वर्ष 1972 में नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले की शुरुआत
की गई और इस वर्ष स्वर्ण जयंती मनाने की तैयारी थी. वर्ष 1988 में ‘दिल्ली’ शीर्षक से लिखी एक कविता में मंगलेश डबराल ने हताशा भरे स्वर में लिखा था- ‘सड़कों पर बसों में
बैठकघरों में इतनी बड़ी भीड़ में कोई नहीं कहता आज मुझे निराला की कुछ पंक्तियाँ
याद आईँ. कोई नहीं कहता मैंने नागार्जुन को पढ़ा. कोई नहीं कहता किस तरह मरे
मुक्तिबोध.’ दिल्ली भले ही
राजनीतिक सरगर्मियों का केंद्र हो, सत्ता की उठा-पटक
सुर्खियों में रहे, पिछले दशकों में साहित्य-संस्कृति की नगरी के रूप में इसकी
प्रतिष्ठा रही है. वर्तमान में यह साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों
का गढ़ है.
किताब के प्रति प्रेम, पठन-पाठन की संस्कृति
भले ही कोलकाता जैसी यहाँ नहीं दिखे, पर देश के
विश्वविद्यालयों के मौजूद होने से एक अकादमिक माहौल यहाँ हमेशा दिखता रहा है. ऐसे
में पुस्तक मेला किताबों के प्रति आम लोगों के प्रेम को दर्शाता है. पिछले वर्षों
में बच्चों के लिए लगने वाले स्टॉलों पर भी खूब भीड़ दिखाई देती रही है. स्कूल
जाने वाले बच्चे अपने माता-पिता के साथ यहाँ दिखते हैं. प्रसंगवश दिल्ली में स्थित ‘चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट’ जैसी जगह देश में बेहद कम है, जहाँ के पुस्तकालय
में केवल बच्चों के लिए किताबें मौजूद हों. कुछ व्यक्तिगत प्रयासों को छोड़ दें तो
पूरे देश में बच्चों के लिए सार्वजनिक पुस्तकालय का सर्वथा अभाव दिखता है. यहाँ तक
कि बड़ों के लिए जो पुस्तकालय हैं, वहाँ भी बच्चों के लिए किताबों का कोई
कोना ढूंढ़ने पर ही मिल पाता है. इस बार के मेले में
बच्चों के लिए लिखने वालों का एक कोना भी पुस्तक मेले के आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट
(एनबीटी) ने प्रस्तावित किया था.
इसी तरह हिंदी के बुक स्टॉलों पर भी अंग्रेजी के
मुकाबले पाठकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. जहाँ वर्तमान समय में शहर में पुस्तक
संस्कृति और मध्यवर्ग के जीवन में किताबों की अहमियत घटती दिख रही है वहीं हर साल
पुस्तक मेले के आंकडें कुछ अलग ही तस्वीर बयां करते हैं. किताबों के पढ़ने, खरीदने और लोगों में
बांटने का एक अलग समाजशास्त्र होता है. यह सच है कि जिस अनुपात में लोगों के पास
पैसा बढ़ा है, पढ़ने की फुर्सत उतनी ही कम हुई है. पर पुस्तक मेले मे आने जाने वालों लोगों
को देख कर निसंस्देह कहा जा सकता है कि एक नया पाठक और नव शिक्षित वर्ग उभरा है, जिसमें पढ़ने की
भरपूर ललक है.
पुस्तक मेले में उन लेखकों से अनायास मिलना हो जाता
है, जिन्हें
आप किताबों में पढ़ते रहे हों. करीब दो दशक पहले हिंदी
के चर्चित कवि केदारनाथ सिंह मेले में मिले, मैंने पूछा कि आपने लिखा है कि 'यह जानते हुए भी कि लिखने से कुछ नहीं होगा, मैं लिखना चाहता हूँ'. ऐसा क्यों लिखा है आपने? केदारजी ने मुस्कुराते हुए, आत्मीयता से कहा था ‘यहाँ क्या बोलूं, घर आइए, वहीं
बैठ कर बात करेंगे.’ मेले के दौरान नवोदित, उभरते हुए रचनाकारों को भी
सहज मंच मिल जाता है. इसी तरह वर्ष 2017 में मंगलेश डबराल की ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ का संकलन मेले के आखिरी दिन मुझे
राजकमल प्रकाशन के बुक स्टॉल पर दिखी. मैंने एक प्रति ली और हॉल के बाहर कुछ
मित्रों के संग बैठे मंगलेश डबराल को दिखाया था. उन्होंने खुद भी सध: प्रकाशित किताब की
यह प्रति नहीं देखी थी. इस किताब पर प्रेम से मेरे लिए उन्होंने ‘शुभकामनाएँ’ अपनी सुंदर लिखावट में दर्ज की. अब बस इन दिवंगत कवियों की यादें हैं.
कोरोना के दौरान पठन-पाठन की संस्कृति खूब प्रभावित
हुई जिसका लेखा-जोखा मुश्किल है. महानगरों में स्थित कई किताबघर बंद हुए. ऐसे में पुस्तक मेला पढ़ने-लिखने वालों
के लिए रोशनदान की तरह है. उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना की तीसरी लहर जैसे ही
कम होगी एक बार फिर से पुस्तक प्रेमी ‘किताबों से बातें
करने’ के लिए मेले में
मिलेंगे.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
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