पानु पाल ने बांग्ला में श्रम के सवाल पर एक नाटक लिखा था,
जिसे इप्टा ने किया था. बीच-बीच में उत्पल दत्त ने भी इस तरह का काम
किया था, लेकिन 1970 के दशक के आखिर में बहुत ग्रुप नुक्कड़
नाटक से जुड़े. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे जो थिएटर से नहीं जुड़े थे.
शुरुआत से जनम के केंद्र में
सफदर हाश्मी थे. नुक्कड़ नाटक में उनकी भूमिका को आप किस रूप में देखती हैं?
सफदर की भूमिका जनम के लिए एक
इंटरनल सवाल के रूप में रही है. हम मंच नाटक पहले करते थे. तब भी हम खुले में, गाँव-चौपाल, मैदानों के चबूतरे पर नाटक
करते थे, क्योंकि सभागार महंगे होते थे. आपातकाल (1975-77)
के बाद हमें जो सहयोग करते थे, जो हमें बुलाते थे, वे उलझे हुए थे. उनके पास हमें बुलाने के साधन नहीं थे. उस समय हम महज छह
लोग संगठन में थे. मुझे याद है कि वर्ष 1978 के सितंबर में हम बात कर रहे थे कि क्या करें यार, कहां नाटक करें. तब सफदर ने बहुत सादगी से कहा था कि ‘यदि हम बड़े नाटक नहीं ले जा सकते हैं तो छोटे नाटक
लेकर जाएंगे जनता के बीच’. यह बहुत प्रैक्टिकल सुझाव था. लेकिन छोटे नाटक
मिलेंगे कहां, यह सवाल भी था. जनम ने उस वक्त लिखने का
सोचा. राकेश सक्सेना ने सफदर के साथ मिल कर एक रात में ‘मशीन’ नामक नाटक लिखा वह मशीनी रिश्तों के बारे में था. जो मूलत: पूंजीवाद के बारे में था. जिस तरह से वह लिखा गया वह
कभी नहीं भूल सकती. ऐसा लग रहा था कि उनके अंदर से बना-बनाया नाटक निकल रहा है, उंगली
बस लिख रही है. हाथ एक का था, शब्द दोनों के थे.
प्रतिरोध का स्वर जनम के नाटकों में हमेशा मुखर रहा है. वर्ष 1989 में एक जनवरी को सफदर
हाश्मी पर ‘ हल्ला बोल’ नाटक के मंचन के दौरान हमले होते हैं और एक दिन के बाद
उनकी मौत हो जाती है. आप दो दिन बाद फिर से उसी जगह पर जाकर ‘हल्ला बोल’ नाटक करती हैं. आपके लिए यह आसान तो नहीं रहा होगा?
मैं नहीं जानती कि वह आसान था
या मुश्किल. लेकिन वहाँ पर जाने का एक मूल कारण यह था कि मैं इप्टा के जमाने से
जनता के बीच में नाटक कर रही थी. यह तो संभव ही नहीं है कि कहीं पर हम नाटक अधूरा
छोड़ कर आएं. यह जन कलाकार और काम-काजी ऑडियंस का आपसी रिश्ता था.
युवा कलाकारों में नुक्कड़
नाटकों को लेकर किस तरह का पैशन दिख रहा है?
मुझे लगता है कि पैशन तो उनमें
है, नहीं तो वो हमारे साथ क्यों जुड़ते. वे सोच-समझ कर ही आ रहे
हैं, उन्हें मालूम है कि जन नाट्य मंच क्या है. वे शौक से
आते हैं. नौजवान पीढ़ी यदि अपने इरादों से खत्म हो गई है तो बात करने का क्या मतलब.
युवा कलाकार अपने-अपने हलकों में अलग-अलग काम कर रहे हैं.
पचास साल पूरे होने पर आप कौन
से नए प्रॉडक्शन लेकर आ रही हैं?
हमें भी अभी नहीं पता कि ये
प्रोडक्शन क्या होंगे. पर मैं इतना बता सकती हूँ कि सुनील शानबाग एक नाटक जुलाई
में करेंगे. दिसंबर में शैली सथ्यू एक नाटक करेंगी और एक और नाटक मल्लिका तनेजा
अगले साल अप्रैल महीने में करेंगी. तीनों का नाटकीय काम बिलकुल अलग है. हमें
उम्मीद है हमारी रचनात्मकता भी इससे उभरेगी. पिछले साल से हमने ‘अंधेर नगरी’ के बहुत सारे शो का मंचन किया है.
(नवभारत टाइम्स, 11 जून 2022)
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