पिछली सदी के 80 का दशक बॉलीवुड के लिए विरोधाभासों से भरा रहा है. एक तरफ मुख्यधारा के फिल्मकारों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट रही थी, वहीं समांतर सिनेमा के फिल्मकारों, अदाकारों, फिल्मों की चर्चा देश-दुनिया में हो रही थी.
हिंदी की ‘कल्ट क्लासिक’ फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ का यह चालीसवां साल है. हिंदी सिनेमा के इतिहास में हास्य को लेकर अनेक फिल्में बनी, लेकिन ‘जाने भी दो यारो’ जैसी कोई नहीं. यह फिल्म दो संघर्षशील, ईमानदार फोटोग्राफर विनोद (नसीरुद्दीन शाह) और सुधीर (रवि बासवानी) की कहानी है, जो एक बिल्डर के भ्रष्टाचार को पर्दाफाश करते हैं. 'हम होंगे कामयाब' के विश्वास के साथ जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते हैं, हम एक ऐसा समाज देखते हैं जिसमें सब कुछ काला है. हास्य-व्यंग्य को आधार बनाते हुए यह फिल्म निर्ममता से सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था, सत्ता के साथ मीडिया के गठजोड़ को उधेड़ती है. चुटीले संवाद से यह दर्शकों का मनोरंजन करती है. यह फिल्म न तो पापुलर सिनेमा का रास्ता अख्तियार करती है, न हीं सत्तर के दशक में बनी समांतर सिनेमा की अन्य फिल्मों की तरह नीरस ही है. सिनेमा निर्माण को लेकर जो प्रयोग यहाँ है, उसे खुद कुंदन आगे जारी नहीं रख पाए. उन्होंने जो टीवी सीरियल निर्देशित किया (ये जो है जिंदगी, नुक्कड़, वागले की दुनिया) हालांकि उसकी याद लोगों को अब भी है.
फिल्म के आखिर में महाभारत का प्रसंग आज भी गुदगुदाता है, लेकिन कुछ समय बाद दृष्टिहीन ‘घृतराष्ट्र’ के इस सवाल से हम नज़र नहीं चुरा पाते कि-‘ये क्या हो रहा है’. इस फिल्म में कई ऐसे प्रसंग है जिसका कोई 'लॉजिक' नहीं है, एबसर्ड है. हमारा समय भी तो ऐसा ही है, जिसमें कई चीजें बिना लॉजिक के चलती जा रही हैं और हम उसे चुपचाप देखते रहते हैं. हमें पता ही नहीं चलता है कि हंसना है या रोना!
हाल ही में समांतर सिनेमा के प्रमुख फिल्मकार, पुणे फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) में कुंदन शाह के सहपाठी रहे सईद मिर्जा ने एक किताब लिखी है- ‘आई नो द साइकोलॉजी ऑफ रैट्स’, जिसके केंद्र में कुंदन शाह (1947-2017) हैं. यह किताब असल में सईद-कुंदन की यारी की दास्तान है, जो स्मृतियों के सहारे लिखी गई है. इसके संग हमारा समय और समाज भी लिपटा चला आता है.
इस किताब से गुजरते हुए हम कुंदन शाह के मानसिक बनावट, उनकी वैचारिक दृष्टि से परिचित होते हैं. कुंदन ने एफटीआईआई और एनएसडी के कलाकारों के संग मिलकर एनएफडीसी के सहयोग से महज सात लाख रुपए में यह फिल्म बनाई थी. नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, भक्ति बर्वे, नीना गुप्ता, रवि बासवानी, सतीश कौशिक, सतीश शाह जैसे मंजे कलाकार एक साथ कम ही फिल्म में दिखे हैं. साथ ही परदे के पीछे रंजीत कपूर, पवन मल्होत्रा, सुधीर मिश्रा, विनोद चोपड़ा (उनकी फिल्म में भी छोटी भूमिका थी), रेणु सलूजा (संपादक) की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं थी. यह फिल्म एक बेहतरीन ‘टीम वर्क’ और काम के प्रति लगन, समर्पण की भी मिसाल है. असल में, यारों की यारी ने ‘जाने भी दो यारो’ को 'कल्ट क्लासिक' बनाया.
No comments:
Post a Comment