Sunday, October 02, 2022

किताबों के हवाले से गाँधी


जहाँ महात्मा गाँधी के विचार सौ से ज्यादा खंडो में ‘संपूर्ण गाँधी वांग्मय’ में संग्रहित है, वहीं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर पिछले सौ वर्षों में हजारों किताबें, लेख, शोध पत्र आदि छप चुके हैं. आश्चर्य नहीं कि 21वीं सदी में उनके विचारों की पड़ताल और आलोचना जारी है. इस लेख में हम कुछ किताबों की चर्चा कर रहे हैं, जो पिछले दशकों में प्रकाशित हुए है. ये किताबें महात्मा गाँधी की जीवन यात्रा, उनके विविध रूप और विचारों को विभिन्न दृष्टिकोण से पाठकों के सामने लाने में सफल हैं.

यह उचित है कि महात्मा गाँधी के ऊपर लिखी किताबों की शुरुआत उनकी आत्मकथा, सत्य के प्रयोग, से होनी चाहिए. यह आत्मकथा पहले ‘नवजीवन’ में और फिर ‘यंग इंडिया’ पत्रिका में वर्ष 1925 से 1929 के बीच प्रकाशित हुई. मूल रूप में गाँधी ने इसे गुजराती में लिखा जो आज विभिन्न भाषाओं में सहजता से उपलब्ध है और ‘क्लासिक’ का दर्जा पा चुका है. लेखक-अनुवादक त्रिदीप सुहृद ने विस्तृत भूमिका के साथ इस आत्मकथा के ‘आलोचनात्मक संस्करण’ (2018) को प्रस्तुत किया है, जिसे देखा जाना चाहिए.

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने पिछले दशक में महात्मा गाँधी की दो खंडों में जीवनी लिखी है, जो ‘गाँधी बिफोर इंडिया’ और ‘गाँधी: द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड (1914-1948)’ के नाम से प्रकाशित हुई है. पहले खंड में गाँधी के ‘महात्मा’ बनने की यात्रा को विस्तार से विभिन्न कालखंडो के माध्यम से परोसा गया है. दूसरा खंड दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी, स्वतंत्रता संग्राम में केंद्रीय भूमिका से लेकर समकालीन नेताओं, सहयोगियों के साथ वाद-विवाद-संवाद को समेटे है. यहाँ गाँधी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से हमारा साक्षात्कार होता है. सहज शैली और अद्यतन शोध सामग्री के इस्तेमाल से जीवनी मुकम्मल बन पड़ी है. मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी जीवनी हिंदी अनुवाद में भी उपलब्ध है.

गाँधी एक कुशल वक्ता और संचारक थे, लेकिन उनके पत्रकार रूप की चर्चा छूट जाती है. दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास (1893-1914) के दौरान उन्होंने बहुभाषी पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ (1903) के साथ जुड़ कर अपने विचारों की धार को तेज किया, जो बाद के सत्याग्रह और पत्रकारीय कर्म में काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ था. दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह की लड़ाई, भारतीयों के अस्मिता संघर्ष में इस पत्र की केंद्रीय भूमिका थी. उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के बिना सत्याग्रह असंभव होता.

इतिहासकार इसाबेल हॉफ्मायर की किताब ‘गाँधीज प्रिंटिंग प्रेस: एक्सपेरिमेंट इन स्लो रीडिंग’ (2013) में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि ‘इंडियन ओपिनियन’ के प्रकाशन के दौरान किस तरह गाँधी ने खबरों के उत्पादन, प्रसारण और पढ़ने के तरीकों के लिए धीमी गति की पत्रकारिता पर जोर दिया. वे अपने लेखों में पाठकों को समाचार पत्र पढ़ने की गति धीमी रखने और पाठ को बार-बार पढ़ने को कहते थे. पाठकों के मनन और चिंतन उनकी चिंता के केंद्र में था. यह सब गाँधीजी के सत्याग्रही तेवर को दिखाता है. वे हर पाठक में एक सत्याग्रही की संभावना देखते थे. उल्लेखनीय है कि गाँधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती के पाठकों के लिए ही पैफलेंट के रूप में ‘हिंद स्वराज’ की रचना की थी, जहाँ पाठक और संपादक के बीच संवाद प्रमुख है.

हिंदी में मौलिक रूप से गाँधी को लेकर गंभीर विचार-विमर्श कम ही नजर आता है, पर ऐसा भी नहीं कि साहित्य लिखा ही नहीं गया. इस क्रम में इतिहासकार सुधीर चंद्र की किताब ‘गाँधी एक असंभव संभावना (2011)’ पढ़ी जानी चाहिए. इस किताब में सुधीर चंद्र गाँधी के सचिव प्यारेलाल के हवाले से इस सवाल को उठाते हैं कि ‘कहाँ हो सकते हैं गाँधी आज के जमाने में?’ यह किताब गाँधी के अंतिम दिनों के बारे में है, साथ ही हमारे दौर के बारे में भी है. गाँधी ने एक बार कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है. लेखक-कलाकार जेसन क्वीन ने ‘गाँधी-मेरा जीवन ही मेरा संदेश’ (2014) नाम से रोचक चित्र कथा लिखी है. गाँधी के जीवन और कर्म को अशोक चक्रधर ने खूबसूरत ढंग हिंदी में रूपांतरित किया है.

आखिर में, अकादमिक दुनिया में गाँधी के विचारों को प्रसिद्ध इतिहासकार, समाजशास्त्री, पर्यावरणविद्, स्त्री विमर्शकार और दलित चिंतकों ने देखा-परखा है. इस लिहाज से ए रघुरामाराजू संपादित ‘डिबेटिंग गाँधी: ए रीडर' (2006), एक महत्वपूर्ण संकलन है.

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