कुछ साल पहले अंग्रेजी के एक वरिष्ठ पत्रकार की मेज पर मैंने एक हिंदी उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद देखा था. उन्होंने उस उपन्यास की तारीफ करते हुए कहा कि काफी रोचक है. मैंने उनसे कहा था कि इससे भी कहीं ज्यादा रोचक और प्रभावी उपन्यास हिंदी में लिखे गए हैं, यह अलग बात है कि उनका अनुवाद अंग्रेजी में नहीं हुआ है.
गीतांजलि श्री के ‘रेत समाधि’ उपन्यास के अंग्रेजी अनुवाद (टूम ऑफ सैंड, डेजी रॉकवेल) को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिलने पर अनुवाद को लेकर हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में बहस छिड़ी है. पहली बार हिंदी या किसी भी दक्षिण एशिया की भाषा में लिखे साहित्य को यह सम्मान मिला है. गीतांजलि श्री हिंदी-उर्दू की उस प्रगतिशील लेखकों की धारा से आती हैं जिन्होंने पिछले सौ वर्षों में हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध किया है, पर अंग्रेजी पाठकों को तभी जाकर उनके बारे में पता चला जब उनकी कृति को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. पिछले दशकों में हमारे समाज में दुभाषी रचनाकारों और बुद्धिजीवियों का अभाव हुआ है. खास कर हिंदी क्षेत्र के लिए यह ज्यादा सच है.
गीतांजलि श्री खुद हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में दक्ष हैं. प्रेमचंद पर लिखी उनकी थीसिस-‘बिटवीन टू वर्ल्डस: एन इंटलेक्चुअल बायोग्राफी ऑफ प्रेमचंद’ काफी चर्चित रही है. अंग्रेजी में उनके कई शोध पत्र भी प्रकाशित हैं, पर रचनात्मक लेखन के लिए उन्होंने हिंदी भाषा ही चुना. अनायास नहीं कि ‘रेत समाधि’ उपन्यास में मोहन राकेश के ‘मलबे का मालिक’ है, मंटो का ‘टोबा टेक सिंह’ भी. यहां कृष्णा सोबती , खुशवंत सिंह, इंतजार हुसैन, शानी और राही मासूम रजा भी मौजूद हैं.
आजाद हिंदुस्तान में अंग्रेजी भाषा सत्ता की भाषा रही है, जबकि पिछले दशकों में पत्रकारिता और साहित्य में भारतीय भाषाओं का दबदबा बढ़ा है. यह बाजार के बूते फली-फूली है. गौरतलब है कि हिंदी साहित्य में पिछले दशकों में दलित और स्त्री लेखन का एक ऐसा स्वर उभरा है जिसकी अनदेखी मुश्किल है. खुद गीतांजलि श्री के उपन्यासों, ‘माई’, ‘हमारा शहर उस बरस’ में उनका ‘विद्रोही-विनोदी’ तेवर दिखाई दिया था, जिसकी हिंदी आलोचना में पर्याप्त चर्चा भी हुई थी. उनके उपन्यासों में सांप्रदायिकता, पुरुषवादी वर्चस्व, विभाजन की त्रासदी का जिस तरह विमर्श रचा गया है वह समकालीन समाज के करीब है.
अनुवाद एक सांस्कृतिक कर्म है. आजादी के बाद साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं का गठन इसी समझ पर आधारित रहा है कि अनुवाद के जरिए भारतीय भाषाओं और साहित्य के बीच आवाजाही बढ़ेगी और देश में सांस्कृतिक एकता की भावना का विकास होगा. देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, एक बार फिर से अनुवाद को ‘राष्ट्र’ के विचार के साथ रख कर देखना प्रासंगिक है. उम्मीद की जा रही है कि अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के बाद हिंदी के साहित्य का अनुवाद अंग्रेजी में बढ़ेगा और उसकी पहुँच अंतरराष्ट्रीय बाजार तक होगी. पर सवाल भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य का भी है. क्या भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य की पहुँच देश के विभिन्न भाषाओं के पाठकों तक है? क्या इन भाषाओं में एक-दूसरे के साहित्य से पर्याप्त अनुवाद हो रहे हैं?
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