कुछ वर्ष पहले दिल्ली में एक फिल्म समारोह के दौरान मैंने फिल्म निर्देशक सुधीर मिश्रा से पूछा कि समांतर सिनेमा के फिल्मकार मुख्यधारा में क्यों चले गए? लगभग चिढ़ते हुए उन्होंने कहा था: ‘यह सवाल मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? मैं तो वैसी ही फिल्में बना रहा हूँ, उनसे पूछिए जो उधर चले गए’. 80 के दशक में 'जाने भी दो यारो (1983)' के साथ उन्होंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत एक लेखक के रूप में की थी. 'ये वो मंजिल तो नहीं', 'धारावी' जैसी फिल्मों के निर्देशन से उनकी एक अलग पहचान बनी. राष्ट्रीय पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित भी किया गया. समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों के लिए राजनीतिक विषय अछूते नहीं थे. उनका ध्येय संवेदनाओं के विस्तार के साथ-साथ दर्शकों को उद्वेलित करना भी था. गोविंद निहलानी की फिल्में इसका बेहतरीन उदाहरण है.
सुधीर मिश्रा बातचीत में अक्सर अपनी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा का जिक्र करते हैं. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्रा उनके नाना थे. उनके पिता को लखनऊ फिल्म सोसाइटी की स्थापना का श्रेय जाता है. दिल्ली विश्वविद्यालय से अध्ययन करने के बाद उन्होंने एफटीआईआई, पुणे में काफी वक्त गुजारा जहाँ उनके भाई पढ़ाई करते थे.
नक्सलबाड़ी आंदोलन और आपातकाल की पृष्ठभूमि में बनी ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ (2003) उनकी बहुचर्चित फिल्म है, जो बीस साल पहले रिलीज हुई थी. 70 के दशक की देश की राजनीति, नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े संभ्रांत और शिक्षित वर्ग के युवाओं के सपने, हताशा को इस फिल्म से बेहतर चित्रित करने वाला हिंदी में शायद कोई अन्य फिल्म नहीं है. प्रेम कहानी के रूप में बुनी गई यह फिल्म एक साथ शहर (दिल्ली) और गाँव (भोजपुर) की यात्रा करती है.
नयी सदी में समांतर सिनेमा का स्वरूप काफी बदल गया है. मुख्यधारा की फिल्मों में गाहे-बगाहे समांतर सिनेमा की अनुगूंज सुनाई पड़ती है. सुधीर मिश्रा, अनुराग कश्यप, अनुभव सिन्हा आदि ऐसे ही फिल्मकार हैं. और कहा जा सकता है कि ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ वह फिल्म है, जिसने इस धारा की शुरुआत की. इन फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र पिछली सदी के समांतर सिनेमा से अलहदा है. नई तकनीक की भी एक बड़ी भूमिका है यहां.
बहरहाल, इन दिनों नेटफ्लिक्स पर सुधीर मिश्रा के लेखन-निर्देशन में बनी ‘अफवाह’ फिल्म स्ट्रीम हो रही है. ‘अफवाह’ फिल्म का सिनेमाघरों में बहुत ही सीमित प्रदर्शन हुआ और वह जल्दी ही उतर भी गईं. जाहिर है, इस फिल्म की चर्चा उस रूप में नहीं हो पाई जिसकी अपेक्षा थी.
‘अफवाह’ फिल्म में एक बार फिर से सुधीर मिश्रा अपने उसी तेवर और राजनीतिक संवेदना के साथ मौजूद हैं. राजनीति एक विषय के रूप में उनके सिनेमा में शुरू से मौजूद रही है. इस फिल्म में राजनीति का विस्तार ‘हजारों ख्वाहिशें जैसी’ हालांकि नहीं है, लेकिन सच को सच की तरह दिखाने का उनमें साहस दिखता है, जो इन दिनों मुश्किल है: न सिर्फ सिनेमा बल्कि साहित्य में भी! हां, फिल्म में साहित्य समारोहों (लिट फेस्ट) पर भी कटाक्ष किया गया है. जहाँ साहित्य कम, तमाशे ज्यादा दिखते हैं.
ऐसी सूचना या खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता न हो अफवाह है. ऐसा नहीं है कि खबर की शक्ल में दुष्प्रचार, अफवाह आदि समाज में पहले नहीं फैलते थे. वर्तमान में देश की राजनीतिक पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं. उनके पास एक पूरी टीम है जो अफवाह और फेक न्यूज के उत्पादन, प्रसारण, वायरल करने में रात-दिन जुटी रहती है. पिछले दशक में सोशल मीडिया और इंटरनेट के उभार ने भी समाज में अफवाह फैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है. यह यथार्थ इस फिल्म का मूल विषय है. फिल्म सधे ढंग से बेहद कुशलता से दिखाती है कि किस तरह अफवाह व्यक्ति की जिंदगी पर असर डालती है और तबाह कर देती है. साथ ही समकालीन समाज में चर्चा के जो विषय हैं- सांप्रदायिकता, लव जिहाद, लिंचिंग आदि लिपटा चला आता है.
ऐसा लगता है कि निर्देशक ‘अफवाह’ के विस्तार के साथ मीडिया की भूमिका और फेक न्यूज की तरफ भी कैमरा मोड़ते तो ज्यादा अच्छा रहता. साथ ही इस फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी या भूमि पेडेनकर के लिए के के मेनन, शाइनी आहूजा या चित्रांगदा सिंह की तरह अभिनय कौशल दिखाने के लिए कोई खास मौका नहीं है.
मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ की तरह भले ही ‘अफवाह’ का वितान फैला नहीं दिखता, बावजूद इसके यह फिल्म समकालीन उत्तर भारतीय राजनीति का एक ठोस दस्तावेज है. विषय-वस्तु के स्तर पर यह हमें गहरे झकझोरती है.
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