हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा दो जुलाई को जीवन के 75 साल
पूरे कर रहे हैं. हिंदी में कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर
पाठकों की बीच उनके जैसी मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में
लिप्त हैं, पर अभी तक महज एक कविता संग्रह- ‘दुनिया
रोज बनती है’ प्रकाशित है. इस किताब को छपे भी
पच्चीस साल हो गए. उनकी छिटपुट कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती
रही हैं. उम्मीद है कि इस साल उनका दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित होगा.
वर्ष 1972 में ‘फिलहाल’ और ‘वाम’ पत्रिका में उनकी कविता ‘गोली
दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ प्रकाशित
हुई थी. उस दौर में देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज थी. लोगों ने एक अलग
भाषा-शैली, प्रतिरोध की चेतना उनकी कविताओं में
पाया. बाद में उनकी ‘भागी हुई लड़कियाँ’,’ ब्रूनो
की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते’, ‘सफेद
रात’ जैसी कविताएँ काफी चर्चित रही. कॉलेज
के दिनों से ही मैं आलोकधन्वा की कविता का पाठक रहा हूँ. इन वर्षों में गाहे-बगाहे
उनसे बात-मुलाकात होती रही है. उनसे हुई बातचीत का एक संपादित अंश प्रस्तुत है:
# आपकी शुरुआती कविताएं जब छपी उस समय
देश में वाम आंदोलनों का जोर था. क्या आपकी कविता इन आंदोलनों की उपज है?
हां, हम लोग उस समय वाम आंदोलन में थे. जब
फिलहाल में मेरी कविता छपी उस वक्त जय प्रकाश नारायण पटना आए थे. उनकी पहली मीटिंग
जो पटना यूनिवर्सिटी में हुई उसमें मैं वहाँ मौजूद था. जय प्रकाश नारायण बड़े
देशभक्त थे. जेपी, लोहिया, नेहरू सब बहुत विद्वान लोग थे. आजादी
की लड़ाई के दौरान जो मूल्य थे, उन्हीं से हम नैतिक रूप से संपन्न हुए.
हमारे लिए पार्टी से ज्यादा वैल्यू महत्वपूर्ण था. मैंने वर्ष 1973 में
पटना छोड़ दिया था. 1974 में जेपी का आंदोलन शुरु हो गया.
# आपने मीर के ऊपर कविता लिखी है (मीर पर
बातें करो/तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं/ जितने मीर). मीर के अलावे कौन
आपके प्रिय कवि रहे हैं?
कवि के व्यक्तित्व के अनुरूप ही अन्य कवि उसके प्रिय होते हैं. मीर हमारे
प्रिय कवि हैं. कबीर भक्तिकालीन कवियों में बहुत उच्च कवि हैं. यदि आप पूछेंगे कि
सूरदास कैसे थे, तो मैं कहूंगा कि अद्भुत थे. इसी तरह
संत तुकाराम, चंडीदास बड़े कवि थे.
यह कहना बड़ा मुश्किल है, कौन बड़े और प्रिय कवि हैं. आजकल तुलसी
की दो पंक्तियों को लेकर उनकी आलोचना होती है, जिससे मैं सहमत नहीं हूँ. जो यह लिखता
है- ‘परहित सरिस धरम नहीं कोऊ’, उसकी
अच्छाई को हम साथ क्यों नहीं लें? आजकल लोग प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ पर भी
सवाल उठाते हैं. उन पर हमला करते हैं. जो लोग हमला करते हैं असल में वे पढ़ते नहीं
हैं. लोग नेहरू, जेपी पर भी हमला बोलते हैं.
# आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा
है. देश में सांस्कृतिक-राजनीतिक माहौल के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
आज के वातावरण के ऊपर मुझे कुछ नहीं कहना, आप बेहतर जानते हैं. मेरा सिर्फ यह
कहना है कि भारत ने अपने अस्तित्व के लिए जो संघर्ष किया उसमें जो सबसे अच्छा
रास्ता है उसे चुने. उस रास्ते में बहुत बड़े नेता हुए हैं, उन्हें
छोड़ कर अमृत महोत्सव मनाने का क्या मतलब? आप गाँधी, नेहरू, मौलाना
आजाद, सुभाष चंद्र बोस, पटेल को
छोड़ नहीं सकते. भारत में लोकतंत्र की ऊंचाई किसी के चाहने से नष्ट नहीं होगी.
# आपने हाल ही में एक कविता में लिखा है
कि ‘अगर भारत का विभाजन नहीं होता तो हम
बेहतर कवि होते’...
हां, मैं विभाजन से सहमत नहीं हूँ. मैं
मानता हूँ कि वह एक जख्म है. मैंने बलराज साहनी पर एक कविता लिखी है. वह रेखाचित्र
है. इसमें रे हैं, ऋत्विक घटक हैं. ये सब विभाजन से
प्रभावित थे.
# आपकी बाद की कविताओं में स्मृति, नॉस्टेलजिया
की एक बड़ी भूमिका है. जैसे ‘एक जमाने की कविता’ में
आपने अपनी माँ को याद किया है. इसे पढ़कर मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. क्या
लिखते हुए आप भी भावुक हुए थे?
स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली
गई थी, जिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. माँ तो
सिर्फ एक मेरी नहीं है. जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा है, अपने
नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ
सकता है.
# एक और कविता का जिक्र करना चाहूँगा.
आपने लिखा है-हर भले आदमी की एक रेल होती है/ जो माँ के घर की ओर जाती है/ सीटी
बजाती हुई/ धुआं उड़ाती हुई...
रेल मेरे बचपन की स्मृतियों में है और मेरी संवेदनाओं का हिस्सा है. मैं
बिहार से गहरे जुड़ा हूँ. मुंगेर से जमालपुर को जो ट्रेन जाती थी- कुली गाड़ी, तो
उसमें हम सफर करते थे. वह सीटी बजाती और धुआं उड़ाती जाती थी. अपने नेटिव से
जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ पाया जाता है.
चाहे वह विद्यापति हो, रिल्के हो या नेरुदा.
# आपकी कविताओं में सिनेमा के बिंब अक्सर
आते हैं, इसका स्रोत क्या है?
नाटक और सिनेमा हमारे जीवन का एक बड़ा हिस्सा है. सिनेमा का प्रभाव एक बहुत
बड़े समुदाय पर पड़ता है. फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हमारे गुरु थे. सिनेमा हमारे जीवन का
अभिन्न अंग है. सिनेमा ने कथा-कहानी सबको समाहित किया है. आधुनिक काल में बड़ी
साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनी. सिनेमा एक डायनेमिक मीडियम है. सत्यजीत रे ने
विभूति भूषण के साहित्य पर फिल्म बनाई.
# यदि आप कवि नहीं होते तो क्या होते?
(हँसते हुए) यदि कवि नहीं होते तो नेता तो हम कभी नहीं होते. नेता का गुण नहीं है मुझमें. कवि का गुण है मुझमें थोड़ा. हिंदी में कविता के पाठकों का विशाल वर्ग है. जिन पाठकों ने निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय को पढ़ा वे मुझे भी पढ़ते हैं.
(मधुमती पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित, 68-69 पेज)
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