बॉलीवुड और हाल की पापुलर दक्षिण भारतीय फिल्मों की सफलता की पीछे वितरण का तंत्र और प्रचार का भारी योगदान रहा है, जिसका लाभ प्रयोगधर्मी युवा फिल्मकार नहीं उठा पाते हैं. उनके पास प्रचार के लिए बजट नहीं होता. जब अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इन फिल्मकारों की चर्चा होती है, तब ही मुख्यधारा के मीडिया में इन्हें नोटिस लिया जाता है.
फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे से अभिनय में प्रशिक्षित फिल्मकार पुष्पेंद्र सिंह ने पिछले दिनों फेसबुक पर लिखा कि जो दोस्त मुझसे मेरी फिल्मों के बारे में पूछते रहते हैं, उनके लिए मेरी फिल्म देखने का मौका ‘मूबी’ (ऑनलाइन वेबसाइट) पर है. पुष्पेंद्र सिंह हमारे समय के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं. पुष्पेंद्र की फिल्में देश-विदेश के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों का हिस्सा भले रही है, पर आम जनता के लिए उसका प्रदर्शन नहीं हो पाया है. उनकी दो फिल्में—‘लाजवंती’ (2014) और ‘अश्वात्थामा’ (2017) के साथ ‘मारु रो मोती’ (2019) डॉक्यूमेंट्री स्ट्रीम हो रही है.
सितंबर-अक्टूबर में न्यूयॉर्क के ‘द म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा)’ में नई पीढ़ी के भारतीय स्वतंत्र फिल्मकारों की विभिन्न भाषाओं में बनी सोलह फीचर और पाँच लघु फिल्में दिखाई गई जो वर्ष 2010 के बाद बनी है. इस समारोह में पुष्पेंद्र सिंह, अचल मिश्र के साथ अवांगार्द फिल्मकार अमित दत्ता (हिंदी) की फिल्में भी दिखाई गई थी. प्रसंगवश, अमिता दत्ता की फिल्म ‘आदमी की औरत और अन्य कहानियाँ’ में पुष्पेंद्र सिंह ने भी अभिनय किया था.
तकनीक (डिजिटल) के विकास और ओटीटी प्लेटफॉर्म ने सिनेमा निर्माण और वितरण की सहूलियत दे दी है. अमित दत्ता भी एफटीआईआई, पुणे से प्रशिक्षित हैं. उनकी फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिला है. ‘नैनसुख’, ‘सातवीं सैर’, ‘सोनचिड़ी’, ‘लाल भी उदास हो सकता है’ जैसी फीचर और लघु फिल्मों की चर्चा विभिन्न फिल्म समारोहों में खूब हुई.
सिनेमा तकनीक आधारित आधुनिक कला है, जो साहित्य, संगीत और चित्रकला से जीवन रस लेता रहा है. समांतर सिनेमा के दौर में जो भारतीय फिल्मकार हुए उनकी फिल्मों ने सिनेमा को मनोरंजन से अलग एक विचार के रूप में स्थापित किया. विभिन्न कलाओं को समाहित करती इन स्वतंत्र युवा फिल्मकारों की फिल्में भारतीय सौंदर्य शास्त्र में पगी है और समांतर सिनेमा की परंपरा को आगे बढ़ाती है.
अमित्त दत्ता, गुरविंदर सिंह (पंजाबी), चैतन्य ताम्हाणे (मराठी) जैसे फिल्मकारों के यहाँ दृष्टि से लैस सिनेमा का जो स्वरूप है वह इन्हें दुनिया के प्रसिद्ध फिल्मकारों की श्रेणी में खड़ा करता है. अमित द्त्ता ने अपनी किताब ‘खुद के कई सवाल’ में नोट किया है: “अगर मैंने सिर्फ सेल्युलाइड पर ही फिल्में बनाने की सोची होती और डिजिटल छवियों के विकल्प पर ध्यान नहीं दिया होता, तो मैं कुछ नहीं कर पाता.” ऐसा नहीं कि इनकी फिल्मों में कला पक्ष हावी है और सामाजिक-राजनीतिक तत्व गायब. मसलन, चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा (बिज्जी) की कहानी ‘केंचुली’ को आधार बना कर पुष्पेंद्र सिंह ने अपनी फिल्म ‘लैला और सात गीत’ (2020) को जम्मू-कश्मीर के खानाबदोश जनजाति--बकरवाल के जीवन यथार्थ के बीच अवस्थित किया है. फिल्म में स्त्री स्वतंत्रता के साथ समकालीन राजनीतिक सवाल भी उभर कर आए हैं. यहाँ ‘लैला’ कश्मीर का रूपक है.
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