फ्रेंच सिने समीक्षा में फिल्म निर्देशक के लिए ‘ओतर’ यानी लेखक शब्द का इस्तेमाल किया जाता रहा है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन विश्व के ऐसे प्रमुख ‘ओतर’ हैं, जो पिछले पचास वर्षों से फिल्म निर्माण-निर्देशन में सक्रिय हैं. इस साल जुलाई महीने में उन्होंने जीवन के अस्सी वर्ष पूरे किए हैं. सिनेमा के जानकार सत्यजीत रे के बाद अडूर गोपालकृष्णन को भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार कहते रहे हैं. खुद रे उनकी फिल्मों को खूब पसंद करते थे, अडूर भी उन्हें अपना गुरु मानते हैं. पर हिंदी लोकवृत्त में अडूर की चर्चा उस रूप में नहीं होती जिस रूप में सत्यजीत रे याद किए जाते हैं. हिंदी समाज में अभी भी उनकी फिल्में पहुँच से दूर हैं.
सिनेमा के प्रति अडूर में आज भी वैसा ही सम्मोहन है, जैसा पचास वर्ष पहले था. अब भी उनके अंदर प्रयोग करने
की ललक है. वर्ष 2019 में दिल्ली में मैंने अडूर गोपालकृष्णन की एक नयी फिल्म ‘सुखायंतम’ देखी थी. प्रदर्शन के
दौरान खुद वे मौजूद थे. यह फिल्म तीन छोटी कहानियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जिसके केंद्र में ‘आत्महत्या’ है, पर हर कहानी का अंत सुखद है. हास्य का इस्तेमाल कर
निर्देशक ने समकालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहज ढंग से चित्रित किया है. यह
एक मनोरंजक फिल्म है, जो बिना किसी ताम-झाम के प्रेम, संवेदना, जीवन और मौत के सवालों
से जूझती है. खास बात यह है कि ‘सुखायंतम’ डिजिटल प्लेटफॉर्म के
लिए बनायी गयी है. इसकी अवधि महज तीस मिनट है. दिल्ली के छोटे सिनेमा-प्रेमी समूह
के सामने फिल्म के प्रदर्शन के बाद अडूर गोपालकृष्णन ने कहा था कि कथ्य और शिल्प
को लेकर उन्होंने उसी शिद्दत से काम किया है, जितना वे फीचर फिल्म
को लेकर करते हैं. अपने पचास वर्ष के करियर में पहली बार अडूर ने डिजिटल
प्लेटफॉर्म के लिए निर्देशन किया है.
अडूर गोपालकृष्णन की जड़ें केरल में
स्थित एक छोटे शहर अडूर में हैं, जो उनके नाम में जुड़ा है. उनका परिवार
नृत्य-नाटिका कथकली का संरक्षक रहा है. सिनेमा में फार्म के प्रति अडूर की
एकनिष्ठता का स्रोत कहीं ना कहीं कथकली में देखा जा सकता है. हालांकि वे यथार्थ के
निरूपण को लेकर कथकली नृत्य-नाटिका और सिनेमा विधा में जो फर्क है उसे रेखांकित
करते रहे हैं. यह नोट करना यहाँ उचित होगा कि सिनेमा अडूर का पहला
प्रेम नहीं था. शुरुआत में उनका रुझान थिएटर की तरफ ज्यादा था. युवावस्था में वे थिएटर से गहरे जुड़े
थे. वर्ष 2006 में एक मुलाकात में उन्होंने मुझे बताया था कि ‘कालेज के दिनों में
मेरी अभिरुचि नाटकों में थी. मैंने फिल्म के बारे में कभी नहीं सोचा था. जब मैंने 1962 में पुणे फिल्म संस्थान में प्रवेश लिया, तो वहां
देश-विदेश की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को देख पाया. मुझे लगा कि यही मेरा क्षेत्र है, जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूं.’ वर्ष 1964 में
फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक फिल्म इंस्टीटयूट, पुणे में बतौर शिक्षक नियुक्त हुए थे.
वे शीघ्र ही छात्रों के चेहते बन गये. उन्होंने भारतीय सिनेमा की एक पीढ़ी को
प्रशिक्षित किया. हिंदी सिनेमा में समांतर धारा के प्रतिनिधि फिल्मकार मणि कौल और
कुमार शहानी एफटीआईआई में उनके शिष्य थे.
गौतमन भास्करन की लिखी जीवनी ( अडूर गोपालकृष्णन: ए लाइफ इन सिनेमा: 57) में अडूर कहते है, ‘सिनेमा असल में फिल्ममेकर का अपना अनुभव होता है. उसकी जीवन के प्रति दृष्टि उसमें अभिव्यक्त होती है.’ अडूर की फिल्मों को देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि फिल्म को निर्देशक का माध्यम क्यों कहा गया है. फिल्म के हर पहलू पर उनकी छाप स्पष्ट दिखती है.
समातंर सिनेमा के प्रणेता
सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों से भारतीय सिनेमा की समांतर धारा प्रभावित रही है. मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा के बरक्स 70 और 80 के दशक में भारतीय सिनेमा में समांतर फिल्मों की जो धारा विकसित हुई, अडूर मलयालम फिल्मों में इसके प्रणेता रहे. उनकी पहली फिल्म ‘स्वयंवरम’ (1972) को चार राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुए थे. इस फिल्म के माध्यम से लोगों को एक युवा निर्देशक का अलहदा स्वर सुनाई पड़ा. यह स्वर मलायलम सिनेमा में समांतर सिनेमा को बुलंद करने वाला साबित हुआ जिसकी अनुगूंज मलयालम फिल्म के युवा निर्माता-निर्देशकों के यहाँ आज भी सुनाई पड़ती है.
स्वयंवरम
के बारे में टिप्पणी करते हुए फिल्म समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता (सीइंग इज विलिविंग: 248) ने लिखा है- “स्वंयवरम में जो नवाचार के दर्शन हुए उसने
केरला और उसके सिनेमा जगत को चकित कर दिया था.” इस फिल्म
में मनोरंजन प्रधान व्यावसायिक सिनेमा के फार्मूले को धता बताते हुए कोई नाच-गाना
नहीं था. पूरी फिल्म को वास्तविक लोकेशन पर ही शूट किया गया था. यह फिल्म दो युवा
प्रेमी विश्वनाथ और सीता के माध्यम से समाज और व्यक्ति के बीच संघर्ष और स्वाधीनता
के सवाल को चित्रित करती है. इसे फिल्म कोऑपरेटिव, चित्रलेखा ने प्रोड्यूस किया
था.
अडूर घटक
और सत्यजीत रे दोनों के प्रशंसक रहे हैं, पर उनकी फिल्में घटक के मेलोड्रामा और
एपिक शैली से प्रभावित नहीं दिखती हैं. काव्यात्मक यथार्थ चित्रण पर जोर, मानवीय
दृष्टि, स्वाधीन चेतना की प्रधानता आदि के
कारण समीक्षक उनकी फिल्मों को रे के नजदीक पाते हैं. हालांकि, उनकी
फिल्म बनाने की शैली और सामाजिक यथार्थ पर पकड़ सत्यजीत रे से काफी अलहदा है. उनकी फिल्में जीवन के छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे
अनुभवों को संपूर्णता में व्यक्त करती रही हैं. केरल का समाज, संस्कृति और
देशकाल इसमें प्रमुखता से उभर कर आया है, पर भाव व्यंजना में वैश्विक है.
अडूर अपने पूरे फिल्मी करियर के दौरान कमर्शियल फिल्मों के दायरे से बाहर
रहे. सिनेमा निर्माण के व्यावसायिक दायरे से बाहर रहने के कारण उन्होंने पूरे
करियर में महज बारह फिल्में ही निर्देशित किया है. गौरतलब है कि अडूर विषय-वस्तु
के लिहाज से किसी फिल्म में खुद को दोहराया नहीं. उनकी फिल्मी यात्रा को देखने पर
यह स्पष्ट है. जहाँ ‘एलिप्पथाएम’ में आजादी के बाद के सामंती समाज और घुटन का
चित्रण है वहीं ‘मुखामुखम’ में एक मार्क्सवादी राजनीतिक कार्यकर्ता फिल्म के
केंद्र में है. ‘अनंतरम’ में एक फिल्मकार की रचना प्रक्रिया से हम रू-ब-रू होते
हैं, जहां यथार्थ और कल्पना में सहज आवाजाही
है. यहाँ रचनाकार के सामने शाश्वत सवाल है कि हम रचें कैसे? वहीं ‘मतिलुकल’ में ‘स्वयंवरम’ की तरह स्वतंत्रता एवँ मुक्ति का प्रश्न
प्रमुखता से उभरा है, हालांकि फिल्म निर्माण की दृष्टि से
अनंतरम के करीब है. ‘कथापुरुषन’ में आत्मकथात्मक स्वर है, इस फिल्म में सामंती हदबंदियों को तोड़ा गया है. फिल्म की शूटिंग भी
उन्होंने अपने पुश्तैनी घर में ही की. अडूर का सिनेमा आजादी के बाद परंपरा और
आधुनिकता के कशमकश को, केरल की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों
को, बदलती हुई राजनीति के परिप्रेक्ष्य में
निरूपित करता है. यहां विभिन्न स्तरों पर विस्थापन और अस्मिता की खोज मौजूद है.
विषय-वस्तु में विविधता भले हो पर अडूर की फिल्मों में केरल की संस्कृति एक
ऐसा सूत्र है जो उनकी पूरी फिल्मी यात्रा को व्याख्यायित करता है. उनकी फिल्मों में सामाजिकता के साथ वैचारिकता का बेहद
महत्वपूर्ण स्थान है. वे कहते हैं कि एक विचार के प्रभाव से बाहर निकलने में
उन्हें काफी वक्त लगता है. सादगी में विश्वास करने वाले अडूर स्वभाव से मितभाषी
हैं. यह उनकी फिल्मों में भी परिलक्षित होता है. उनकी फिल्में कम बोलती हैं.
बिंबों और ध्वनि के जरिए यहाँ दर्शकों को अनुभव और कल्पना से चीजों की व्याख्या
करनी होती है, गैप्स को भरने होते हैं. अडूर का
सिनेमा मनोरंजन से आगे बढ़ ऐसे सामाजिक यथार्थ और अंतर्मन के भावों को हमारे सामने
पेश करता है जो स्थानीयता और समय की सीमा से पार जाता है. यही उनकी कला की विशेषता
है.
‘एलिप्पथाएम’
उनकी सबसे चर्चित फिल्म है. सामंतवादी व्यवस्था के मकड़जाल में उलझे जीवन को
‘चूहेदानी में कैद चूहे’ के रूपक के माध्यम से ‘एलिप्पथाएम’ (1981) में व्यक्त
किया गया है. फिल्म में संवाद बेहद कम है और भाषा आड़े नहीं आती. बिंबों, प्रकाश और
ध्वनि के माध्यम से निर्देशक ने एक ऐसा सिने संसार रचा है, जो चालीस
वर्ष बाद भी दर्शकों को एक नये अनुभव से भर देता है और नयी व्याख्या को उकसाता है.
एक कुशल निर्देशक के हाथ में आकर सिनेमा कैसे मनोरंजन से आगे बढ़ कर उत्कृष्ट कला
का रूप धारण कर लेती है, ‘एलिप्पथाएम’ इसका अन्यतम उदाहरण है. प्रसंगवश, सामंतवाद
और उसके ढहते अवशेषों को रे ने भी ‘जलसाघर’ (1958) में संवेदनशीलता के साथ चित्रित
किया है, पर दोनों
फिल्मों के विषय के निरूपण में कोई समानता नहीं दिखती. कहानी कहने का ढंग अडूर का
नितांत मौलिक है, पर उतना
सहज नहीं है, जैसा कि
पहली नजर में दिखता है. कहानी के निरूपण की शैली के दृष्टिकोण से ‘अनंतरम’ सिने
प्रेमियों के बीच विख्यात रही है. उनकी फिल्मों में स्त्री स्वतंत्रता का सवाल सहज
रूप से जुड़ा हुआ आता है. साथ ही, राजनीतिक रूप से सचेत एक फिल्मकार के
रूप में वे हमारे सामने आते हैं.
सफर में समांतर मलायम सिनेमा
पिछले दिनों जब बांग्ला सिनेमा के चर्चित निर्देशक बुद्धदेव दासगुप्ता का निधन हुआ तब इस बात पर बहस हुई कि हिंदी के अलावे अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की मुख्यधारा के मीडिया में बहुत कम चर्चा होती हैं. सवाल है कि क्यों हम इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के खाते में डाल कर छुट्टी पा लेते हैं, जबकि सिनेमा के विकास में बांग्ला और मराठी समाज की ऐतिहासिक भूमिका रही है.
सच तो यह है कि भारत में पचास भाषाओं
में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती
हैं. यहाँ तक कि विदेश में बैठे दर्शकों तक भी इनकी सहज पहुँच है. ये फिल्में
हिंदी क्षेत्र में पहले महज फिल्म समारोहों तक ही सीमित रहती थी, अडूर की फिल्में
भी इसका अपवाद नहीं है. पिछले दशकों में तकनीक के विस्तार के साथ आई ओटीटी
प्लेटफॉर्म (नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉटस्टार आदि) के मार्फत क्षेत्रीय भाषाओं
में बनने वाली फिल्मों को भी अखिल भारतीय स्तर पर आज दर्शक देख रहे हैं, सराह रहे हैं. इसका
सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई मलयालम फिल्में हैं. उल्लेखनीय है कि सुखायंतम
फिल्म भी पिछले साल ऑनलाइन रिलीज हुई.
कोरोना महामारी के दौरान मलयालम में
रिलीज हुई ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘जोजी’, ‘आरकारियम’, ‘मालिक’ की चर्चा
देश-विदेश में हो रही है. लॉकडाउन के बीच मध्यवर्गीय दर्शकों ने इन फिल्मों को
हाथों-हाथ लिया. ‘जोजी’ और ‘आरकारियम’ फिल्म में तो ‘लॉकडाउन’ और ‘मास्क’ के रूपक का कथ्य में
खूबसूरती से निरूपण भी हुआ है. पिछले दिनों ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ के निर्देशक जियो बेबी ने एक बातचीत के दौरान मुझे बताया कि इस फिल्म को अमेजन और नेटफ्लिक्स ने पहले अस्वीकार कर दिया था. उन्होंने इसे ‘नीस्ट्रीम’ पर रिलीज किया था.
जब फिल्म के बारे में चर्चा होने लगी, अच्छे रिव्यू आने लगे तब इसे अमेजन
प्राइम ने इसे अपने प्लेटफॉर्म पर रिलीज किया. जियो बेबी अपनी फिल्म पर अडूर और
उनके समकालीन फिल्मकार के जी जॉर्ज की फिल्मों के असर की बात स्वीकार करते हैं. इसी
तरह ‘आरकारियम’ फिल्म पहले सिनेमा हॉल में रिलीज हुई थी, हालांकि महामारी के
चलते जब इसे ओटीटी पर रिलीज किया गया तब फिल्म को एक व्यापक दर्शक वर्ग मिला.
मलयालम सिनेमा की इस नई धारा के फिल्मों की चर्चा प्रतिष्ठित अखबार ‘गार्डियन और ‘न्यूयॉर्कर’ पत्रिका में भी हो
रही है. यह उस समय की याद दिलाता है जब मलयालम समांतर सिनेमा के फिल्मों की चर्चा
प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं और कान, वेनिस आदि फिल्म समारोहों में
होती थी.
समातंर सिनेमा की तरह ही कम लागत से
बनने वाली इन फिल्मों में विषय-वस्तु (कंटेंट) और सहज अभिनय पर जोर है. यही कारण
है कि फहाद फासिल जैसे अभिनेता (कुंबलंगी नाइट्स, जोजी, मालिक) की खूब प्रशंसा हो रही है. महेश नारायणन निर्देशत मालिक फिल्म में
सुलेमान के ‘एंटी होरी’ के
किरदार को जिस खूबसूरती से फासिल ने निभाया है लोग इसकी तुलना ‘गॉड फादर’ और ‘नायकन’ फिल्म से कर रहे हैं. पर मलयालम में बनने वाली अन्य फिल्मों की तरह यह
फिल्म भी केरल के समाज में रची-बसी है. इस फिल्म में राजनीतिक स्वर भी मुखर रूप से
व्यक्त हुआ है, जो बॉलीवुड में इन दिनों मुश्किल से सुनाई
पड़ता है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले महेश नारायणन की फहाद फासिल और पार्वती
थिरूवोथु अभिनीत ‘टेक ऑफ’ (2017) फिल्म ने भी खूब सुर्खियाँ बटोरी थी.
सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की धारा को मलयालम फिल्मों के
निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन, के जी जार्ज,
जी अरविंदन, शाजी करुण आदि की फिल्मों ने
संवृद्ध किया था. उनकी फिल्मों ने मलयालम सिनेमा को देश-दुनिया में स्थापित किया, पर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. पिछले
एक दशक में बनी मलयालम फिल्मों को देखकर हम कह सकते हैं कि मलयालम सिनेमा में यह
एक नए युग की शुरुआत है जहाँ पापुलर और समांतर की रेखा मिट रही है. अडूर खुद नए
फिल्मकारों की प्रशंसा करते हैं, हालांकि अडूर ऑनलाइन और नई तकनीक के माध्यम से
सिनेमा के प्रसार को लेकर अच्छी राय नहीं रखते हैं. पर उनकी इस बात से सहमत नहीं
हुआ जा सकता. सामाजिक बदलाव के साथ ही तकनीक और प्रोद्योगिकी में भी बदलाव आता है.
दृश्य कला के उत्पादन और उपभोग की संस्कृति भी इससे प्रभावित होती है. सिनेमा
माध्यम भी इससे अछूता नहीं रह सकता. बड़े दर्शक वर्ग तक
पहुंच के लिए अडूर की फिल्मों को ऑनलाइन सबटाइटल के साथ रिलीज की कोशिश होनी
चाहिए. उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा की अमूल्य थाती है.
अडूर गोपालकृष्णन के साथ अरविंद दास की बातचीत
स्वयंवरम
(1972) से सुखायंतम
(2019) की लंबी
सिनेमाई यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं?
आम तौर पर
मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखता. फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे से पास करने के सात साल बाद मैंने
पहली फिल्म बनाई और उसके बाद एक अंतराल रहा. असल में पूरे फिल्मी करियर में
फिल्मों के बीच एक लंबा अंतराल रहा है. मैंने 12 फिल्में 55 साल के
दौरान बनाई है. मैं इंडस्ट्री का हिस्सा नही रहा. जब फिल्म बना रहा होता था तब
इनसाइडर रहता था और जब नहीं बना रहा होता था तब आउटसाइडर. लोग पूछते हैं कि आपने
इतनी कम फिल्में क्यों बनाई, जबकि इंडस्ट्री में इसी दौरान लोगों ने
पचास-साठ फिल्में बना डाली. सत्यजीत रे ने भी मुझसे एक बार कहा था कि मुझे कम से
कम एक फिल्म हर साल बनानी चाहिए (वे मेरे काम को पसंद करते थे). मैंने उनसे कहा था
कि हां, मेरा भी
यह सपना है. पर मैं जिस तरह विचार को लेकर आगे बढ़ता हूँ और स्क्रिप्ट पर काम करता
हूँ यह हो नहीं पाता. मेरे लिए किसी विचार के प्रभाव से बाहर निकलने में वक्त लगता
है. एक विचार पर काम करने और उससे बाहर निकलने दोनों में मुझे काफी वक्त लगता है.
मैं अक्सर मजाक में कहता हूँ कि ज्यादातर समय मैं फिल्म नहीं बना रहा होता हूँ
(हंसते हैं).
पाँच साल
लग जाते हैं एक फिल्म को परदे पर लाने में...?
हां, कभी कभी
तो सात-आठ साल. पर ऐसा मैं इरादतन नहीं करता. असल में इस इंडस्ट्री में सारी चीजें
हमारे खिलाफ काम कर रही होती है. यहाँ वेरायटी इंटरटेनमेंट (गीत-नृत्य) पर जोर
रहता है, जबकि मेरे
यहाँ सीधा-सादा और आडंबरहीन चीजें हैं जो दर्शकों के जीवन, मेरे जीवन, समाज से
जुड़ी हैं. सौभाग्य से मेरी फिल्मों को हमेशा दर्शक मिले हैं और फिल्में रिलीज हुई
हैं. कभी दर्शकों ने इसे रिजेक्ट नहीं किया. बड़े प्रोडक्शन की फिल्मों की तरह ही
इसका प्रचार-प्रसार हुआ. और इस बात को लेकर मैं हमेशा आग्रही रहा हूँ. मेरे दर्शक
केरल के बाहर देश-विदेश में फैले हैं. मैंने कोई समझौता किसी भी फिल्म में नहीं
किया. जो भी मैंने बनाया उस पर मेरा पूरा नियंत्रण रहा. मेरे लिए खुश होना ज्यादा
जरूरी है. मुझे किसी प्रकार का खेद नहीं है. हर फिल्म मेरे लिए प्रिय है.
सत्यजीत
रे, ऋत्विक
घटक और मृणाल सेन के साथ आपके कैसे संबंध थे? इन तीनों निर्देशकों की कौन सी फिल्म
आपको सबसे ज्यादा पसंद आई?
सत्यजीत
रे मेरे गुरु समान थे. मेरे काम को लेकर हमेशा उन्होंने अच्छी बातें कहीं. वे बहुत
दयालु थे. ऋत्विक घटक के साथ मेरे निजी संबंध नहीं थे, हालांकि
वे मेरे शिक्षक रहे. उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा. उनकी वजह से फिल्म इंस्टीट्यूट में
सिनेमा के बारे में काफी कुछ पढ़ा. वे गजब के फिल्मकार थे. मृणाल सेन मेरे लिए एक
बड़े भाई जैसे थे. रे और सेन के साथ मेरे संबंध प्रेम से भरे थे. मैं खुद को
सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझसे पहले भारतीय सिनेमा के इन तीन विभूतियों को मैंने
देखा-जाना. रे की अपू त्रयी...अपराजितो मुझे खास तौर पर अच्छी लगी. मृणाल सेन की
एक दिन प्रतिदिन और ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा मेरी पंसदीदा फिल्में हैं.
आपने गौतमन
भास्करन की किताब, अडूर गोपालकृष्णन: ए लाइफ
इन सिनेमा, के आमुख में लिखा है कि ‘सिनेमा मेरे लिए महज कहानी को दुहराना नहीं
है’. आप कुछ विस्तार से इस पर बात करेंगें. आपके लिए सिनेमा में कौन का तत्व सबसे
अहम है?
फिल्म, असल में, मेरे लिए
दर्शकों के साथ एक अनुभव साझा करना है. और यह अनुभव साझा करने लायक होने चाहिए.
मेरी फिल्में मेरी संस्कृति को दिखाती है. मैं अपने समाज का हिस्सा हूँ, कोई
आउडसाइडर नहीं. फिल्मकार को अनूठे रूप से नई चीजें कहनी होती है. मैं खुद को
दोहरता नहीं कभी. यह बोरिंग है. सिनेमा का
विकास एक महान कलात्मक चीज को हासिल करने की इच्छा के फलस्वरूप हुआ है. हम आस-पास
घट रही घटना से खुद को अनभिज्ञ नहीं रख सकते हैं.
आपकी
फिल्मों में आत्मकथात्मक स्वर है. क्या यह चेतन रूप से शामिल होता है या आनुषांगिक
है?
एक कलाकार
खुद से बाहर रच ही नहीं सकता. यदि कलात्मक एकनिष्ठता है तो आवश्यक रूप से उसमें
आत्मकथात्क तत्व मौजूद रहेंगे. हां, जब आप रच रहे होते हैं तब उसमें
हेर-फेर स्वाभाविक है.
स्वतंत्रता/मुक्ति
का सवाल स्वंयवरम, एलिप्पथाएम, मतिलुकल
में है. जबकि अनंतरम की रचना प्रक्रिया जटिल है. यहाँ यर्थाथ और कल्पना की रेखा
गढमढ है.
अनंतरम
रचने की प्रक्रिया के बारे में है. सवाल है कि कैसे हम रचें? शुरुआत
में आप अपने अनुभव के ऊपर काम करते हैं और फिर उस अनुभव के पास लौटते हैं. यदि आप
कलात्मक व्यक्ति हैं तो उस अनुभव को आप व्यवस्थित करते हैं और फिर कल्पना की
भूमिका यहाँ आती है. सो सारा कुछ यहाँ मिल जाता है. अनुभव जस के तस रूप में नहीं
आता. उसमें भी बदलाव होता है. हर इंसान के अंदर इंट्रोवर्ट और एक्सट्रोवर्ट मौजूद
रहता है. इस फिल्म में अजयन एक ऐसा ही चरित्र है. यदि आप कहानी देखेंगे तो यहाँ
कोई विभेद नहीं है, एक-दूसरे का पूरक है. दर्शक गैप्स को खुद भर लेता है और कहानी गढ़ता है.
हाल में
रिलीज हुई मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ देखते हुए मुझे सामंती व्यवस्था के
ऊपर बनी आपकी फिल्म एलिप्पथाएम की याद आई थी...
(हंसते
हुए) एलिप्पथाएम की शुरुआत मेरे मन में आए इस विचार से हुई कि हमारे आस-पास जो
चीजें हैं उस पर कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त करते हैं. फिर मुझे खुद ही
जवाब मिल गया कि यदि हम प्रतिक्रिया देना शुरु करें तो हमारे लिए यह असुविधाजनक
होगा. और फिर हम मानने लगते हैं कि कोई दिक्कत नहीं है, ये चीजें
मौजूद नहीं. उन्नी का चरित्र ऐसा ही है. केरल समाज में सामंती संयुक्त परिवार के
विघटन के दौर की कहानी है यह, पचास-साठ के दशक का देश काल है. उन्नी
अपने आस-पास की घटना से विमुख है और खुद में सिमटा पड़ा है.
मलयालम के
अलावे क्या कभी आपने किसी अन्य भाषा में फिल्म बनाने की सोची?
नहीं.
भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही नही है इसमें संस्कृति भी फूलती है. भाषा समान
भले हो पर उसमें जो बारीकी है उसे फिल्म में व्यक्त करना होता है. यदि मैं हिंदी
में फिल्म बनाने की सोचूं तो मेरे लिए संवाद की बारीकियों को समझना मुश्किल होगा
क्योंकि मुझे हिंदी ठीक से नहीं आती.
कोविड
महामारी के दौर में सिनेमा का क्या भविष्य आप देखते हैं?
अभी लोग
लैपटाप, टीवी, मोबाइल पर
सिनेमा देख रहे हैं, पर सिनेमा को वापस हॉल में ही आना होगा. यह एक सामूहिक अनुभव है. छोटे परदे
पर आप दृश्य, ध्वनि की
बारीकियों से वंचित हो जाते हैं. घर में बहुत तरह के व्यवधान भी मौजूद रहते हैं. मैं चाहता हूँ
कि मेरे दर्शक का सारा ध्यान स्क्रीन पर केंद्रित रहे. टीवी का स्क्रीन बहुत छोटा
रहता है. आप सिर्फ मध्य ध्वनि ही सुन पाते हैं. उच्च और निम्मन ध्वनियाँ को सुनना
मुश्किल होता है. दर्शक को काफी समझौता करना पड़ता है यहाँ.
कोई फिल्म जिसका खास तौर पर आप पर प्रभाव पड़ा हो, जिससे आप प्रभावित हुए
हों?
सिनेमा के एक छात्र के रूप में मैं शुरुआत से ही मैं फिल्में देखता रहा
हूँ. जितने भी महान फिल्मकार हैं पिछले सात दशकों में मैंने उनकी फिल्में देखी
हैं. मैं उन सभी चीजों से प्रभावित हुआ हूँ जिसे देखी है. मेरी भाषा में उन सबका
प्रभाव दिखता है जिसे मैंने सिनेमा, थिएटर और अन्य कला रूपों को देखते हुए महसूस
किया. मैं यह सीखा है कि आपको अपनी भाषा, पद्धिति और अप्रोच खुद विकसित करनी होती
है.
भविष्य की कोई योजना जो आप पाठकों से शेयर करना चाहें?
तुंरत कोई योजना नहीं है मेरे पास. कोई ऐसा विचार मन में नहीं है, जिस पर
काम किया जाए. मैं खुद पर दबाव नहीं डालता हूँ...
...............
संदर्भ
अडूर गोपालकृष्णन: ए लाइफ इन सिनेमा, गौतमन भास्करन, पेंग्विन बुक्स, इंडिया, 2017
द फिल्मस ऑफ अडूर गोपालकृष्णन: ए सिनेमा ऑफ इमैनसिपेशन, सुरंजन गांगुली, एंथेम प्रेस, इंडिया, 2015
फेस टू फेस, द सिनेमा ऑफ अडूर गोपालकृष्णन, पार्थजीत बारु, हार्पर कौलिंस,
इंडिया, 2016
सीइंग इज विलिविंग, चिदानंद दास गुप्ता, पेंग्विन/विकिंग, 2008
https://www.newsclick.in/I-Made-Compromise-any-my-Films-Adoor-Gopalakrishnan
(अडूर गोपालकृष्णन के साथ अरविंद दास की मूल बातचीत) न्यूजक्लिक वेबसाइट, 3 जुलाई 2021
स्त्री,
रसोई और आजादी की कहानी, द ग्रेट इंडियन किचन (जियो बेबी से अरविंद दास की बातचीत),
प्रभात खबर, रवि रंग, 18 अप्रैल 2021
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