समांतर सिनेमा आंदोलन से निकले फिल्मकार और लेखक सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘अफवाह’ इन दिनों चर्चा में है. ‘ये वो मंजिल तो नहीं’, ‘धारावी’, ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ आदि उनकी चर्चित फिल्में है जिन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है. मिश्रा ने फिल्मी करियर के चालीस साल पूरे किए हैं. हाल ही में अरविंद दास ने उनसे बातचीत की. प्रस्तुत है संपादित अंश:
सुधीर मिश्रा: आजकल माहौल ही ऐसा है. और वैसे भी फिल्म थोड़ी आड़ी-टेढ़ी है. मैंने कुछ अफवाहें भी सुनी है इस फिल्म को लेकर कि यह कैसे हुआ. लेकिन अफवाहों पर यकीन नहीं करना चाहिए.
# क्या इसके राजनीतिक कारण हैं? क्योंकि फिल्म बिना नाम लिए राजनीतिक पार्टियों के अफवाह फैलाने की प्रवृत्तियों पर टिप्पणी करती है? यह दिखाती है कि किस तरह राजनीतिक पार्टियां फायदे के लिए अफवाह को वायरल करती हैं..
सुधीर मिश्रा: एक संदर्भ में न्यूयॉर्क टाइम्स से लेकर सब मुझसे कह रहे थे कि ऐसी फिल्में नहीं बन सकती अब. क्योंकि आप लोग डरे हुए हैं. मैं हमेशा जवाब देता था कि यदि मैं डर गया तो फिर यंग लोग क्या करेंगे. मैंने एक फिल्म बनाई जो मैं बनाना चाहता था. हर कोई अपने समय को थोड़ा जानता है. मैं कोई ‘नाइव’ तो हूँ नहीं. मैं अपने मुल्क को, दुनिया को, राजनीतिक पार्टियों को समझता हूँ. मैंने अपने को रोका नहीं. कई क्रिटिक कहते हैं कि मेरी यह सबसे डायरेक्ट फिल्म है. मैं अपने वक्त में थोड़ा सा दखल देना चाह रहा था. यह हमारा काम है न. जैसा भी हुआ, कम से कम यह फिल्म आई और नेटफ्लिक्स पर देखी जा रही है. मुझे निराशा हुई है उन लोगों से, जो सेक्युलर कहते हैं खुद को. आप इस फिल्म को ले जाइए लोगों के बीच. इसका इस्तेमाल कीजिए और मुझे कुछ नहीं चाहिए.
# शुरू से ही आपकी फिल्मों के केंद्र में राजनीति रही है. क्या राजनीतिक फिल्म बनाना मुश्किल रहा है?
सुधीर मिश्रा: मुश्किल तो होता है. देखिए, फार्मूला से अलग, लीक से हट कर फिल्म और वह राजनीतिक हो तो बनानी और थोड़ी मुश्किल होती है. वह आपकी जद्दोजहद तो है. देखिए अगली फिल्म कितनी मुश्किल बनती है, लेकिन में तो बनाऊँगा. कोई जरूरी नहीं है अफवाह की तरह डायरेक्ट हो. एक मामले में यह स्ट्रेट फिल्म है. देखिए एक तरफ रहाब की जर्नी है जो झूठ बोलता था और बबल में रहता था और उससे निकलता है. उसी बबल ने आखिर में उसका रास्ता बंद कर दिया है. चंदन जो लिंचर था, वहीं विक्टिम भी है. एक तरह से चंदन ही फिल्म है. नुआंस कहीं फिल्म में है तो वो है.
# ‘जाने भी यारो (1983)’ फिल्म से एक लेखक के रूप में आपने फिल्मी करियर की शुरुआत की. इस फिल्म में जिस तरह का ह्यूमर है, कहानी है वह हिंदी सिनेमा में विरले मिलता है. आज के दौर में जिस तरह के संवाद इस फिल्म में आए हैं, मसलन महाभारत प्रसंग को लेकर, क्या मुमकिन है?
सुधीर मिश्रा: आखिर का जो महाभारत का सीन है पता नहीं आज लिखना कितना मुमकिन है. उसमें जो ह्यूमर है वह एक तरह से महाभारत को श्रद्धांजलि है. बेवकूफ ही होगा जो इसको नीचा दिखाएगा.
# धृतराष्ट्र का जो अंधापन है वह तो समय से परे है. उसका फिल्म में पूछना कि-यह क्या हो रहा है? मानीखेज है.
सुधीर मिश्रा: बिलकुल. उससे बड़ा तो हमारे यहाँ लिखा नहीं गया कुछ.
# ‘अफवाह’ पर फिर से लौटते हैं. आपने कहा कि चंदन की कहानी है, पर फिल्म में समांतर कहानी लिट-फेस्ट की भी है.
सुधीर मिश्रा: लिट फेस्ट सिर्फ लिट-फेस्ट नहीं है. वह मेटाफर है हम सबका. हम सबने तो दरवाजे बंद कर दिए हैं न. हम जैसे लोग ही तो हैं. मैं भी तो था वहाँ. मैं भी रहाब ही हूँ.
# आपकी फिल्म ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ मैंने एक बार फिर से देखी. इस फिल्म को रिलीज हुए बीस साल हो गए. मेरी समझ में, पिछली सदी के सत्तर के दशक के नक्सलबाड़ी आंदोलन के सपने और हताशा को इससे बेतहर ढंग से हिंदी में दिखाने वाली कोई फिल्म नहीं है. इस फिल्म की रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में मैं आपसे जानना चाहता हूँ.
यार, मैं बताऊँ आपको मैं उस कंट्रोल में नहीं हूँ. कोई चीज उभरती रहती है दिमाग में. यदि आप सुनें ज्यादा तो क्या उभर रहा है आपके दिमाग में... थोड़ा चिंतन करें तो एक कहानी बनती है. इस फिल्म को लिखने में पाँच-छह साल मुझे लगे. पहले कहानी एक नक्सल और एक लड़के की थी, जो कॉलेज में पढ़ता था और पुलिस वाले का... फिर मुझे लगा कि बहुत टिपिकल हो रही है. फिर धीरे से कहाँ से विक्रम मल्होत्रा उभरा. विक्रम एक ऐसा लड़का है जिससे हम कॉलेज मे दूर रहते हैं. उसे दूर रहने के लिए कहते हैं. जो कुछ बनने आया था, फिक्सर है. गीता और सिद्धार्थ हम जैसे लोग हैं. खास कर कोई मुझसे पूछता है कि फिल्म में आप कौन हैं, तो मैं कहता हूँ-गीता. मेरे ख्याल से फिल्म अभी तक जिंदा इसलिए है क्योंकि विक्रम का भी नजरिया है उसमें. जिंदगी आइडियोलॉजी से आगे कहाँ फिसल जाती है, कहाँ एस्केप करती है इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता. यह जो अनप्रेडिक्लटेबिलिटी है, वह इसलिए हैं कि मैं एक गणित के प्रोफेसर का बेटा हूँ. कोई धार्मिक माहौल में पैदा हुआ होगा, कोई साहित्य के माहौल में. मैं प्रोबेबिलिटी के माहौल में पैदा हुआ. कुछ भी निश्चित नहीं है. कुछ ज्यादा मुमकिन है, कुछ कम.
# आपने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत समांतर सिनेमा के दौर में की. किस रूप में समांतर सिनेमा को आप देखते हैं.
समांतर सिनेमा का नाम बड़ा अच्छा नाम है. अभी भी होना चाहिए. दो तरह का सिनेमा है. एक जो पैररल स्ट्रीम है वह सवाल खड़े करता है. वह फार्मूला नहीं है, वह धारा से अलग होता है. उसे कभी-कभी पता नहीं होता है कि कहां जा रहा है. कोई तयशुदा अंत नहीं होता उसका. फार्मूला सिनेमा में सब कुछ तय होता है. जैसे कि ‘लगान’ में अंत में छक्का लगेगा. हीरो जीत जाएगा...आसान है जिंदगी यहाँ, समांतर सिनेमा में कठिन है.
# समांतर सिनेमा के दौर में जो फिल्मकार थे उनमें कला माध्यम से दुनिया देखने का या कह लें बदलने का एक नजरिया था. क्या वह सपना आज बिखर गया है?
एक तरह से बिखर रहा है. देखिए वह इतिहास का जो मोड़ था उसमें जो होना था वही मुमकिन हुआ. मैं तो मानता हूँ कि इतिहास जो है, मार्क्स-लेनिन भी कहते थे कि टू स्टेप फार्वड फोर स्टेप्स बैक. आपस में द्वंद की प्रक्रिया में आगे-पीछे होते हुए कुछ हो रहा है. क्या हो रहा है यह इस वक्त हमारी समझ में नहीं आ रहा है. हम पूंजीवाद से अलग समाज में रहे हैं. जो एक तरह का सामंतवाद है जहाँ चालीस लोग या दो सौ लोग शासन कर रहे हैं दुनिया में. जहाँ सबके हाथों से बहुत कुछ फिसल गया है. यह कहना कि क्या होगा बहुत कठिन है. आदर्शवाद अगर आज के बच्चों या युवाओं के मन में नहीं है तो इसके जिम्मेदार तो हम भी हैं न. हमको देख रहे हैं वो और कह रहे हैं कि इनकी लफ्फाजी से क्या हुआ.
# ऐसे में आज सिनेमा की क्या भूमिका रह गई है?
सवाल पूछना सिनेमा की भूमिका है. जरूरी नहीं है कि घोर राजनीतिक सवाल हो. अलग-अलग किस्म के सवाल हो सकते हैं. सिनेमा हवाओं में सवालों को उछालेगी. कुछ सोचेगी. दूसरे नजरिए को पकड़ने की कोशिश करेगी. अंदाजे-बयां जो होगा वह नया होगा. उससे भी नयी चीजें निकलती है न. कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयां और.
# नए फिल्मकारों से क्या उम्मीद है आपको. क्या कुछ नया बनेगा तकनीक क्रांति के इस दौर में?
नया आएगा मेरे ख्याल से. अनुराग (कश्यप) खैर अब तो बहुत सीनियर हो गया. वह मुझे हमेशा बहुत इंस्पायर करता है-- फार्मूला से हट कर सवाल पूछता हुआ. बहुत सारी चीजों को न कहता हुआ, राह बनाता हुआ. उसके असिस्टेंट भी अब निर्देशक हो गए. बहुत सारे लोग हैं जैसे कि अभिषेक चौबे है, अमित मसूरकर है. अनुभव सिन्हा, हंसल मेहता, विक्रमादित्य मोटवानी है. सुदीप शर्मा है जिन्होंने पाताल लोक लिखा है. मुझे राजू हिरानी और सुभाष कपूर से भी काफी उम्मीद है. मुख्यधारा भी यदि थोड़ा स्वस्थ हो तो वह भी समाज में असर करता है न.
# अभी आप किस परियोजना पर काम कर रहे हैं?
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