हिंदी में लुगदी साहित्य की चर्चा गाहे-बगाहे होती है, पर लुगदी सिनेमा का जिक्र नहीं होता. असल में मुख्यधारा (पॉपुलर) और समांतर (पैरलल) के बीच सिनेमा की एक और धारा हिंदी में रही है जिसे ‘पल्प सिनेमा’ कहा जाता रहा है.
पिछली सदी के 90 के दशक में इस सिनेमा का बोलबाला रहा है. बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल के कस्बों और महानगरों के सीमांत इलाकों में ये फिल्में दिखाई जाती थी. कम बजट की इन फिल्मों में मुख्यधारा के हीरो मसलन मिथुन, धर्मेंद्र भी दिखते थे हालांकि ज्यादातर ऐसे कलाकार होते थे जो माया नगरी में आए तो हीरो-हीरोइन बनने थे, पर घर-परिवार चलाने के लिए कम बजट की इन फिल्मों में काम करते थे. मसाला फिल्मों की तरह इसमें मारधाड़, हॉरर, सेक्स के सहारे कहानी बुनी जाती थी, चटपटे संवाद होते थे. इन फिल्मों को सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों में रिलीज किया जाता था. चार दिन, एक हफ्ते में शूट की जाने वाली इन फिल्मों से निर्माता को काफी अच्छा मुनाफा हो जाता था और कलाकारों की नकद में कमाई हो जाती थी. बी ग्रेड, सी ग्रेड कही जाने वाली इस तरह की फिल्मों का एक अलग अर्थतंत्र विकसित हो गया था.
एक-दो फिल्मों को छोड़ दिया जाए (लोहा, गुंडा) तो आम तौर पर मीडिया या मध्यवर्ग के ड्राइंग रूम में इन फिल्मों को चर्चा के लायक नहीं समझा जाता था. सिनेमा के समीक्षक भी इन फिल्मों पर लिखने में नाक-भौं सिकोड़ते थे. पर क्या ये फिल्में पॉपुलर संस्कृति हिस्सा नहीं रही है? सवाल है कि इसके दर्शक वर्ग कौन थे? वे किस तरह की मनोरंजन की तलाश में आते थे? 21वीं सदी में इन फिल्मों का बाजार क्यों खत्म हो गया?
पिछले दिनों अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई ‘सिनेमा मरते दम तक’ नाम से छह पार्ट की डॉक्यू-सीरीज इन सब सवालों की पड़ताल करती है. ‘मोनिका, ओ माय डार्लिंग’ और ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसी फिल्मों के निर्देशक वासन बाला ‘सीरीज क्रिएटर’ हैं, इसे दिशा रंदानी, जुल्फी और कुलिश कांत ठाकुर ने निर्देशित किया है. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म 'मिस लवली (2012)' के निर्देशक अशीम अहलूवालिया इसके क्रिएटिव कंसलटेंट हैं. प्रसंगवश, ‘मिस लवली’ पल्प सिनेमा से जुड़े दो भाइयों की कहानी को परदे पर चित्रित करती है जो फिल्म निर्देशक कांति शाह और किशन शाह से प्रेरित है.
सिनेमा के शोधार्थियों और अध्येता के लिए यह सीरीज काफी महत्वपूर्ण है. इन फिल्मों से जुड़े रहे दिलीप गुलाटी, विनोद तलवार, किशन शाह और जे नीलम की जुबानी यह कहानी कही गई है. उन्हें एक बार फिर से कम बजट में फिल्म बनाने का मौका दिया गया है. हालांकि पुरानी पल्प फिल्मों के साथ इनकी बनाई फिल्मों के कुछ ही अंश सीरीज में शामिल हैं. आने वाले समय में इसे अलग से दिखाए जाने की उम्मीद है.
इन फिल्मों के बनाने की रचनात्मक प्रक्रिया क्या थी? दर्शक इस पहलू से रू-ब-रू होता है. साथ ही मुंबई के माया नगरी की एक झलक भी हम देखते हैं. चमकते परदे के पीछे की सच्चाई, संघर्ष की दास्तान जो अलिखित रह जाती है उसे फिल्म से जुड़े फिल्मकारों-कलाकारों ने बयां किया है. कांति शाह और सपना सप्पू के आंसू और उनके अकेलेपन की स्वीकारोक्ति से यह स्पष्ट है.
जिस दौर में ये फिल्में बन रही थी, उसी दौर में भूमंडलीकरण के साथ सिनेमा बनाने की नई तकनीक आ रही थी. सिंगल स्क्रीन की जगह मल्टीप्लेक्स लेने लगा. साथ ही पोर्न और सॉफ्ट पोर्न इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध होने लगी. जैसा कि इस सीरीज में एक जगह टिप्पणी की गई है, हिंदी क्षेत्र के जो दर्शक इन फिल्मों को देखते थे उसकी रूचि भोजपुरी फिल्मों से पूरी होने लगी थी! इसी के साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि आज मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में एक जैसे दर्शक ही क्यों दिखते हैं? निम्नवर्गीय जीवन से जुड़ी कहानियां क्यों पॉपुलर सिनेमा से गायब होने लगी है? हाशिए के समाज के पास सिनेमा मनोरंजन का एक प्रमुख साधन था, जो उनसे दूर हो गया है. अपनी जड़ों से दूर, शहरों में मजदूर का जीवन जीते हुए दर्शकों के लिए ये फिल्में एक तरह से ‘सेफ्टी वॉल्व’ की तरह थी.
जाहिर है इन फिल्मों में स्त्रियों को भोग्या, एक वस्तु के रूप में चित्रित किया जाता था. इसके दर्शक पुरुष होते थे. हालांकि इस सीरीज में फिल्मों में व्याप्त अश्लीलता पर अलग से टिप्पणी नहीं की गई है. निर्माता-निर्देशक ने अपनी नैतिकता को नहीं थोपा है, उस दौर को महज शोधपरक ढंग से संग्रहित करने का काम किया है.
आखिर में, फिल्मकारों ने खुद इसे स्वीकार किया है कि जब फिल्मकारों, वितरकों में लालच का भाव बढ़ा और सेंसर को धता बताते हुए ये बिट्स (पोर्न क्लिप) परोसने लगे तब ही ‘पल्प सिनेमा’ का अंत तय हो गया था!
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