चर्चित कवि आलोकधन्वा ने लिखा है-मीर
पर बातें करो/ तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं/ जितने मीर. हाल ही में प्रकाशित
विनीत गिल की किताब- हियर एंड हियरआफ्टर: निर्मल वर्माज लाइफ इन लिटरेचर (Here and Hereafter: Nirmal Verma’s
Life in Literature), पढ़ते हुए ये पंक्तियाँ याद आती
रही. यह किताब हिंदी के अनूठे लेखक निर्मल वर्मा (1929-2005) के जीवन और साहित्य
को समेटे है. इस किताब को लेखक ने ‘दीवानगी की सादगी’ में लिखा है. इसमें आलोचना नहीं है, खंडन-मंडन नहीं है. हिंदी साहित्य संसार से दूर रह कर निर्मल वर्मा से
प्रेम करने वाले विनीत अकेले नहीं हैं. हिंदी और हिंदी के अलावे
विभिन्न भाषाओं में निर्मल वर्मा के प्रशंसकों की एक अलग दुनिया है. इस किताब में युवा लेखक निर्मल के लेखन की गलियों से गुजर कर अपने लिए एक
ठौर, ‘आइकन’ की तलाश में दिखता
है.
हिंदी में निर्मल वर्मा के साहित्य के
ऊपर पर्याप्त विवेचन-विमर्श उपलब्ध है, पर ऐसा नहीं कि निर्मल
को लेकर अंग्रेजी में लेखन नहीं हुआ है. ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से
सम्मानित वे अंग्रेजी की दुनिया में भी एक परिचित नाम हैं. उनके लेखन का विपुल मात्रा
में अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है. शिमला में जन्मे, निर्मल
की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी माध्यम में ही हुई थी. सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास
में उन्होंने एमए किया था और पिछली सदी में 60 का पूरा दशक यूरोप में बिताया था.
वर्ष 1972 में वे दिल्ली लौटे थे.
निर्मल वर्मा ने कहानी, उपन्यास, यात्रा वृत्तांत, निबंध, आलोचना, डायरी
जैसी विधाओं में भरपूर लेखन किया. साथ ही यूरोप प्रवास में उन्होंने चेक साहित्य
का अनुवाद भी किया, पर उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं
लिखी. वे कहते थे: ‘सिद्धांतत: मुझे नहीं लगता कि एक लेखक को आत्मकथा लिखनी चाहिए. मुझे अपना जीवन
सार्वजनिक करने में गहरा संकोच होता है.” वैसे भी अधिकांश आत्मकथा लेखन आत्मश्लाघा ही होता है. ऐसे में निर्मल वर्मा की मुकम्मल जीवनी का अभाव है. ‘हियर एंड हियरआफ्टर’ किताब भी इस मामले में निराश ही करती है.
आत्मकथा को लेकर निर्मल में जैसा संकोच
का भाव था, उसी तरह विनीत में भी जीवनी लेखन को लेकर एक संकोच
दिखता है. वे इस किताब को ‘साहित्यिक जीवनी’ के करीब रखने के हिमायती है. वे निर्मल
के लेखकीय व्यक्तित्व, परिवेश (शिमला-दिल्ली-यूरोप) भाव बोध
के निर्माण, सर्जना और उनके ऊपर लेखकों के प्रभाव का
जिक्र करते हैं, लेकिन एक 'अधूरे
साक्षात्कार' की तरह ही. किताब में उनके प्राग
(चेकोस्लोवाकिया) प्रवास का विवरण रोचक है.
प्रसंगवश, पिछले दिनों ही पत्रकार अक्षय मुकुल ने हिंदी के रचनाकार अज्ञेय की जीवनी ‘राइटर, रेबेल, सोल्जर, लवर: द मैनी लाइव्ज़
ऑफ अज्ञेय’ नाम से लिखी है, जो अज्ञेय के निजी जीवन,
साहित्य, समाज और एक युग के
राजनीतिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को विस्तार से हमारे सामने लेकर आती है. विनीत इस किताब में निर्मल
वर्मा को ‘अज्ञेय का असली वारिस’ कहते हैं, पर किताब में आगे वे यह भी जोड़ते हैं कि “सच्चाई यह है कि
वर्मा का लेखन किसी तयशुदा परंपरा में नहीं आता और इस अर्थ में उनका लेखन
प्रामाणिक तौर पर भारतीय और यूरोपीय दोनों ही है.” असल में, निर्मल वर्मा हिंदी साहित्य के इतिहास में नयी कहानी
आंदोलन के कहानीकार के रूप में समादृत रहे हैं. उनकी 'परिंदे' कहानी हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी जाती है. उनकी
कहानियों में मानवीय अनुभूतियों, व्यक्ति के अकेलापन, अवसाद, घनीभूत पीड़ा का चित्रण मिलता है. शहरी
मध्यवर्गीय जीवन, स्त्री-पुरुष संबंध, घर
की तलाश अधिकांश कहानी के केंद्र में है. उनकी कहानियों में परिवेश मुखर होकर
सामने आता है.
वर्ष 1958 में प्रकाशित उनकी बहुचर्चित
कहानी संग्रह ‘परिंदे’ के बारे में नामवर सिंह ने लिखा था: “फकत सात कहानियों का संग्रह परिंदे निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है
बल्कि जिसे हम ‘नयी कहानी’ कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है.” बाद में हालांकि
आलोचकों ने नामवर सिंह की इस स्थापना पर सवाल उठाया था. 50 के दशक में नयी कहानी
आंदोलन में इलाहाबाद के साहित्यकारों (अमरकांत, शेखर
जोशी, मार्कण्डेय) की बड़ी भूमिका थी. निर्मल वर्मा
उनसे दूर दिल्ली में थे.
नामवर सिंह के ही संपादन में आलोचना पत्रिका
(1989) के निर्मल वर्मा पर
केंद्रित अंक में लिखे शोध लेख ('निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र') में वीर भारत
तलवार ने नोट किया है कि “नई कहानी के दूसरे सभी कहानीकारों और निर्मल की कहानियों के बीच बहुत अधिक
फर्क है...निर्मल की कहानियों का अनूठापन मुख्यत: तीन बातों में है-काव्यात्मक भाषा, चमत्कारपूर्ण
कल्पना और रहस्यात्मकता. यही तीन मुख्य विशेषताएं हैं जो उन्हें नई कहानी के दूसरे
सभी कहानीकारों से, और शायद हिंदी की पूरी कथा-परंपरा
से, अलग करती हैं.” निर्मल वर्मा के लेखन में ‘शब्द’ और ‘स्मृति’ बीज पद की तरह आते हैं. उनकी कहानियों में भी स्मृतियों की बड़ी भूमिका है जो ‘परिंदे’ से लेकर ‘कव्वे और काला पानी’ तक में मौजूद है.
निर्मल वर्मा के लेखन से जो मोहाविष्ट
हैं उन्हें काव्यात्मक भाषा, बिंबों की
असंगतता, रहस्यीकरण के मद्देनजर तलवार के लेख को पढ़ना चाहिए. उन्होंने
कहानियों, लेखों से उदाहरण देकर निर्मल की जीवन दृष्टि
और कला को रेखांकित किया है, साथ ही विस्तार से उसे
प्रश्नांकित भी किया है. विनीत ने अपनी किताब में निर्मल वर्मा के एक पत्र के हवाले से लिखा है कि ‘वे आलोचना के इस अंक से खुश नहीं थे’. साहित्य में सामाजिक यथार्थ भाषा के माध्यम से ही
व्यक्त होता है, आश्चर्यजनक रूप से विनीत अपनी किताब
में निर्मल वर्मा की भाषा पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते. एक चुप्पी है यहां.
निर्मल वर्मा की कहानियों को रंगमंच पर
भी प्रस्तुत किया गया. खास कर ‘धूप का एक टुकड़ा’, ‘डेढ़ इंच मुस्कान’, ‘वीकएंड’, ‘दूसरी दुनिया’ इनमें प्रमुख हैं.
उनकी कहानी ‘माया दर्पण’ पर समांतर सिनेमा
के चर्चित निर्देशक कुमार शहानी ने इसी नाम फिल्म भी बनाई. एक बातचीत में शहानी ने
मुझसे कहा था कि ‘निर्मल ने अनेक बार यह फिल्म देखी, पर उन्हें पसंद नहीं
आई, यह काफी अजीब था.’ निर्मल वर्मा की
कहानी ‘माया दर्पण’ में सामंतवाद
के खिलाफ विरोध नहीं दिखता, जबकि इस फिल्म के अंत में यह
स्पष्ट है.
विनीत गिल ने किताब की भूमिका में
वैश्वीकरण के इस दौर में 'विश्व साहित्य' की अवधारणा पर सवाल उठाया है. हिंदी में लिखा साहित्य विश्व साहित्य क्यों
नहीं है? गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास 'रेत समाधि' (टूम ऑफ सैंड, अनुवाद
डेजी रॉकवेल) को मिले अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के बाद यह सवाल 'बीच बहस में' है-- खास कर अंग्रेजी 'पब्लिक स्फीयर' (लोक वृत्त) में.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
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