दो साल पहले इन्हीं पन्नों पर जब मैंने लिखा था कि मैथिली फिल्में ‘देस’ की तलाश में है, मुझे इस बात का अंदाजा नहीं था वे इतनी जल्दी विदेश पहुँच जाएगी. फ्रांस का प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह ने इसी साल 75वीं वर्षगांठ मनाया, वहाँ भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में शामिल किया गया था. समारोह के फिल्म बाजार में अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘धुइन (धुंध)’ दिखाई गई. यह मैथिली सिनेमा के इतिहास में एक गौरवपूर्ण और अभूतपूर्व घटना है. समारोह के दौरान मैथिली के अलावे हिंदी, मराठी, तमिल, मलयालम और मिशिंग भाषा की पाँच अन्य फिल्में भी दिखाई गईं. मराठी, बांग्ला, असमिया, ते
आज मीडिया में दक्षिण भारतीय सिनेमा की चर्चा हर तरफ है. वहाँ के निर्देशकों और कलाकारों की अखिल भारतीय लोकप्रियता आश्चर्यचकित करता है. कहा तो यह भी जा रहा है कि दक्षिण की तरफ से आ रही इस तेज बयार में कहीं बॉलीवुड बिखर न जाए. इस बात से इंकार नहीं कि ‘सबटाइटल’ और ‘डबिंग’ के मार्फत क्षेत्रीय सिनेमा के प्रसार से देश में जो भाषाई विभाजन है, वह मिटने लगा है. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है, पर मैथिली सिनेमा भारतीय सिनेमा के इतिहास का एक ऐसा पन्ना है जिस पर कहीं कोई बातचीत नहीं होती. मैथिली सिनेमा के इतिहास और वर्तमान से दूसरी भाषाओं के दर्शकों के साथ-साथ सिनेमा उद्योग से जुड़े निर्माता-निर्देशक और वितरक भी सर्वथा अपरिचित ही हैं.
मैथिली सिनेमा का अतीत
मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:
रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज
(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक हेतु चलिये रहल छी)
मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (“रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)
हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे, जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा था, लेकिन मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक ‘द्विरागमन’ के समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्या
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी ‘कन्यादान’ फिल्म दि
इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ सी परमानंद के निर्देशन में भी बन रही थी, जो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर वर्ष 1982 में रिलीज हुई. अस्सी के दशक के मध्य में हमने दूरदर्शन पर इस फिल्म को देखा था. इस फिल्म के निर्माता रहे केदारनाथ चौधरी ने अपनी मैथिली किताब ‘अबारा नहितन’ में फिल्म निर्माण से जुड़े प्रसंगों और संघर्ष को खूबसूरती से पंक्तिबद्ध किया है.
‘कन्यादान’ की तरह ही ‘ममता गाबए गीत’ फिल्म के प्रिंट भी दुर्लभ हैं. इस फिल्म को लोग गीत-संगीत के लिए आज भी याद करते हैं. महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खो, छोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोर, बौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-‘माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी फिल्म में शामिल था. मैथिली भाषा अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध है. संवाद के लिए यह फिल्म खास तौर पर उल्लेखनीय है.
‘कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखे थे. हम जानते हैं कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही बिहार का वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती है, वहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. इसकी क्या वजह है?
इस फिल्म में स्त्रियों के हास-परिहास, सभागाछी, शादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेला, गोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी, गु
सवाल उठता है कि क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुए, जबकि बिहार में सिनेमा के प्रदर्शन और देखने की परंपरा मूक फिल्मों के दौर से रही है? यहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनीं, जिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. सवाल यह भी है क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थी? जब मैंने यह सवाल केदारनाथ चौधरी से पूछा तब उन्होंने कहा- ‘निश्चित रूप से’. यदि ‘तीसरी कसम’ (1966) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप बहुत अलग होता. सी परमानंद की इस फिल्म में छोटी भूमिका थी, जहाँ वे अपने संवाद मैथिली में बोलते हैं. यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘न्यू थिएटर्स स्टूडियो' की देवकी बोस के निर्देशन में हिंदी और बांग्ला में बनी ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? इस फिल्म में एक भी गीत विद्यापति के नहीं थे!
मैथिली सिनेमा का वर्तमान
‘कन्यादान’ और ‘ममता गाबए गीत’ के बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुई, लेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है. इन फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कखन हरब दुख मोर' जैसी फिल्में बाद के दशक में आई पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई. ये फिल्में पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों को समेटे हुई थी. फिल्मांकन और कहानी कहने का ढंग (नैरेटिव) हिंदी सिनेमा से ही प्रेरित रहा.
हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015), रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018) रिलीज हुई. इन दोनों फिल्मों पर भी बॉलीवुड का स्पष्ट प्रभाव है. प्रसंगवश, ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.
अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (2019) फिल्म समारोहों में सराही गई और पुरस्कृत हुई है. मीडिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई. पिछले दिनों इस फिल्म को म्यूजियम ऑफ मार्डन आर्ट, न्यूयॉर्क में भी समकालीन भारतीय सिनेमा के तहत प्रदर्शित किया गया. इससे पहले फिल्म को ऑनलाइन ‘मूबी’ प्लेटफार्म पर रिलीज किया गया था. संक्षेप में, ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. अचल मिश्र मैथिली सिनेमा के युवा स्वर हैं, जिनसे काफी उम्मीदें हैं. ‘गामक घर’ की तरह ही ‘धुइन’ भी प्रतिष्ठित मुंबई फिल्म समारोह में इस वर्ष दिखाई गई थी. जहाँ ‘गामक घर’ की कथा गाँव के जीवन और बाद में पलायन को समेटती है, वहीं ‘धुइन’ की कथा दरभंगा शहर में अवस्थित है.
कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली कमर्शियल फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन और ‘स्टार’ तत्व हावी रहा है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालम, मराठी, असमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. 'धुइन' फिल्म इसी कड़ी में शामिल है. ‘धुइन’ के केंद्र में 25 वर्षीय युवा पंकज है, जो दरभंगा में अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसके सपने मुंबई की दुनिया में बसते हैं. वह दरभंगा से भागना चाहता है. वह कहता है-यहाँ से भागना है तो भागना है, पर पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल नहीं है. पिता सेवानिवृत्त हैं, पर उन्हें नौकरी की तलाश है ताकि बुढ़ापा कट सके. पिता को पंकज की ‘नौटंकी’ (थिएटर से जुड़ाव) पसंद नहीं है. आज भी देश के बड़े हिस्से में सिनेमा-थिएटर के काम को घर-परिवार के लोग आवारगी ही समझते हैं! लोग उसे रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन करने की सलाह देते हैं. ध्यान रहे कि पिछले दिनों बिहार में युवा छात्रों ने बेरोजगारी को लेकर उग्र आंदोलन किया था! पंकज के किरदार में अभिनव झा एक छोटे शहर के एक युवा कलाकार के अंतर्मन की उलझन को चित्रित करने में सफल हैं.
इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. फिल्म की शुरुआत ही दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर एक नुक्कड़ नाटक से होती है. जब पंकज अपने मोबाइल पर ऑनलाइन एक्टिंग के गुर सीख रहा होता है, तब पृष्ठभूमि में रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देती है. छोटे से घर के कोलाहल से दूर जब वह बाहर निकलता है तब भी रेलगाड़ी जा रही होती है. यह एक वास्तविकता है कि पिछले दशकों में बड़ी संख्या में बिहार के मध्यवर्गीय युवा नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए. यह सिलसिला आज भी जारी है. एक धुंध है जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य लिपटा पड़ा है. पर जैसा कि दुष्यंत कुमार कह गए हैं- ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.’ ‘धुइन’ देखते हुए सत्यजीत रे की फिल्म ‘प्रतिद्वंदी’ (1970) की याद आती है. ‘प्रतिद्वंदी’ कलकत्ता (कोलकाता) में अवस्थित है. फिल्म का नायक सिद्धार्थ (धृतमन चटर्जी) एक शिक्षित बेरोजगार युवक है, जिसे नौकरी की तलाश है, लेकिन वाम विचारधारा के कारण उसे बार-बार असफलता हाथ लगती है. देश-काल के बदलते यथार्थ की वजह से उसका व्यक्तित्व अशांत और अस्थिर है. इस फिल्म में रे ने उन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है जिसमें मृणाल सेन सिद्धहस्त थे. हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार बातचीत में अक्सर कहते हैं कि 'रे की फिल्मों में कलात्मक संयम दिखाई देता है'. सिनेमा तकनीक आधारित कला है जो समय के साथ पुरानी पड़ जाती है. ‘प्रतिद्वंदी’ फिल्म अपनी विषय-वस्तु की वजह से पचास साल बाद भी मौजूं है, भले ही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया हो. इस वर्ष कान फिल्म समारोह में 'प्रतिद्वंदी' भी दिखाई गई थी. सत्यजीत रे भारतीय सिनेमा के ऐसे पुरोधा है जिनसे फिल्मकार हमेशा प्रेरणा ग्रहण करते हैं, अचल मिश्र अपवाद नहीं हैं. ‘गामक घर’ के एक दृश्य के माध्यम से उन्होंने उनकी फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ को याद किया है. अचल मिश्र की फिल्मों में बिंब और ध्वनि के संयोजन में कलात्मकता है. यहाँ कोई ताम-झाम नहीं है, एक सादगी है.
बहरहाल, जहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर था, वहीं ‘धुइन’ में ‘हराही पोखर’ है, दरभंगा राज का किला है, हवाई अड्डा है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता है, पर वहाँ रह रहे कलाकारों की बदहाली इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी है, जो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. अचल मिश्र ने बातचीत में मुझसे कहा भी कि ‘उनके ऊपर ईरानी फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी का प्रभाव है’. इस फिल्म का एक दृश्य खास तौर से उल्लेखनीय है, जहाँ फिल्मों से जुड़े हुए बाहर से आए कुछ युवा पंकज के साथ किरोस्तामी की फिल्मों की चर्चा करते हैं और उसमें एक तरह से हीनता का बोध भरते हैं. कम बजट की ये फिल्में लोकेशन पर शूट की गई है.
मैथिली सिनेमा का भविष्य
आधुनिक समय में सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है. किसी भी कला से ज्यादा सिनेमा का प्रभाव बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. पिछले पचास वर्षों में मैथिली में साठ से ज्यादा फिल्में बनी हैं, लेकिन इन दशकों में मैथिली फिल्मों को लेकर निर्माताओं-वितरकों में कोई उत्साह नहीं रहा. जहाँ भोजपुरी सिनेमा का एक बाजार है, वहीं मैथिली सिनेमा एक बाजार विकिसित करने में नाकाम रहा है, जबकि दोनों ही भाषाओं में सिनेमा निर्माण एक साथ ही पिछली सदी के साठ के दशक में शुरु हुआ था. भोजपुरी और मैथिली फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा इन दिनों मैथिली में ‘जैक्शन हॉल्ट’ के निर्माण में लगे हैं और लोगों से फिल्म पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता (क्राउडफंडिंग) की मांग कर रहे हैं, ताकि वे इस साल फिल्म रिलीज कर सकें. उन्हें आम जनता से हालांकि उत्साहवर्धक सहायता नहीं मिल रही है. उन्होंने ‘मिथिला मखान’ के लिए भी लोगों से सहायता की अपील की थी. ‘मिथिला मखान’ को जब नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, हॉटस्टार आदि ओटीटी प्लेटफॉर्म प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे चार साल बाद, वर्ष 2020 में एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, बेजोड़, पर रिलीज करने का फैसला किया. 'मिथिला मखान' मिथिला में रोजगार की समस्या, पलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.
दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैं, भले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. इस भाषा पर एक जाति विशेष का दबदबा हमेशा रहा है. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बहुसंख्यक जनता के सरोकार मैथिली साहित्य और सिनेमा से नहीं जुड़ पाए हैं. साथ ही मैथिली फिल्मों के प्रदर्शन के लिए ‘प्लेटफार्म’ का अभाव भी एक बड़ी समस्या रही है. पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान कन्नड़ सिनेमा के चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली ने मुझे बताया कि “केरल सरकार ने हाल में एक ओटीटी प्लेटफॉ़र्म चालू किया है, जिस पर मलयालम की मुख्यधारा से अलग फिल्में दिखाई जाएंगी. यह वैसी फिल्में होंगी, जिन्हें आलोचकों ने सराहा है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने ध्यान खींचा है. इस मामले में केरल ने नेतृत्व किया है, दूसरे राज्यों को उसका पालन करना चाहिए.” क्या बिहार सरकार कसारावल्ली के सुझाव पर अमल करेगी?
आखिर में, पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर, ओटीटी प्लेटफॉर्म और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता के बल पर कम लागत में फिल्में बनाई जा रही हैं. अचल मिश्र की फिल्में इसका खूबसूरत उदाहरण है. जाहिर है मैथिली सिनेमा के भविष्य का सफर संघर्षों से भरा है, लेकिन सफलता भी इन्हीं पगडंडियों से होकर जाती है. कान इस सफर में एक अहम मुकाम है, जो युवा फिल्मकारों को मैथिली में फिल्म निर्माण-निर्देशन के लिए प्रोत्साहित करेगा.
(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2022)
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